अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी : उपग्रह और उनकी कक्षाएँ, प्रौद्योगिकी विषय की एक महत्वपूर्ण शाखा हैं, जो हमें अंतरिक्ष को समझने और पृथ्वी पर जीवन को बेहतर बनाने में सहायता करती हैं। उपग्रहों और प्रक्षेपण यान जैसे नवाचारों के माध्यम से यह तकनीक संचार, मौसम पूर्वानुमान और वैज्ञानिक खोजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इस अध्याय में हम निम्नलिखित विषयों का अध्ययन करेंगे:
- उपग्रह और उनकी कक्षाएँ ; सुदूर संवेदन
- भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम व संस्थागत व्यवस्था
- विभिन्न प्रक्षेपण यान
विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
| वर्ष | प्रश्न | अंक |
| 2024 | भारत के रक्षा उत्पादन, ‘विशेष रूप से मिसाइल और अंतरिक्ष तकनीकों, में स्वदेशीकरण के रणनीतिक और प्रौद्योगिकीय महत्त्व का समालोचनात्मक मूल्यांकन करें। | 10 M |
| 2023 | आदित्य-एल 1 मिशन (अभियान) पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए । | 5 M |
| 2021 | ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान और भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान में क्या अंतर है? | 2 M |
अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी : उपग्रह और उनकी कक्षाएँ
अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी क्या है:
अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी विज्ञान और इंजीनियरिंग की एक शाखा है जो उपग्रहों, अंतरिक्षयानों और रॉकेटों जैसी प्रणालियों के डिजाइन, विकास और तैनाती पर केंद्रित है। यह अंतरिक्ष अन्वेषण, अवलोकन और संचार, आपदा प्रबंधन एवं पर्यावरण निगरानी जैसे मानव हित के व्यावहारिक अनुप्रयोगों को सक्षम बनाती है।
अंतरिक्ष अन्वेषण का संक्षिप्त इतिहास
प्रारंभिक रॉकेटरी और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का जन्म (प्रारंभिक 20वीं शताब्दी)
- 1903: कॉन्स्टेंटिन त्सोल्कोव्स्की का रॉकेट समीकरण और अंतरिक्ष यात्रा की अवधारणाएँ
- 1926: रॉबर्ट गोडार्ड द्वारा पहले तरल-ईंधन वाले रॉकेट का प्रक्षेपण
- 1944–1945: वर्नर वॉन ब्रौन के नेतृत्व में जर्मनी में V-2 रॉकेट का विकास
शीत युद्ध के दौरान अंतरिक्ष की दौड़ (1950–1970) से वर्तमान तक
शीत युद्ध अंतरिक्ष दौड़ और उससे आगे
- 1957: स्पुतनिक 1 और 2 (पहला उपग्रह और जीवित प्राणी, USSR)
- 1958: एक्सप्लोरर 1 (पहला अमेरिकी उपग्रह, वैन एलन बेल्ट)
- 1959: लूना 2 (पहला चंद्रमा प्रभाव, USSR)
- 1961–69: गागरिन (पहला मानव, USSR) → मैरिनर 2 (शुक्र, USA) → लूना 9 (चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग, USSR) → अपोलो 11 (चंद्रमा पर लैंडिंग, USA)
- 1971–77: मैरिनर 9 और मार्स 3 (मंगल की पहली कक्षा और लैंडिंग) → लूना 17 (पहला चंद्र रोवर) → वॉयजर 1 (सौर मंडल छोड़ा, USA)
- 1981–98: कोलंबिया (पुन: प्रयोज्य शटल) → चैलेंजर (दुर्घटना) → ISS (वैश्विक सहयोग)
निजी अंतरिक्ष कंपनियाँ और अन्वेषण का भविष्य (2000-वर्तमान):
स्पेसएक्स (एलोन मस्क), ब्लू ओरिजिन (जेफ बेजोस) और वर्जिन गैलेक्टिक (रिचर्ड ब्रैनसन) जैसी निजी कंपनियों ने अंतरिक्ष अन्वेषण में क्रांति ला दी है।
- स्पेसएक्स: फाल्कन 9, क्रू ड्रैगन (सस्ती अंतरिक्ष यात्रा, NASA भागीदार), डियर मून प्रोजेक्ट (2023 में रद्द)
- ब्लू ओरिजिन: न्यू शेपर्ड (सब ऑर्बिटल उड़ानें, बेजोस 2021 में उड़े), न्यू ग्लेन (भविष्य का ऑर्बिटल), NS-25 (गोपीचंद थोटाकुरा क्रू पर)
- वर्जिन गैलेक्टिक: स्पेसशिप वन (अंसारी एक्स पुरस्कार, 2004), स्पेसशिप टू (जल्द ही व्यावसायिक उड़ानें)
चल रहे और भविष्य के मिशन
- 2020: आर्टेमिस (चंद्रमा पर वापसी, 2024–28), यूरोपा क्लिपर (बृहस्पति का चंद्रमा, 2024)
- 2030: मार्स सैंपल रिटर्न (NASA–ESA, मंगल की मिट्टी)
- 2021: जेम्स वेब टेलीस्कोप (एक्सोप्लैनेट, आकाशगंगाएँ, तारा निर्माण)
- व्यावसायिक भविष्य: मंगल मिशन, सब ऑर्बिटल पर्यटन (स्पेसएक्स, ब्लू ओरिजिन, वर्जिन गैलेक्टिक)
कक्षाएँ (Orbits)
परिभाषा: एक कक्षा वह वक्राकार पथ है जिस पर कोई वस्तु (जैसे ग्रह, चंद्रमा, उपग्रह या अंतरिक्षयान) गुरुत्वाकर्षण बल के कारण किसी अन्य वस्तु के चारों ओर घूमती है। उदाहरण के लिए, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर कक्षा में घूमती है और चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर कक्षा में घूमता है। कक्षा, एक वस्तु पर कार्य करने वाले दो बलों का परिणाम:
- गुरुत्वाकर्षण बल: वह बल जो वस्तु को केंद्रीय पिंड (जैसे सूर्य, पृथ्वी) की ओर खींचता है ⇒ अभिकेंद्रीय बल
- जड़त्व: वस्तु की स्थिर गति से सीधी रेखा में गति करने की प्रवृत्ति ⇒ अपकेंद्रीय बल (कक्षीय फ्रेम में आभासी बल)
ये दोनों बल एक-दूसरे को संतुलित करके वस्तु को निरंतर वक्राकार पथ पर बनाए रखते हैं।
मुख्य शब्दावली:
- कक्षीय वेग (Orbital Velocity): वह गति जिस पर एक वस्तु को गुरुत्वाकर्षण और उसकी गति को संतुलित करने के लिए कक्षा में बने रहने हेतु यात्रा करनी चाहिए।
- उपभू (Perigee): कक्षा का वह बिंदु जो केंद्रीय पिंड के सबसे निकट होता है (जैसे पृथ्वी के सबसे निकट)।
- अपभू (Apogee): कक्षा का वह बिंदु जो केंद्रीय पिंड से सबसे दूर होता है (जैसे पृथ्वी से सबसे दूर)।
- दीर्घवृत्तीय कक्षा (Elliptical Orbit): अंडाकार कक्षा, जहां वस्तु केंद्रीय पिंड से निकट और दूर होती रहती है।
- वृत्तीय कक्षा (Circular Orbit): एक विशेष स्थिति जहां कक्षा पूर्णतः गोलाकार होती है।
नोट: केप्लर के नियम किसी केंद्रीय पिंड के चारों ओर कक्षा में वस्तुओं की गति का वर्णन करते हैं।
कक्षीय वेग (Orbital Velocity):
- यह उस गति को संदर्भित करता है जिस पर किसी वस्तु को किसी ग्रह या खगोलीय पिंड के चारों ओर स्थिर कक्षा में बने रहने के लिए यात्रा करनी चाहिए।
- कक्षा में वस्तु को बनाए रखने के लिए आवश्यक अभिकेंद्रीय बल, वस्तु और केंद्रीय पिंड के बीच गुरुत्वाकर्षण बल होता है।


पलायन वेग (Escape Velocity):
- पलायन वेग किसी वस्तु के लिए आवश्यक न्यूनतम गति है ताकि वह किसी ग्रह या खगोलीय पिंड के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से बिना किसी अतिरिक्त प्रणोदन के बाहर निकल सके।

परिक्रमण काल (Orbital Period):
- परिक्रमण काल किसी वस्तु द्वारा अपने केंद्रीय पिंड के चारों ओर एक पूर्ण कक्षा (चक्कर) पूरी करने में लगने वाला समय है।
- एक वृत्तीय कक्षा के लिए, परिक्रमण काल T, कक्षा की त्रिज्या r और केंद्रीय पिंड के द्रव्यमान M से संबंधित होता है:

कक्षा (ऑर्बिट) के प्रकार

ऊंचाई के आधार पर:

1. निम्न पृथ्वी कक्षा (Low Earth Orbit – LEO)
- ऊंचाई: पृथ्वी की सतह से 160 किमी से 2,000 किमी तक
- विशेषताएँ:
- एक पूर्ण कक्षा पूरी करने में लगभग 90 से 120 मिनट
- कक्षीय वेग: ऊंचाई पर निर्भर करता है। उदाहरण: 200 किमी पर ~7.8 किमी/से (28,000 किमी/घंटा)
- निकटता उच्च-रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग और कम संचार विलंबता को सक्षम बनाती है
- वायुमंडलीय घर्षण के प्रभाव में होती है, जिसके लिए ऊंचाई बनाए रखने हेतु समय-समय पर समायोजन की आवश्यकता होती है
| लाभ | हानियाँ |
| प्रक्षेपण के लिए कम ऊर्जा की आवश्यकता | 1. सीमित दृश्य क्षेत्र (field of view) |
| 2. कम विलंबता (latency) के साथ तीव्र संचार | 2. कक्षीय क्षय (orbital decay) के कारण पुनः बूस्टिंग की आवश्यकता |
| 3. कम शक्तिशाली ट्रांसमीटरों की आवश्यकता | 3. कवरेज के लिए अधिक उपग्रहों (constellations) की आवश्यकता |
| 4. सर्विसिंग और प्रतिस्थापन में आसानी | 4. अंतरिक्ष कचरे के साथ टकराव का उच्च जोखिम |
| 5. प्रक्षेपण और रखरखाव लागत प्रभावी | 5. वायुमंडलीय घर्षण (drag) के कारण कम जीवनकाल |
- अनुप्रयोग:
- पृथ्वी अवलोकन, आपदा प्रबंधन, जासूसी उपग्रह और उपग्रह इमेजिंग। उदाहरण: रोहिणी उपग्रह, RISAT-2B, EOS-01
- अंतरिक्ष स्टेशन। उदाहरण: अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS), तियांगोंग अंतरिक्ष स्टेशन (चीन)
- संचार प्रणालियाँ जैसे उपग्रह इंटरनेट नक्षत्र। उदाहरण: स्टारलिंक (स्पेसएक्स), वनवेब, अमेज़न कुइपर प्रोजेक्ट
- नोट: LEO में उपग्रह किसी भी समय पृथ्वी का केवल एक छोटा सा भाग ही देख सकते हैं, लेकिन स्टारलिंक जैसे तारामंडल (उपग्रह समूह) निरंतर कवरेज प्रदान करने के लिए एक साथ काम करते हैं।
- खगोलीय अवलोकन। उदाहरण: हबल स्पेस टेलीस्कोप, एस्ट्रोसैट (भारतीय खगोलीय मिशन)
- अंतरिक्ष पर्यटन कंपनियाँ जैसे वर्जिन गैलेक्टिक और ब्लू ओरिजिन, जो उप-कक्षीय अंतरिक्ष उड़ानों के लिए LEO का उपयोग करना चाहती हैं
2. मध्यम पृथ्वी कक्षा (Medium Earth Orbit – MEO)
- ऊंचाई: पृथ्वी की सतह से 2,000 किमी से 35,786 किमी तक
- विशेषताएँ:
- परिक्रमण काल: 2 से 12 घंटे तक
- गति: LEO से कम, लेकिन GEO से अधिक
- अनुप्रयोग: MEO उन उपग्रहों के लिए उपयोगी है जिन्हें LEO और GEO कक्षाओं के लाभों के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है।
- वैश्विक नौवहन उपग्रह प्रणालियाँ (GNSS): MEO, पोजिशनिंग, नेविगेशन और टाइमिंग (PNT) उपग्रहों के लिए मानक कक्षा है। उदाहरण:
- GPS (USA) – ऊंचाई: ~20,200 किमी, GLONASS (रूस), गैलीलियो (यूरोप), बाइदु – BeiDou (चीन)
- ये प्रणालियाँ अर्ध-तुल्यकालिक कक्षाओं (12-घंटे के परिक्रमण काल) का उपयोग करती हैं, जो प्रतिदिन भूमध्य रेखा के समान स्थानों से गुजरती हैं।
- संचार उपग्रह: उदाहरण: SES O3b और O3b mPOWER दूरस्थ, समुद्री और वायु स्थानों के लिए कम-विलंबता (लेटेंसी) वाली ब्रॉडबैंड सेवा प्रदान करते हैं।
- वैश्विक नौवहन उपग्रह प्रणालियाँ (GNSS): MEO, पोजिशनिंग, नेविगेशन और टाइमिंग (PNT) उपग्रहों के लिए मानक कक्षा है। उदाहरण:
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MEO के लाभ 141372_350c1b-31> |
MEO की चुनौतियाँ 141372_cd4125-e7> |
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3. उच्च पृथ्वी कक्षा (High Earth Orbit – HEO)
- परिभाषा: एक उच्च भू कक्षा (HEO) एक भूकेंद्रित कक्षा है जिसका अपभू (apogee) भू-तुल्यकालिक कक्षा (35,786 किमी या 22,236 मील) से अधिक दूरी पर स्थित होता है।
- परिक्रमण काल (Orbital Period): 24 घंटे से अधिक, कक्षा की ऊंचाई और आकार पर निर्भर करता है।
- HEO के प्रकार:
- GEO (Geostationary Orbit): भू-स्थिर कक्षा, GSO (Geosynchronous Orbit): भू-समकालिक कक्षा, GTO (Geostationary Transfer Orbit): भू-स्थिर स्थानांतरण कक्षा, HEO (Highly Elliptical Orbit): अत्यधिक दीर्घवृत्तीय कक्षा, NRHO (Near-Rectilinear Halo Orbit): निकट-आयताकार हेलो कक्षा
- अनुप्रयोग:
- संचार और नौवहन (नेविगेशन): विलंब के कारण सीमित अनुप्रयोग, लेकिन वैश्विक प्रसारण या अतिरेक (redundancy) के लिए उपयोगी
- वैज्ञानिक अनुसंधान: खगोलीय वेधशालाओं और पृथ्वी विज्ञान मिशनों के लिए आदर्श जिन्हें विस्तृत दृश्य या गहन अंतरिक्ष परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता होती है
- सैन्य: निगरानी, रणनीतिक संचार और नौवहन
- उदाहरण उपग्रह:
- TESS (Transiting Exoplanet Survey Satellite): एक्सोप्लैनेट खोज के लिए
- विशिष्ट वैश्विक या क्षेत्रीय कवरेज आवश्यकताओं वाले संचार उपग्रह
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लाभ (Advantages) 141372_223c89-ac> |
चुनौतियाँ (Challenges) 141372_37f060-12> |
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विशेष स्थितियाँ
उच्च दीर्घवृत्ताकार कक्षा (HEO – Highly Elliptical Orbit) – HEO का एक प्रकार, जिसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- निम्न उपभू (Perigee): लगभग 2,000 किमी तक नीचा
- उच्च अपभू (Apogee): GEO (भू-स्थिर कक्षा) से भी आगे तक
- उच्च नति (Inclination): प्रायः उच्च अक्षांश क्षेत्रों के कवरेज के लिए प्रयुक्त
- उदाहरण उपयोग: पृथ्वी की छाया से बचने हेतु अंतरिक्ष दूरबीनें
भू-तुल्यकालिक कक्षा (GSO – Geosynchronous Orbit)
- परिभाषा: ऐसी कक्षा जिसमें उपग्रह की कक्षीय अवधि पृथ्वी के घूर्णन (23 घंटे 56 मिनट 4 सेकंड) के बराबर होती है।
- विशेषताएँ:
- ऊँचाई: लगभग 35,786 किमी (22,236 मील)
- नति: यह कक्षा विषुवतीय (equatorial) नहीं भी हो सकती
- भूमि से दृश्य: पृथ्वी से देखने पर उपग्रह “अनालेम्मा” अर्थात् आठ (8) की आकृति में दिखाई देता है
- उपयोग:
- संचार व वैज्ञानिक अवलोकन (जहाँ स्थिर भू-स्थिति आवश्यक नहीं होती)
- मौसम उपग्रह, जैसे: GSAT श्रृंखला, कल्पना-1, भास्कर-I
भू-स्थिर कक्षा (GEO – Geostationary Orbit)
- परिभाषा: भू-समकालिक कक्षा का एक विशेष रूप, जहाँ उपग्रह: विषुवत रेखा के ठीक ऊपर (0° नति) स्थित होता है तथा पृथ्वी की सतह के सापेक्ष स्थिर प्रतीत होता है।
- इतिहास: 1945: आर्थर सी. क्लार्क द्वारा इस अवधारणा का प्रस्ताव, जिसे “क्लार्क ऑर्बिट” या “क्लार्क बेल्ट” भी कहा जाता है
- प्रथम उपग्रह: Syncom 3 (1963 में प्रक्षिप्त)
- विशेषताएँ:
- ऊँचाई: 35,786 किमी (विषुवत रेखा के ऊपर)
- दिशा: पृथ्वी के घूर्णन के समान दिशा में (प्रोग्रेड)
- कक्षा स्वरूप: पूर्णतः वृत्ताकार और विषुवतीय तल में
- कक्षीय अवधि: 23 घंटे 56 मिनट 4 सेकंड (पृथ्वी के घूर्णन के समान)
- अनुप्रयोग:
- संचार: टीवी, रेडियो, इंटरनेट प्रसारण (जैसे INSAT, GSAT)
- मौसम विज्ञान: GOES (अमेरिका), हिमावरी (जापान), मेटियोसैट (यूरोप) — चक्रवात ट्रैकिंग, बादल विश्लेषण, वनस्पति निगरानी, ज्वालामुखीय राख पूर्वानुमान
- नेविगेशन: GNSS प्रणाली को सहयोग
- वैज्ञानिक अनुसंधान: पृथ्वी अवलोकन और गहन अंतरिक्ष मिशनों हेतु डेटा रिले
- प्रक्षेपण आवश्यकताएँ:
- उपग्रह को पहले GTO (Geostationary Transfer Orbit) में स्थापित किया जाता है, फिर वह GEO तक स्वयं की प्रणोदन प्रणाली द्वारा परिपथीय कक्षा में प्रवेश करता है
- विषुवत रेखा के समीप प्रक्षेपण स्थल (जैसे गुयाना स्पेस सेंटर) झुकाव परिवर्तन को न्यून करता है तथा ईंधन की बचत करता है
- तथ्य: केवल तीन GEO उपग्रह सम्पूर्ण पृथ्वी का वैश्विक कवरेज प्रदान करने में सक्षम होते हैं।
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लाभ 141372_5f97ce-88> |
चुनौतियाँ 141372_e2f6c1-c3> |
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GSO (भू-तुल्यकालिक कक्षा) और GEO (भू-स्थिर कक्षा) के बीच अंतर

| पहलू (Aspect) | भू-समकालिक कक्षा (GSO) | भू-स्थिर कक्षा (GEO) |
| नति (झुकाव) | किसी भी नति पर हो सकती है; विषुवतीय तल तक सीमित नहीं | निश्चित 0° नति (विषुवत रेखा के ठीक ऊपर) |
| भूमि से दृश्य | उपग्रह “अनालेम्मा” (आठ की आकृति) में घूमता दिखता है | उपग्रह स्थिर दिखाई देता है |
| अनुप्रयोग | वैज्ञानिक अवलोकन, विशिष्ट मिशन | टीवी प्रसारण, मौसम निगरानी जैसे निरंतर निगरानी वाले कार्य |
| कवरेज क्षेत्र | नति के अनुसार परिवर्तनशील कवरेज | हमेशा समान क्षेत्र को कवर करता है |
- सभी भूस्थिर कक्षाएँ भूतुल्यकालिक होती हैं, लेकिन सभी भूतुल्यकालिक कक्षाएँ भूस्थिर नहीं होती हैं।
- GEO, GSO का एक विशेष उपसमुच्चय है जो विषुवत रेखा (0° inclination) पर स्थिर दिखता है।
ध्रुवीय कक्षा (Polar Orbit) और सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा (SSO – Sun-Synchronous Orbit)
ध्रुवीय कक्षा (Polar Orbit) :
इस कक्षा में उपग्रह पृथ्वी के ध्रुवों के ऊपर से गुजरता है, अर्थात् उत्तर से दक्षिण की दिशा में यात्रा करता है। पृथ्वी के घूर्णन के कारण, समय के साथ यह कक्षा सम्पूर्ण वैश्विक क्षेत्र का आवरण प्रदान करती है।
- ऊँचाई: सामान्यतः 200 किमी से 1,000 किमी के मध्य।
- प्रक्षेपण आवश्यकताएँ: ध्रुवीय कक्षा प्राप्त करने के लिए विषुवतीय (equatorial) कक्षा की तुलना में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, क्योंकि पृथ्वी के घूर्णन वेग का लाभ नहीं लिया जा सकता।
- अनुप्रयोग:
- पृथ्वी अवलोकन: मौसम, जलवायु निगरानी, टोही (reconnaissance), आपदा मानचित्रण आदि।
उदाहरण: NOAA (National Oceanic and Atmospheric Administration) के उपग्रह - पर्यावरणीय एवं कृषि अध्ययन
- दूरसंचार: जैसे Iridium उपग्रह तारामंडल, जो ध्रुवीय कक्षाओं का प्रयोग वैश्विक संचार कवरेज हेतु करता है।
- पृथ्वी अवलोकन: मौसम, जलवायु निगरानी, टोही (reconnaissance), आपदा मानचित्रण आदि।
सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा (Sun-Synchronous Orbit – SSO)
परिभाषा: सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा, ध्रुवीय कक्षा का एक विशेष प्रकार है जिसमें उपग्रह का कक्षीय पथ सूर्य के साथ समन्वयित होता है। इसका अर्थ है कि उपग्रह पृथ्वी की एक ही भौगोलिक स्थिति के ऊपर हर दिन एक ही स्थानीय सौर समय (जैसे प्रतिदिन दोपहर 12 बजे) पर गुजरता है।
- ऊँचाई: लगभग 600–800 किमी।
- विशेषताएँ:
- निरंतर प्रकाश की स्थिति में इमेजिंग और डेटा संग्रहण के लिए उपयुक्त
- प्रेसेशन (Precession): उपग्रह की कक्षा धीरे-धीरे स्थानांतरित होती रहती है ताकि सूर्य के सापेक्ष एक स्थिर कोण बना रहे।
- अनुप्रयोग:
- एकसमान रिमोट सेंसिंग एवं समय-श्रृंखला विश्लेषण (Time-series analysis)
- दीर्घकालिक निगरानी हेतु आदर्श: मौसम परिवर्तन, वनाग्नि, वनों की कटाई, बाढ़, समुद्र तल में वृद्धि
- सौर प्रकाश की एकरूपता के कारण विभिन्न समयों की उपग्रह छवियों की सटीक तुलना संभव होती है
- उदाहरण:Cartosat श्रृंखला, Oceansat श्रृंखला, SARAL (ISRO) इत्यादि
ध्रुवीय कक्षा और सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा (एसएसओ) के बीच अंतर
| पहलू | ध्रुवीय कक्षा | सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा |
| परिभाषा | ऐसे उपग्रह पथ जो पृथ्वी के ध्रुवों के निकट से गुजरते हैं और समय के साथ सम्पूर्ण पृथ्वी को आवृत्त (Cover) करते हैं। | एक प्रकार की ध्रुवीय कक्षा जो सूर्य के साथ समकालिक होती है, जिससे प्रकाश की स्थिति समान बनी रहती है। |
| नति (Inclination) | लगभग 90° या उससे थोड़ी भिन्न (20°–30° तक)। | लगभग 96°–98°, ताकि सूर्य के साथ समकालिकता प्राप्त हो सके। |
| ऊँचाई | 200–1,000 किमी (निम्न पृथ्वी कक्षा – LEO)। | सामान्यतः 600–800 किमी। |
| समकालिकता | सूर्य के साथ समकालिक नहीं। | प्रतिदिन एक ही स्थानीय सौर समय पर पृथ्वी के समान बिंदु के ऊपर से गुजरने हेतु समकालिक। |
| प्रकाश की स्थिति | प्रत्येक कक्षा में बदलती रहती है। | प्रकाश की स्थिति समान रहती है, जैसे निरंतर प्रभात/गोधूलि जैसी स्थिति। |
| प्रमुख उपयोग | वैश्विक मानचित्रण, टोही, पर्यावरणीय निगरानी। | दीर्घकालिक पृथ्वी निगरानी, मौसम पूर्वानुमान, वनों की कटाई की निगरानी, आपदा प्रबंधन। |
| उदाहरण | सामान्य पृथ्वी अवलोकन उपग्रह। | रिमोट सेंसिंग उपग्रह जैसे: ISRO के Cartosat श्रृंखला, NASA का Landsat श्रृंखला। |
स्थानांतरण कक्षाएँ (Transfer Orbits)
- विशेष कक्षाएँ जिनका उपयोग उपग्रह या अंतरिक्ष यान को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में न्यूनतम ऊर्जा के साथ स्थानांतरित करने के लिए किया जाता है। इनमें अंतर्निर्मित प्रणोदक (onboard motors) की सहायता से विलंबता (eccentricity) को समायोजित कर इच्छित ऊँचाई (उच्च या निम्न कक्षा) प्राप्त की जाती है। उदाहरण: GTO (Geostationary Transfer Orbit)
भूस्थैतिक स्थानांतरण कक्षा (GTO – Geostationary Transfer Orbit)
एक सामान्य स्थानांतरण कक्षा जिसका उपयोग उपग्रहों को LEO या MEO से GEO में स्थानांतरित करने हेतु किया जाता है। उदाहरण: संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण Ariane 5 या Falcon 9 जैसे प्रक्षेपण यानों द्वारा GTO में किया जाता है।
- लाभ: GTO ईंधन की बचत करता है एवं छोटे प्रक्षेपण यानों द्वारा बड़े उपग्रहों को GEO में स्थापित करना संभव बनाता है।
- अनुप्रयोग: भूस्थैतिक कक्षा में कार्यरत उपग्रहों (जैसे संचार, प्रसारण आदि) के लिए सर्वाधिक सामान्य स्थानांतरण पथ। उदाहरण: GSAT-31 (ISRO) जैसे संचार उपग्रह GTO के माध्यम से GEO तक पहुँचाए जाते हैं।
होहमान स्थानांतरण कक्षा (Hohmann Transfer Orbit)
- यह एक अत्यधिक दक्ष दीर्घवृत्तीय कक्षा है, जिसका उपयोग दो वृत्तीय कक्षाओं के मध्य यान को स्थानांतरित करने हेतु किया जाता है। यह न्यूनतम ईंधन खपत के साथ कक्षा परिवर्तनों के लिए आदर्श है। सामान्यतः अंत:ग्रह (interplanetary) यात्रा या पृथ्वी की विभिन्न कक्षीय ऊँचाइयों तक पहुँचने हेतु प्रयुक्त।
लैग्रेंज बिंदु कक्षाएँ (Lagrange Point Orbits)
- ऊँचाई एवं स्थिति: ये कक्षाएँ किसी दो-पिंडीय प्रणाली (जैसे पृथ्वी-सूर्य या पृथ्वी-चंद्रमा) के लैग्रेंज बिंदुओं के चारों ओर स्थित होती हैं।
- लैग्रेंज बिंदु क्या हैं?
- अंतरिक्ष में विशेष बिंदु जहाँ दो विशाल पिंडों (जैसे पृथ्वी और सूर्य) का गुरुत्वाकर्षण बल एवं एक छोटे पिंड (जैसे उपग्रह या अंतरिक्ष यान) पर लगने वाला अपकेन्द्रीय बल (centrifugal force) संतुलन में होते हैं।
- यह स्थिति छोटे पिंड को स्थिर रूप से “स्थगित” या तय स्थिति में बनाए रखती है।
- बिंदुओं की संख्या: किसी भी दो-कायिक प्रणाली के लिए पाँच लैग्रेंज बिंदु होते हैं: L1, L2, L3, L4, और L5।
- L1, L2, और L3 दोनों बड़े पिंडों को जोड़ने वाली रेखा पर स्थित होते हैं।
- L4 और L5 उन दोनों पिंडों के साथ एक समबाहु त्रिभुज बनाते हैं।
- स्थायित्व (Stability):
- L1, L2, और L3: अस्थिर संतुलन बिंदु — थोड़ी सी भी गड़बड़ी से वस्तु दूर जा सकती है।
- L4 और L5: स्थिर संतुलन बिंदु — यहाँ उपग्रह दीर्घकाल तक बिना विचलन के स्थित रह सकते हैं।
- अनुप्रयोग:
- L4 और L5 जैसे स्थिर बिंदु दीर्घकालिक उपग्रह स्थापन के लिए उपयुक्त माने जाते हैं।
- L1 बिंदु पर मौसम अवलोकन और सूर्य संबंधी मिशनों के उपग्रह स्थापित किए जाते हैं (जैसे Aditya-L1)।
अनुप्रयोग
| बिंदु (LP) | स्थिति | स्थायित्व | उपयोग के उदाहरण |
| L1 | दो विशाल पिंडों के बीच | अस्थिर | सौर अवलोकन — Aditya-L1, SOHO (Solar and Heliospheric Observatory) |
| L2 | छोटे पिंड से विपरीत दिशा में, बड़े पिंड की ओर | अस्थिर | गहन अंतरिक्ष वेधशालाएँ — JWST (James Webb Space Telescope) |
| L3 | बड़े पिंड के ठीक विपरीत दिशा में | अस्थिर | सामान्यतः अंतरिक्ष यान के लिए उपयोग नहीं किया जाता |
| L4 | कक्षा में छोटे पिंड से 60° आगे | स्थिर | बृहस्पति की कक्षा में Trojan Asteroids |
| L5 | कक्षा में छोटे पिंड से 60° पीछे | स्थिर | बृहस्पति की कक्षा में Trojan Asteroids |
हेलो कक्षा (Halo Orbit):
- परिभाषा: हेलो कक्षा एक विशेष प्रकार की कक्षा है जो मुख्यतः लैग्रेंज बिंदुओं (विशेषकर अस्थिर बिंदु जैसे L1, L2 और L3) के चारों ओर स्थित होती है। उपग्रह या अंतरिक्ष यान सीधे लैग्रेंज बिंदु पर स्थिर न रहकर, उसके चारों ओर एक त्रिविमीय (3D), वलयाकार पथ पर गतिशील रहता है।
- मुख्य विशेषताएँ:
- त्रिविमीय आकार: अधिकांश कक्षाएँ एक समतल में होती हैं (जैसे पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर कक्षा), परन्तु हेलो कक्षाएँ त्रिविमीय होती हैं और लैग्रेंज बिंदु के चारों ओर “हेलो” जैसी वक्राकार आकृति बनाती हैं।
- गुरुत्वीय संतुलन: अंतरिक्ष यान उन क्षेत्रों में स्थित रहता है जहाँ दो बड़े खगोलीय पिंडों (जैसे पृथ्वी और सूर्य) का गुरुत्वाकर्षण बल एवं उसकी गति से उत्पन्न अपकेन्द्रीय बल संतुलन में होते हैं।
- ऊर्जा दक्षता: हेलो कक्षाएँ ऊर्जा-कुशल होती हैं क्योंकि ये लैग्रेंज बिंदुओं के गुरुत्वीय संतुलन का लाभ उठाकर प्रणोदन की आवश्यकता को न्यूनतम करती हैं।
- अनुप्रयोग:
- अंतरिक्ष अवलोकन: जैसे James Webb Space Telescope, जो पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के L2 बिंदु के चारों ओर हेलो कक्षा में स्थापित है। इस स्थिति से दूरबीन पृथ्वी के प्रकाश और तापीय हस्तक्षेप से दूर रहकर गहन अंतरिक्ष का अवलोकन कर सकती है
- टिप्पणी: L1 और L2 जैसे लैग्रेंज बिंदु अस्थिर होते हैं, इसलिए यदि किसी अंतरिक्ष यान को ठीक वहाँ रखा जाए, तो वह समय के साथ दूर खिसक सकता है। हेलो ऑर्बिट स्थिरता प्रदान करती है और अंतरिक्ष यान को लैग्रेंज बिंदु के पास बनाए रखती है।
सूर्य केंद्रित कक्षा (Heliocentric Orbits):
- ऐसी कक्षाएँ जिनमें उपग्रह पृथ्वी की बजाय सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
- उदाहरण: Parker Solar Probe, Kepler Space Telescope
कक्षा क्षय (Orbital Decay): निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) में स्थित उपग्रह वायुमंडलीय घर्षण (atmospheric drag) का सामना करते हैं, जिससे उनकी ऊँचाई धीरे-धीरे कम होती जाती है। अंततः, वे पुनः वायुमंडल में प्रवेश कर जलकर नष्ट हो जाते हैं।
कर्मन रेखा (Kármán Line): अंतरिक्ष की प्रचलित रूप से स्वीकृत सीमा, जो समुद्र तल से 100 किमी की ऊँचाई पर स्थित मानी जाती है। यह पृथ्वी और बाह्य अंतरिक्ष के बीच की तकनीकी विभाजक रेखा के रूप में मानी जाती है।
उपग्रह (Satellite
उपग्रह वह पिंड होता है जो गुरुत्वाकर्षण बलों के कारण किसी बड़े पिंड की परिक्रमा करता है। उपग्रह प्राकृतिक या कृत्रिम हो सकते हैं, यह उनकी उत्पत्ति पर निर्भर करता है।
उपग्रहों के प्रकार
| प्राकृतिक उपग्रह | कृत्रिम उपग्रह |
| ये खगोलीय पिंड होते हैं जो स्वाभाविक रूप से ग्रहों या अन्य बड़े खगोलीय पिंडों की परिक्रमा करते हैं। उदाहरण: चंद्रमा (पृथ्वी का प्राकृतिक उपग्रह)। | ये मानव निर्मित वस्तुएँ होती हैं जिन्हें विशेष उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कक्षा में स्थापित किया जाता है। उदाहरण: INSAT-3DR, NavIC उपग्रह, हबल स्पेस टेलीस्कोप। |
उपग्रह कैसे प्रक्षेपित किए जाते हैं?
- रॉकेट में स्थापना: उपग्रह को सुरक्षा के लिए रॉकेट की नोज़ कोन (सामने के हिस्से) में स्थापित किया जाता है।
- गति (थ्रस्ट) उत्पन्न करना (Generating Thrust): रॉकेट के इंजन प्रणोदकों (फ्यूल) को जलाकर पर्याप्त थ्रस्ट उत्पन्न करते हैं, जिससे गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को पार किया जा सके।
- चरणबद्ध प्रक्षेपण (Staging): रॉकेट चरणों में प्रक्षेपित किया जाता है – खाली ईंधन टैंक को छोड़ा जाता है ताकि भार कम हो सके।
- कक्षा तक पहुँचना: उपग्रह लगभग 28,000 किमी/घंटा की कक्षीय गति प्राप्त करता है जिससे वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के साथ संतुलन में रहकर कक्षा में बना रहता है।
- तैनाती (Deployment): उपग्रह रॉकेट से अलग होकर अपना मिशन प्रारंभ करता है।
यह प्रक्रिया उपग्रहों को संचार, पृथ्वी अवलोकन तथा वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे कार्यों में सक्षम बनाती है, जिससे आधुनिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है।
उपग्रह किससे बना होता है?
उपग्रह विभिन्न उप-प्रणालियों से मिलकर बना होता है, जिनमें से प्रत्येक को मिशन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशिष्ट कार्यों के लिए डिज़ाइन किया गया है। इन उप-प्रणालियों का सरल विवरण निम्नलिखित है:
- पेलोड उप-प्रणाली: उपग्रह के मिशन को पूरा करने हेतु आवश्यक उपकरण वहन करती है।
- प्रणोदन उप-प्रणाली (Propulsion): उपग्रह की गति बदलने के लिए प्रयोग होती है, जिससे इसकी कक्षा (ऑर्बिट) समायोजित की जा सके या आवश्यकतानुसार दिशा बदली जा सके।
- संरचनात्मक एवं यांत्रिक उप-प्रणाली: उपग्रह को मजबूती और आकार प्रदान करती है, जिससे वह अंतरिक्ष में कंपन और बाहरी बलों को सहन कर सके।
- तापीय उप-प्रणाली (Thermal): अंतरिक्ष की चरम तापमान स्थितियों में उपग्रह का तापमान संतुलित बनाए रखती है।
- दिशा व कक्षा नियंत्रण उप-प्रणाली (AOCS): उपग्रह की दिशा बनाए रखती है और यदि आवश्यक हो तो कक्षा में सुधार करती है।
- विद्युत शक्ति उप-प्रणाली: उपग्रह में सभी प्रणालियों को ऊर्जा प्रदान करने हेतु विद्युत का उत्पादन, भंडारण एवं वितरण करती है।
- टेलीमेट्री, ट्रैकिंग और कमांड (TTC) उप-प्रणाली: उपग्रह और पृथ्वी स्थित ग्राउंड स्टेशन के मध्य संचार संपर्क बनाए रखती है।
विभिन्न मापदंडों के आधार पर उपग्रहों के प्रकार
| श्रेणी | प्रकार | सीमा/विशेषताएँ | ISRO उदाहरण |
| A) भार के आधार पर | बड़े उपग्रह | 1000 किलोग्राम से अधिक | GSAT श्रृंखला (संचार उपग्रह) |
| मध्यम आकार के उपग्रह | 500–1000 किलोग्राम | INSAT-3DR (मौसम उपग्रह) | |
| मिनी उपग्रह | 100–500 किलोग्राम | IMS-1 (Youthsat), IMS-2 (SARAL) | |
| माइक्रो उपग्रह | 10–100 किलोग्राम | ISRO द्वारा निर्मित Microsat | |
| नैनो उपग्रह | 1–10 किलोग्राम | भारत का पहला नैनो उपग्रह Jugnu (IIT कानपुर), INS-1A, INS-1B | |
| पिको उपग्रह | 1 किलोग्राम से कम | STUDSAT – देश का पहला पिको उपग्रह (विद्यार्थियों द्वारा निर्मित) | |
| B) ऊँचाई के आधार पर | निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) | 200–2000 किमी | Cartosat-2 (पृथ्वी अवलोकन उपग्रह) |
| मध्यम पृथ्वी कक्षा (MEO) | 2000–35786 किमी | NavIC उपग्रह (भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन प्रणाली) | |
| भूस्थैतिक कक्षा (GEO) | 35786 किमी | INSAT-3DR (मौसम उपग्रह) | |
| C) उपयोग के आधार पर | संचार उपग्रह | GSAT श्रृंखला | |
| नेविगेशन उपग्रह | NavIC उपग्रह | ||
| रिमोट सेंसिंग / पृथ्वी अवलोकन | Cartosat-2, RISAT-1 | ||
| अंतरिक्ष अन्वेषण / वेधशाला उपग्रह | ASTROSAT (भारत की अंतरिक्ष वेधशाला) | ||
संचार उपग्रह

संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाता है ताकि लंबी दूरी की संचार प्रणाली को सक्षम बनाया जा सके और पृथ्वी पर नेटवर्क क्षमताओं का विस्तार किया जा सके। इनका उपयोग मौसम पूर्वानुमान, नेविगेशन, टेलीफोन सिग्नल प्रसारण तथा टेलीविज़न ब्रॉडकास्टिंग जैसे विविध अनुप्रयोगों में होता है।
संचार उपग्रहों की कार्यप्रणाली (Working of Communication Satellites)
- सिग्नल प्रेषण (अपलिंक): पृथ्वी पर स्थित स्टेशन से उपग्रह की ओर सिग्नल भेजा जाता है।
- सिग्नल प्रवर्धन (ट्रांसपोंडर): उपग्रह सिग्नल को ग्रहण करता है और उसे प्रवर्धित (amplify) करता है ताकि वह प्रभावी रूप से प्रसारित हो सके।
- सिग्नल पुनः प्रेषण (डाउनलिंक): उपग्रह प्रवर्धित सिग्नल को पृथ्वी पर वापस भेजता है।
- सिग्नल प्राप्ति (Signal Reception): पृथ्वी पर स्थित ग्राउंड स्टेशन या एंटीना सिग्नल को प्राप्त कर उसे प्रोसेस करते हैं।
संचार का माध्यम: संचार मुख्यतः रेडियो तरंगों या माइक्रोवेव संकेतों के माध्यम से होता है।
संचार उपग्रहों की कक्षाएँ (Orbits of Communication Satellites) – उपग्रह की कक्षा का चयन उसकी कवरेज क्षमता, विलंबता (latency), तथा अनुप्रयोग को निर्धारित करता है।
- भूस्थैतिक कक्षा (GEO) – टेलीविज़न प्रसारण, मौसम निगरानी, दीर्घ दूरी संचार हेतु आदर्श; एक उपग्रह व्यापक क्षेत्र को कवर करता है। INSAT श्रृंखला (भारत), Intelsat
- मध्यम पृथ्वी कक्षा (MEO) – मुख्यतः नेविगेशन प्रणालियों व कुछ संचार नेटवर्क हेतु प्रयुक्त, O3b नेटवर्क (Other 3 Billion)
- निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) – सतत कवरेज हेतु उपग्रहों के तारामंडल (constellation) की आवश्यकता होती है; कम विलंबता प्रदान करता है, Starlink (SpaceX), Iridium
संचार उपग्रहों के उदाहरण
- भारतीय उपग्रह: INSAT श्रृंखला, GSAT श्रृंखला (जैसे: GSAT-11 — उच्च गति इंटरनेट हेतु)
- वैश्विक उपग्रह: Intelsat (International Telecommunications Satellite Organization), Starlink (SpaceX का LEO आधारित सैटेलाइट इंटरनेट तारामंडल)
संचार उपग्रहों के उपयोग (Uses of Communication Satellites)
- दूरसंचार: वॉइस कॉल, डेटा ट्रांसफर, टीवी और रेडियो सेवाओं की सुविधा (जैसे: INSAT, VSAT)
- टेलीमेडिसिन: दूरदराज क्षेत्रों को चिकित्सीय सहायता हेतु अस्पतालों से जोड़ना
- टेली-शिक्षा: EDUSAT जैसे उपग्रहों द्वारा दूरस्थ शिक्षा प्रदान करना
- बैंकिंग सेवाएँ: एटीएम और बैंक शाखाओं के लिए सुरक्षित कनेक्टिविटी (VPN के माध्यम से)
- 5G नेटवर्क: दूरस्थ क्षेत्रों में निर्बाध कनेक्टिविटी और IoT अनुप्रयोगों को समर्थन
- सैटेलाइट इंटरनेट: LEO उपग्रहों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च गति व कम विलंबता वाला इंटरनेट
- IoT विकास: छोटे उपग्रहों के माध्यम से स्वायत्त तकनीक और कनेक्टिविटी
- रियल-टाइम ट्रैकिंग: जलवायु निगरानी, आपदा प्रबंधन और सैन्य गतिविधियों पर निगरानी
- टीवी और DTH प्रसारण: फिल्में, खेल और समाचारों का प्रसारण (Direct Broadcasting Services)
- समाचार प्रसारण: OB वैन के माध्यम से लाइव कवरेज संभव
- रेडियो प्रसारण: बड़े क्षेत्रों में स्पष्ट ऑडियो सिग्नल उपलब्ध कराना
- खोज और बचाव अभियान: आपदाओं व दूरस्थ क्षेत्रों में जीवन रक्षा सहायता प्रदान करना (Cospas-Sarsat कार्यक्रम का भाग)
भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली (INSAT)
- भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली (INSAT) एक बहुउद्देश्यीय भूस्थैतिक उपग्रह प्रणाली है, जिसे देश की दूरसंचार, टेलीविज़न प्रसारण, मौसम विज्ञान तथा खोज और बचाव संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा विकसित एवं प्रक्षेपित किया गया है।
- ट्रांसपोंडर: INSAT उपग्रह C-बैंड, Extended C-बैंड, तथा Ku-बैंड में कार्य करते हैं।
INSAT श्रृंखला के प्रमुख विकास
- INSAT-1 श्रृंखला (1982–1990 का दशक):
- INSAT-1A: पहला उपग्रह (1982) — मिशन असफल रहा।
- INSAT-1B: 1983 में प्रक्षेपित — सफलतापूर्वक परिचालित।
- INSAT-2 श्रृंखला (1990 का दशक): दूरसंचार एवं प्रसारण सेवाओं का विस्तार।
- INSAT-3 श्रृंखला (2000 का दशक): मौसम संबंधी इमेजिंग क्षमताएँ जोड़ी गईं।
- INSAT-4 श्रृंखला (2000 का दशक – वर्तमान): Direct-to-Home (DTH) टेलीविज़न प्रसारण एवं संचार हेतु समर्पित।
GSAT और CMS श्रृंखला की ओर संक्रमण
- GSAT श्रृंखला: INSAT नामकरण को GSAT में परिवर्तित किया गया ताकि उन्नत तकनीक एवं सेवाओं की पूर्ति की जा सके।
- CMS श्रृंखला: वर्ष 2020 से प्रारंभ की गई नवीनतम श्रृंखला, जो और अधिक तकनीकी उन्नयन हेतु समर्पित है।
GSAT और CMS उपग्रह: प्रमुख विवरण
| उपग्रह | प्रक्षेपण तिथि | मुख्य उपयोग | विशेषताएँ |
| GSAT-1 | 2001 | संचार उपग्रह | पहला प्रायोगिक उपग्रह; लक्षित कक्षा प्राप्त करने में विफल रहा। |
| GSAT-2 | 2003 | संचार उपग्रह | GSLV की दूसरी विकासात्मक उड़ान का हिस्सा। |
| GSAT-3 | 2004 | शिक्षा (EduSat) | विशेष रूप से उपग्रह आधारित शिक्षा के लिए समर्पित। |
| GSAT-4 | 2010 | संचार और नेविगेशन (HealthSat) | GSLV MK II की पहली उड़ान का हिस्सा; लक्षित कक्षा प्राप्त नहीं कर सका। |
| GSAT-7 (Rukmini) | 2013 | सैन्य संचार (भारतीय नौसेना) | भारतीय नौसेना के लिए पहला समर्पित सैन्य संचार उपग्रह। |
| GSAT-7A (Angry Bird) | 2018 | वायुसेना के लिए एयर-टू-एयर एवं एयर-टू-ग्राउंड संचार | भारतीय वायुसेना के लिए नेटवर्क-केंद्रित युद्धक्षमता को बढ़ाता है। |
| GSAT-8 | 2011 | संचार एवं नेविगेशन (GAGAN) | DTH और नेविगेशन सेवाओं हेतु उच्च-शक्ति ट्रांसपोंडर प्रदान करता है। |
| GSAT-9 | 2017 | क्षेत्रीय सहयोग (दक्षिण एशिया उपग्रह) | दक्षिण एशिया में दूरसंचार व प्रसारण सेवाएँ प्रदान कर क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है। |
| GSAT-11 | 2018 | ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी | भारत का सबसे भारी उपग्रह; ग्रामीण एवं दूरदराज क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाओं को सशक्त करता है। |
| GSAT-30 | 2020 | टेलीकम्युनिकेशन, ब्रॉडकास्टिंग | INSAT-4A का प्रतिस्थापन; DTH, टेलीकम्युनिकेशन और प्रसारण सेवाओं हेतु। |
| CMS-01 | 2020 | संचार (Extended C-बैंड) | भारतीय मुख्यभूमि, अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप हेतु सेवाएँ; भारत का 42वाँ संचार उपग्रह। |
| GSAT-24 | 2022 | संचार, DTH सेवाएँ | 24-Ku बैंड उपग्रह; अखिल भारतीय DTH सेवा (टाटा प्ले); NSIL का पहला मांग-आधारित मिशन; 15 वर्ष का मिशन जीवन। |
पृथ्वी अवलोकन उपग्रह और उपग्रह दूर संवेदन प्रौद्योगिकी
उपग्रह रिमोट सेंसिंग एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो पृथ्वी की सतह और वायुमंडल की निगरानी और अवलोकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अनुप्रयोगों की विस्तृत श्रृंखला में मौसम विज्ञान, आपदा निगरानी, भू-आवरण वर्गीकरण, तथा पर्यावरणीय निगरानी शामिल हैं।
उपग्रह दूर संवेदन (रिमोट सेंसिंग) के सिद्धांत (Principles of Satellite Remote Sensing)
- विकिरण उत्सर्जन और परावर्तन: सभी सतहें अपने तापमान के अनुसार विकिरण उत्सर्जित करती हैं या उन पर पड़ने वाले विकिरण को उनके परावर्तनीय गुणों के आधार पर परावर्तित करती हैं।
- रिमोट सेंसिंग: सरल शब्दों में, रिमोट सेंसिंग वह प्रक्रिया है जिसमें उपग्रह पर लगे सेंसर विभिन्न तरंगदैर्घ्य (wavelengths) पर उत्सर्जित या परावर्तित विकिरण को एकत्रित व रिकॉर्ड करते हैं। यह डेटा विभिन्न महत्वपूर्ण मापदंडों को निर्धारित करने में मदद करता है।
रिमोट सेंसिंग के घटक

- ऊर्जा स्रोत या प्रकाशन: रिमोट सेंसिंग की पहली आवश्यकता एक ऊर्जा स्रोत (जैसे सूर्य) है, जो लक्ष्य (target) को विद्युतचुंबकीय ऊर्जा प्रदान करता है।
सेंसर को उनके ऊर्जा स्रोत के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जाता है:- निष्क्रिय संवेदक (Passive Sensors): प्राकृतिक ऊर्जा (जैसे सूर्य के प्रकाश) को ग्रहण करते हैं।
- सक्रिय संवेदक (Active Sensors): स्वयं ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं और उस परावर्तित ऊर्जा को मापते हैं। जैसे- RADAR या LIDAR
- लक्ष्य के साथ ऊर्जा की पारस्परिक क्रिया: ऊर्जा टार्गेट के साथ विभिन्न रूपों में पारस्परिक क्रिया करती है:
- संप्रेषण (Transmission): ऊर्जा वस्तु से होकर गुजरती है।
- अवशोषण (Absorption): ऊर्जा वस्तु द्वारा अवशोषित होकर ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है।
- उत्सर्जन (Emission): वस्तु अपनी तापीय स्थिति के अनुसार ऊर्जा उत्सर्जित करती है।
- प्रकीर्णन (Scattering): ऊर्जा विभिन्न दिशाओं में फैल जाती है।
- परावर्तन (Reflection): सतह द्वारा विकिरण का परावर्तन किया जाता है – अधिकांश रिमोट सेंसिंग अनुप्रयोगों में यही प्रमुख प्रक्रिया होती है।
- सेंसर द्वारा ऊर्जा की रिकॉर्डिंग (Recording): लक्ष्य से परावर्तित, प्रकीर्णित या उत्सर्जित ऊर्जा को सेंसर एकत्रित और रिकॉर्ड करता है। विद्युतचुंबकीय स्पेक्ट्रम (EM Spectrum) के आधार पर रिमोट सेंसिंग को तीन प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है:
- ऑप्टिकल रिमोट सेंसिंग: दृश्य (Visible) और अवरक्त (Infrared) क्षेत्र का विकिरण मापता है।
⇒ वनस्पति, जल निकायों तथा पृथ्वी इमेजिंग हेतु। - थर्मल इन्फ्रारेड रिमोट सेंसिंग: मध्यम एवं दीर्घतरंग अवरक्त विकिरण मापता है।
⇒ सतही तापमान मापन हेतु। - माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग: एक्टिव सेंसर (जैसे RADAR) का प्रयोग करता है; दिन-रात और सभी मौसमों में कार्य करने में सक्षम।
- ऑप्टिकल रिमोट सेंसिंग: दृश्य (Visible) और अवरक्त (Infrared) क्षेत्र का विकिरण मापता है।
- संचरण, ग्रहण और प्रसंस्करण (Transmission, Reception, and Processing): रिकॉर्ड की गई ऊर्जा को पृथ्वी स्थित स्टेशनों पर भेजा जाता है, जहां इसे डिजिटल डेटा में परिवर्तित करके संगृहीत और विश्लेषण किया जाता है।
- व्याख्या और विश्लेषण : संसाधित डेटा का विश्लेषण किया जाता है ताकि लक्ष्य की सटीक जानकारी प्राप्त की जा सके। यह प्रक्रिया दृश्य (visual) या डिजिटल इमेज प्रोसेसिंग तकनीकों के माध्यम से की जाती है।
भारतीय रिमोट सेंसिंग उपग्रह (IRS Satellites)
- प्रारंभ: भारतीय रिमोट सेंसिंग कार्यक्रम की शुरुआत Bhaskara-1 उपग्रह (1979) और IRS-1A (1988) से हुई।
- कक्षा (Orbit): IRS उपग्रह मुख्यतः निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) और ध्रुवीय सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा में प्रक्षिप्त किए जाते हैं।
- विकास: प्रारंभ में IRS उपग्रहों का नामकरण IRS-1A, IRS-1B आदि के रूप में किया गया। बाद के संस्करणों को उनकी कार्यप्रणाली के आधार पर वर्गीकृत किया गया: Oceansat, Cartosat, HySIS, EMISAT, ResourceSat आदि। वर्ष 2020 से, सभी पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों को EOS (Earth Observation Satellite) नाम से एकीकृत किया गया।
भारतीय रिमोट सेंसिंग (IRS) उपग्रहों के कार्यात्मक वर्ग (Functional Classes of IRS Satellites):
- IRS-1 श्रृंखला का उपयोग मुख्य रूप से प्राकृतिक संसाधनों के मानचित्रण, कृषि निगरानी और पर्यावरणीय अध्ययन के लिए किया गया।
- Oceansat श्रृंखला विशेष रूप से समुद्र विज्ञान (oceanographic) से संबंधित अध्ययनों पर केंद्रित है।
- कार्टोसैट श्रृंखला: शहरी नियोजन, बुनियादी ढांचे के विकास और भूमि मानचित्रण के लिए उच्च-रिज़ॉल्यूशन पृथ्वी इमेजिंग में विशेषज्ञता। उदाहरण: कार्टोसैट-2, कार्टोसैट-3
- HySIS: उपग्रह हाइपरस्पेक्ट्रल सेंसिंग के लिए विकसित किया गया है, जिसका उपयोग वनस्पति, शहरी क्षेत्रों और भूमि उपयोग के अध्ययन में किया जाता है।
- RISAT श्रृंखला: रडार आधारित उपग्रह श्रृंखला जो सभी मौसमों में, दिन-रात निगरानी करने में सक्षम है। उदाहरण: RISAT-1, RISAT-2
- ResourceSat: इस श्रृंखला का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों की निगरानी करना है और यह भूमि उपयोग तथा जल संसाधनों के मानचित्रण हेतु उच्च रिज़ॉल्यूशन छवियाँ प्रदान करता है। उदाहरण: ResourceSat-1, ResourceSat-2
- INSAT श्रृंखला: ये भूस्थैतिक उपग्रह मौसम विज्ञान और आपदा निगरानी के लिए उपयोग किए जाते हैं। उदाहरण: INSAT-3DR
- SARAL: यह जलवायु, पर्यावरण और पृथ्वी अवलोकन से संबंधित उपग्रह है। कभी-कभी इसे HySIS से भी जोड़ा जाता है।
- NISAR: यह उपग्रह प्रत्येक 12 दिन में पूरी पृथ्वी का मानचित्रण करेगा और पारिस्थितिकी तंत्र, हिमखंड, वनस्पति, समुद्र स्तर, भूजल और प्राकृतिक आपदाओं में होने वाले परिवर्तनों के विश्लेषण के लिए एकसमान डेटा प्रदान करेगा।
- EOS श्रृंखला: यह श्रृंखला सभी मौसमों में संसाधन प्रबंधन हेतु उच्च गुणवत्ता वाली छवियाँ प्रदान करने के लिए डिज़ाइन की गई है।
| उपग्रह | प्रक्षेपण वर्ष | विवरण (विशेषताएँ) |
| भास्कर-I | 1979 | भारत का पहला प्रायोगिक रिमोट सेंसिंग उपग्रह; भू-तुल्यकालिक कक्षा संचालन हेतु डिज़ाइन किया गया। |
| रोहिणी उपग्रह RS-D1 | 1981 | प्रायोगिक रिमोट सेंसिंग उपग्रह; निम्न पृथ्वी कक्षा में प्रक्षेपित; आंशिक रूप से सफल। |
| HySIS | 2018 | हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह; दृश्य, निकट-अवरक्त एवं लघु तरंग अवरक्त क्षेत्रों में पृथ्वी की सतह का अध्ययन। |
| EOS-01 | 2020 | कृषि, वानिकी और आपदा प्रबंधन हेतु पृथ्वी अवलोकन उपग्रह; उच्च-रिज़ॉल्यूशन इमेजरी प्रदान करता है। |
| EOS-04 | 2022 | उन्नत रडार इमेजिंग उपग्रह; कृषि, वानिकी, मृदा आर्द्रता व बाढ़ मानचित्रण हेतु; सभी मौसमों में कार्यक्षम। |
| ओशियनसेट-3 (EOS-06) | 2022 | Oceansat श्रृंखला का तीसरा उपग्रह; क्लोरोफिल सांद्रता, समुद्र सतह तापमान और पवन वेक्टर जैसे मापदंडों के लिए उन्नत समुद्री निगरानी। |
| EOS-3 (GISAT-1) | 2021 | पहला नागरिक GISAT उपग्रह; निकट वास्तविक समय पृथ्वी अवलोकन हेतु; क्रायोजेनिक स्टेज विफलता के कारण मिशन असफल। |
| EOS-07 (Microsat-2B) | 2023 | मिनी उपग्रह; SSLV-D2 मिशन में प्रक्षेपित; पृथ्वी अवलोकन पेलोड्स हेतु नई तकनीकों की त्वरित तैनाती का प्रदर्शन। |
भारत में रिमोट सेंसिंग के अनुप्रयोग (इसरो एवं अन्य एजेंसियों द्वारा)
- भूमि प्रबंधन एवं योजना निर्माण – राष्ट्रीय भूमि उपयोग/भूमि आवरण मानचित्रण (1:250,000 पैमाने पर), अंतरिक्ष इनपुट का उपयोग करके नदी बेसिन स्तर पर जल संसाधनों का पुनः आकलन।
- कृषि नियोजन एवं प्रबंधन – फसल क्षेत्रफल एवं उत्पादन का आकलन (Crop Acreage and Production Estimation), CHAMAN परियोजना (बागवानी क्षेत्र में रिमोट सेंसिंग का उपयोग)
- वन एवं पर्यावरण संरक्षण – भारतीय वन आवरण परिवर्तन चेतावनी प्रणाली (InFCCAS) का विकास, सुंदरबन मैंग्रोव प्रणाली का अध्ययन, उत्तर-पश्चिमी हिमालय में पारिस्थितिकी तंत्र प्रक्रियाओं की निगरानी एवं मूल्यांकन
- जल संसाधन प्रबंधन – हिमनदीय झीलों एवं जल निकायों की गणना व निगरानी, भू-स्थानिक आंकड़ों के आधार पर सिंचाई क्षमता उपयोग (IPU) का मूल्यांकन, भूजल में फ्लोराइड संदूषण की स्थानिक मॉडलिंग
- अवसंरचना योजना एवं प्रबंधन – गैस पाइपलाइनों की निगरानी, द्वीप सूचना प्रणाली (Island Information System – IIS) का विकास
- जलवायु परिवर्तन एवं आपदा प्रबंधन – सुंदरबन मैंग्रोव प्रणाली पर जलवायु प्रभावों का अध्ययन, उत्तर-पश्चिमी हिमालय में पारिस्थितिक तंत्र की निगरानी एवं मूल्यांकन
शासन और नीति निर्माण में रिमोट सेंसिंग की भूमिका
- सरकारी कार्यक्रमों में GIS और रिमोट सेंसिंग का उपयोग
- मनरेगा (MGNREGA): परिसंपत्तियों का भू-टैगिंग
- डिजिटल इंडिया: भू-स्थानिक पोर्टल पहल जैसे ‘भुवन’
- भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI): उपग्रह डेटा द्वारा वन आच्छादन मूल्यांकन
- राष्ट्रीय अभियानों में भूमिका
- जल शक्ति अभियान: जल संरक्षण एवं प्रबंधन
- AMRUT एवं स्मार्ट सिटी मिशन: शहरी नियोजन और बुनियादी ढांचे का विकास
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना: मृदा मानचित्रण हेतु उपग्रह आधारित आंकड़ों का उपयोग
- सफल उदाहरण – आंध्र प्रदेश में भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण।
- भुवन पोर्टल का शासन में उपयोग — पारदर्शिता और प्रभावशील निर्णय-निर्माण में सहायता
रिमोट सेंसिंग से जुड़ी चुनौतियाँ एवं सीमाएँ
- तकनीकी चुनौतियाँ – रिज़ॉल्यूशन की सीमाएँ, डेटा गुणवत्ता और सटीकता में समस्याएँ
- नीतिगत प्रतिबंध – डेटा सुलभता की सीमाए, उच्च लागत, प्रशिक्षित मानव संसाधन की कमी
- पर्यावरणीय चिंताएँ – अंतरिक्ष मलबा (Space Debris), उपग्रहों की स्थायित्व समस्या
- नैतिक प्रश्न – निजता का उल्लंघन, निगरानी और भू-स्थानिक डेटा का दुरुपयोग
भारत में रिमोट सेंसिंग का भविष्य: संभावनाएँ एवं अवसर
- उभरती प्रौद्योगिकियाँ – हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग, LIDAR, UAVs आधारित डेटा संग्रहण
- स्टार्टअप्स की भूमिका – SkyMap Global, SatSure जैसे स्टार्टअप नवाचार व नीति उन्मुख समाधान विकसित कर रहे हैं
- निजी क्षेत्र की सहभागिता – IN-SPACe के माध्यम से निजी कंपनियों को रिमोट सेंसिंग मिशनों में सम्मिलित करना
- भविष्य की दृष्टि – भारत को वैश्विक भू-स्थानिक सेवाओं के क्षेत्र में अग्रणी बनाना। वास्तविक समय, सटीक और सुलभ भू-स्थानिक डेटा के माध्यम से निर्णय निर्माण की क्षमता को सशक्त करना
NISAR मिशन – NASA-ISRO Synthetic Aperture Radar
- यह एक निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) वेधशाला है, जिसे NASA और ISRO द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया गया है।
- NISAR प्रत्येक 12 दिनों में सम्पूर्ण पृथ्वी की मैपिंग करेगा।
- इसमें L और S डुअल बैंड सिंथेटिक अपर्चर रडार (SAR) लगे हैं।
- इसके लाभों में आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन संबंधी डेटा, पृथ्वी विज्ञान, फसल वृद्धि, मृदा आर्द्रता, भूमि उपयोग परिवर्तन, तेल रिसाव की निगरानी, शहरीकरण और वनों की कटाई की निगरानी शामिल है।
राष्ट्रीय भू-स्थानिक नीति 2022 (National Geospatial Policy 2022)
- यह नीति विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) द्वारा जारी की गई है।
- उद्देश्य – भू-स्थानिक डेटा की पहुँच और उपयोग को विस्तारित करना है, जिससे नागरिक सेवाओं को तेज़ी से बेहतर बनाया जा सके और यह देश के सबसे दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँच सके।
नेविगेशन उपग्रह
- इसरो नागरिक विमानन एवं सामान्य उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं के लिए स्वतंत्र उपग्रह-आधारित नेविगेशन सेवाएँ प्रदान करता है।
- भारत के दो प्रमुख नेविगेशन सिस्टम हैं:
- GAGAN (GPS Aided GEO Augmented Navigation – जीपीएस-सहायता प्राप्त जीईओ संवर्धित नेविगेशन) – नागरिक विमानन हेतु।
- IRNSS/NavIC (Indian Regional Navigation Satellite System – भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम) – राष्ट्रीय स्तर की स्थिति-निर्धारण सेवाओं हेतु।
GPS जीपीएस-सहायता प्राप्त जीईओ संवर्धित नेविगेशन (GAGAN – GPS Aided GEO Augmented Navigation)
- प्रकार: उपग्रह-आधारित संवर्धन प्रणाली (Satellite-Based Augmentation System – SBAS)
- संयुक्त विकासकर्ता: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) एवं भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (AAI)
- उद्देश्य:
- नागरिक विमानन के लिए उच्च-सटीकता युक्त उपग्रह-आधारित नेविगेशन प्रदान करना
- भारतीय वायु क्षेत्र में बेहतर वायु यातायात प्रबंधन
- वैश्विक SBAS प्रणालियों के साथ अंतर-संचालनीयता (Interoperability) सुनिश्चित करना
- सिग्नल इन स्पेस (Signal-in-Space – SIS): GSAT-8 और GSAT-10 उपग्रहों के माध्यम से GAGAN सेवा प्रदान की जाती है।
NavIC / भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन उपग्रह प्रणाली (IRNSS)

- स्वतंत्र भारतीय स्थिति निर्धारण प्रणाली, जिसे ISRO द्वारा विकसित किया गया है।
- उद्देश्य:
- भारत और इसके सीमावर्ती क्षेत्रों (1500 किमी तक) में विश्वसनीय स्थिति निर्धारण, नेविगेशन और समय निर्धारण (PNT) सेवाएँ उपलब्ध कराना
- नागरिक और सामरिक दोनों उपयोगों के लिए उच्च सटीकता वाली सेवाएँ प्रदान करना
- कवरेज क्षेत्र: भारत एवं इसके चारों ओर 1500 किलोमीटर तक का भौगोलिक क्षेत्र।
- नक्षत्र संरचना (Constellation Composition): कुल 9 उपग्रह निर्मित (8 परिचालन में)
- 7 उपग्रहों की परिचालन संरचना:
- 3 उपग्रह भूस्थैतिक कक्षा (Geostationary Orbit) में
- 4 उपग्रह झुकी हुई भू-तुल्यकालिक कक्षा (Inclined Geosynchronous Orbit) में
- परिचालन उपग्रह: IRNSS-1A से IRNSS-1I (IRNSS-1H को PSLV-39 मिशन विफलता के कारण स्थापित नहीं किया जा सका)
- प्रक्षेपण कालावधि: 2013–2018
- 7 उपग्रहों की परिचालन संरचना:
- प्रस्तुत सेवाएँ (Services Offered):
- मानक स्थिति सेवा (Standard Positioning Service – SPS): सामान्य उपयोगकर्ताओं हेतु खुली सेवा
- प्रतिबंधित सेवा (Restricted Service – RS): केवल अधिकृत उपयोगकर्ताओं हेतु एन्क्रिप्टेड सेवा
- 2023 में ISRO ने GSLV Mk-II के माध्यम से NVS-01 उपग्रह का प्रक्षेपण किया, जो NavIC सेवाओं को और अधिक सुदृढ़ करता है।
- NavIC को अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन (IMO) द्वारा World Wide Radio Navigation System (WWRNS) के एक घटक के रूप में मान्यता दी गई है, विशेष रूप से हिंद महासागर क्षेत्र में संचालन हेतु।
- यह प्रणाली अब वाणिज्यिक जहाज़ों को GPS एवं GLONASS जैसी सेवाओं के अनुरूप स्थान जानकारी प्रदान करने में सक्षम है, जिससे महासागरीय जलक्षेत्रों में नौवहन संभव होता है।
- NavIC का स्मार्टफोन में अनिवार्य होना
- 5G स्मार्टफोन में 1 जनवरी 2025 से NavIC समर्थन आवश्यक होगा।
- L1 बैंड आधारित स्मार्टफोन (जो वर्तमान में GPS का उपयोग करते हैं) में 31 दिसंबर 2025 तक NavIC समर्थन लागू किया जाएगा।
भारत के लिए महत्त्व और प्रभाव
- वैश्विक मान्यता: IMO की मान्यता के साथ, भारत चौथा देश बन गया है जिसके पास क्षेत्रीय उपग्रह नेविगेशन प्रणाली है।
- रणनीतिक स्वायत्तता: GPS जैसी विदेशी प्रणालियों पर निर्भरता घटती है; 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान GPS डेटा की अनुपलब्धता से सीखा गया सबक।
- सामाजिक-आर्थिक प्रभाव: आपदा प्रबंधन में सहायता, वाहनों की ट्रैकिंग एवं फ्लीट प्रबंधन, सटीक समय निर्धारण (Precise Timing), मानचित्रण एवं भू-आकृतिक डेटा संग्रह।
- सटीकता और विश्वसनीयता: NavIC S और L बैंड पर कार्य करता है जिससे बेहतर परिशुद्धता प्राप्त होती है। आम उपयोगकर्ताओं के लिए 5–20 मीटर और सैन्य उपयोगकर्ताओं हेतु 0.5–5 मीटर की सटीकता उपलब्ध कराता है।
- नागरिक विमानन में सहयोग: GAGAN प्रणाली भारत के विमानन नेविगेशन को अधिक सुरक्षित और भरोसेमंद बनाती है।
- रक्षा क्षमता में वृद्धि: संघर्ष की स्थिति में सटीक डेटा और आधुनिक हथियार प्रणालियों को समर्थन प्रदान करता है।
- दुर्गम क्षेत्रों में कवरेज: उच्च भूस्थैतिक कक्षा के उपग्रहों के माध्यम से दुर्गम एवं दूरस्थ क्षेत्रों तक सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करता है।
- विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र: भारत में सभी मोबाइल फोन में GPS की जगह NavIC-सक्षम चिपसेट मानक बन सकते हैं। इससे मोबाइल दूरसंचार उद्योग को बढ़ावा मिलेगा और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में इसे अपनाने को बढ़ावा मिलेगा।
- तकनीकी उन्नति: रुबिडियम परमाणु घड़ियों से लैस NVS-01 जैसे दूसरी पीढ़ी के उपग्रहों की शुरूआत, नेविगेशन तकनीक में भारत की तकनीकी शक्ति को प्रदर्शित करती है।
FAQ (Previous year questions)
क्षा क्षेत्र में स्वदेशीकरण, विशेष रूप से मिसाइल और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों में, आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और प्रौद्योगिकीय आत्मनिर्भरता की दृष्टि के केंद्र में है। यह आयात पर निर्भरता को कम करता है और राष्ट्रीय सुरक्षा को सुदृढ़ करता है।
रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण
अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियाँ
रक्षा प्रौद्योगिकियाँ
प्रक्षेपण वाहन – पी.एस.एल.वी., जी.एस.एल.वी. (क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी), एन.जी.एल.वीआर.एल.वी. – टी.डी., क्रू केबिनउपग्रह – जी.एस.ए.टी. 7, जी.एस.ए.टी. 7ए (सैन्य उपयोग के लिए) आदि।रडार – निसार, स्वाति, राजेंद्र, उत्तम ए.ई.एस.ए. रडार आदि।
मिसाइल प्रणाली – रुद्रम, पृथ्वी, नाग आदि।युद्धक प्रणाली – एल.सी.ए. तेजस, चीता आदि।वायु रक्षा प्रणाली – पी.ए.डी., आकाश और बराक-8 मिसाइलेंड्रोन युद्ध और लोइटरिंग म्यूनिशन – नागस्त्र-1, डी4एस प्रणाली और वज्रशॉट गनकमांड और नियंत्रण प्रणाली – एकीकृत वायु कमान और नियंत्रण प्रणाली, आकाशतीर प्रणाली, नेत्र ए.ई.डब्लू.एंड.सी. (AEW&C) आदि।
रणनीतिक महत्व:
संप्रभु क्षमता: अग्नि-V और पृथ्वी जैसे स्वदेशी मिसाइलें भारत की परमाणु प्रतिरोधक क्षमता और द्वितीय प्रहार क्षमता को मज़बूत करती हैं।
रणनीतिक स्वायत्तता: भारत को विदेशी प्रतिबंधों और अस्वीकृति व्यवस्था (denial regimes) (जैसे MTCR) से बचाती है। उदाहरण: रूस से क्रायोजेनिक तकनीक का स्थानांतरण (GSLV के लिए)।
सीमावर्ती तैयारियों में वृद्धि: पिनाका, आकाश, और S-400 जैसी प्रणालियों का एकीकरण लड़ाकू (युद्ध) क्षमता को बेहतर बनाता है।
वैश्विक प्रभाव: ब्रह्मोस, पिनाका और उपग्रहों का निर्यात भारत की रणनीतिक उपस्थिति को बढ़ाता है।
प्रौद्योगिकीय महत्व:
अनुसंधान और विकास पारिस्थितिकी तंत्र: DRDO, ISRO जैसी संस्थाएँ और स्टार्टअप्स नवाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। उदाहरण: स्क्रैमजेट इंजन, रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल, हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमोंस्ट्रेटर व्हीकल।
दोहरी उपयोग की तकनीक (Dual-use): मिसाइल और अंतरिक्ष तकनीकों का उपयोग टेलीकॉम, नेविगेशन और आपदा प्रबंधन जैसे असैन्य क्षेत्रों में भी किया जा रहा है। उदाहरण: NAVIC (क्षेत्रीय नेविगेशन), DISHA उपग्रह (मौसम), कृषि निगरानी।
स्थानीयकरण एवं अनुकूलन: स्वदेशी प्रणालियाँ भारत की भू-आकृति, युद्ध आवश्यकताओं, और जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल होती हैं।
लागत प्रभावी उत्पादन: यह आयात बिल को घटाता है और हाई-टेक क्षेत्रों में रोजगार सृजन को बढ़ावा देता है। उदाहरण: PSLV-C37 द्वारा एक साथ 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण।
चुनौतियाँ:
महत्वपूर्ण घटकों पर निर्भरता: कावेरी इंजन परियोजना स्वदेशी जेट इंजन तकनीक की कमी के कारण ठप हो गई।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और रक्षा खरीद में विलंब।
परियोजना विलंब: LCA तेजस और INS अरिहंत जैसी परियोजनाओं में लंबा विकास काल रहा।
निजी क्षेत्र की अपर्याप्त भागीदारी/सीमित उपयोग: स्टार्टअप्स को नियामकीय अड़चनों (ब्यूरोक्रेसी) और परीक्षण सुविधाओं सीमित पहुंच की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
हालांकि भारत ने रक्षा क्षेत्र के स्वदेशीकरण में महत्वपूर्ण प्रगति की है, लेकिन इसे वैश्विक रक्षा विनिर्माण केंद्र के लिए शिक्षा संस्थानों, निजी क्षेत्र और नीति सुधारों को सम्मिलित करते हुए समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
आदित्य-एल1 मिशन
भारत का पहला अंतरिक्ष-आधारित सौर वेधशाला, जिसे 2 सितंबर 2023 को PSLV C57 के माध्यम से श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित किया गया।
L1 लैग्रेंजियन पॉइंट के चारों ओर हेलो कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया गया, जिससे लगातार सौर अवलोकन संभव हुआ।
उद्देश्य: सौर वायुमंडल (क्रोमोस्फियर और कोरोना) की गतिशीलता का अध्ययन।
कोरोनल हीटिंग, सौर हवा और चुंबकीय क्षेत्र के परस्पर प्रभावों की जांच।
कोरोनल मास इजेक्शन (CME) और अंतरिक्ष मौसम पर इसके प्रभाव (सौर हवा की उत्पत्ति, संरचना और गतिशीलता) का विश्लेषण।
24×7 सौर अवलोकन, बिना ग्रहण के हस्तक्षेप के।
मुख्य विशेषताएँ: आदित्य-एल1 में 7 पेलोड हैं (5 ISRO द्वारा, जैसे SUIT, PAPA, HEL1OS और 2 भारतीय शैक्षणिक संस्थानों द्वारा विकसित)।
सूर्य की पूर्ण-डिस्क UV इमेजिंग, जिससे सौर परिवर्तनशीलता और जलवायु प्रभाव को समझने में मदद मिलेगी।
अंतरिक्ष मौसम केंद्र के रूप में कार्य करता है, जिससे जियोमैग्नेटिक तूफानों की भविष्यवाणी और उपग्रह सुरक्षा में सहायता मिलती है।
आदित्य-एल1 मिशन का महत्व: ISRO की विशेषज्ञता को सौर भौतिकी और अंतरिक्ष खगोल विज्ञान में विस्तार देता है।
भारत को NASA, ESA और CNSA जैसी प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसियों के समकक्ष खड़ा करता है।
अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में प्रगति: अंतरिक्ष मौसम भविष्यवाणी में सुधार, जिससे उपग्रहों और पावर ग्रिड की सुरक्षा सुनिश्चित होगी।
गहरे अंतरिक्ष अभियानों और उन्नत उपकरणों में भारत की क्षमताओं को मजबूत करता है।
भविष्य की सौर खोज: आदित्य-एल2 (सूर्य के दूरस्थ पक्ष की इमेजिंग) और आदित्य-एल3 (अत्यधिक दीर्घवृत्तीय कक्षाओं में) जैसे भविष्य के अभियानों की नींव रखता है।
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (PSLV)
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (GSLV)
इसरो का तीसरी पीढ़ी का प्रेक्षपण यान
चौथी पीढ़ी का प्रेक्षपण यान
सामान्यत: निम्न पृथ्वी कक्षा में सुदूर संवेदन एवम् पृथ्वी अवलोकन के लिए उपग्रह प्रेक्षपण
सामान्यत: उच्च पृथ्वी कक्षा (GTO) में संचार उपग्रहों का प्रेक्षपण
4 चरण : 1st और 3rd चरण ठोस एवम् 2nd और 4th चरण तरल
3 चरण : पहला – ठोस, दूसरा – तरल (विकास इंजन), तीसरा – CUS (क्रायोजेनिक अपर स्टेज)
पेलोड क्षमता : ध्रुवीय कक्षा-1750 कि.ग्रा, Sub GTO – 1425 किलोग्राम
पेलोड क्षमता : जीटीओ – 4000 किलोग्राम, LEO – 8000-10000 किग्रा
इसरो का वर्कहॉर्स
फैट बॉय
