योग- सकारात्मक जीवन पद्धति

“योग – सकारात्मक जीवन पद्धति” खेल और योग विषय का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो हमें स्वस्थ, संतुलित और अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। योग केवल एक शारीरिक अभ्यास नहीं, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक विकास का माध्यम भी है। यह तनाव को कम करता है, एकाग्रता बढ़ाता है और जीवन में सकारात्मकता लाता है।

विगत वर्षों के प्रश्न

वर्षप्रश्नअंक
2023“जन्मौषधि मंत्रतपः समाधिजाः सिद्धयः” का उद्भव योगसूत्र के किस पद से है ? इसमें प्रयुक्त अवयवों की विवेचना कीजिए ।5M
2021योगराज उपनिषद के अनुसार योग के प्रकार लिखिए2M
2018“योग कर्मसु कौशलम्‌” को विस्तार से समझाइए ।5M
  • योग’ शब्द संस्कृत धातु ‘युज‘ से निकला है, जिसका अर्थ है ‘जुड़ना’ या ‘मिलना’। इसे शरीर, मन और आत्मा के संयोग के रूप में लिया जा सकता है। योग को साहित्य में साधन और साध्य, दोनों के रूप में उपयोग किया गया है।
  • साध्य के रूप में, योग ‘व्यक्तित्व के उच्चतम स्तर पर समग्रता’ का प्रतीक है। साधन के रूप में, योग में विभिन्न अभ्यास और तकनीकें शामिल हैं, जिनका उपयोग इस समग्रता के विकास को प्राप्त करने के लिए किया जाता है।  
  • योगिक परंपरा के अनुसार, शिव को योग के प्रवर्तक माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता के कई मुहरे और जीवाश्म अवशेष, जो 2700 ईसा पूर्व के हैं, इस बात का संकेत देते हैं कि प्राचीन भारत में योग प्रचलित था।
  • हालांकि, योग का व्यवस्थित उल्लेख महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में मिलता है। महर्षि पतंजलि ने योग अभ्यासों को व्यवस्थित रूप से संहिताबद्ध किया। पतंजलि के बाद, अनेक ऋषियों और योगियों ने इसके विकास में योगदान दिया, और परिणामस्वरूप, आज योग पूरी दुनिया में फैल चुका है।
  • इसी क्रम में, 11 दिसंबर 2014 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के 193 सदस्य देशों ने ’21 जून’ को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी।

योग का इतिहास और विकास

सिंधु घाटी सभ्यता (2000 ईसा पूर्व) में योग का विशेष स्थान था। उस समय की पत्थर की मुद्राओं से योगाभ्यास के प्रमाण मिलते हैं।

Yoga - Positive way of life

वेदों में भी योग शब्द का उल्लेख कई बार मिलता है, योग का परम लक्ष्य मोक्ष है, जिसे उपनिषदों में विस्तार से समझाया गया है। 

कठोपनिषद (1.3.13):

“यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्॥”

  • अर्थ: जब पाँचों इंद्रियाँ और मन शांत हो जाते हैं, और बुद्धि स्थिर हो जाती है, तभी परम स्थिति (योग या समाधि) प्राप्त होती है। इंद्रियों और मन की स्थिरता से मनुष्य शुभ संस्कारों की ओर अग्रसर होता है और विक्षिप्त (अशुभ) संस्कारों का क्षय होता है।

योगराज उपनिषद :

योग के प्रकार का वर्णन है

मंत्र योग :
  • मंत्र योग वह है जो शक्तिपात (गुरु की कृपा) से संभव होता है। इस योग का लक्षण है — मंत्र-जप, इंद्रिय संयम और ध्यान। मंत्र योग से साधक धीरे-धीरे बाह्य संसार से चित्त हटाकर अंतर में प्रवेश करता है।
लय योग :
  • लय योग वह है जिसमें चित्त और प्राण की शक्तियाँ ब्रह्म (परमात्मा) में लीन हो जाती हैं। यह केवल गुरु के उपदेश और साधना के बल से सिद्ध होता है।
  • यह योग सूक्ष्म शरीर के नियंत्रण और अंतःकरण की शुद्धि द्वारा आत्मा में विलय की प्रक्रिया है।
हठ योग :
  • हठ योग वह है जिसमें शरीर की नाड़ियों की शुद्धि और प्राण की स्थिरता को प्राप्त करना मुख्य साधन है। इसके द्वारा साधक अपने शरीर और मन को एक सुदृढ़ साधन बनाता है जिससे आत्म-साक्षात्कार की यात्रा आरंभ हो सके।

राज योग :

  • राज योग वह है जो ध्यान और समाधि द्वारा चित्त की पूर्ण एकाग्रता और आत्मा का परमात्मा से मिलन कराता है। यह योग मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है।
  • राज योग को अष्टांग योग भी कहा जाता है – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि। 
  • यह चित्त के संपूर्ण नियंत्रण का विज्ञान है।

स्कन्द पुराण

“यज्ञो हि ध्यानमात्रं स्यात्।”

अर्थ:

  • यज्ञ का सर्वोच्च रूप ध्यान है—जब मन पूरी तरह परमात्मा में लीन हो जाता है।
  • जब मन समाहित होकर चित्त की वृत्तियों को शांत करता है और आत्मा में केंद्रित हो जाता है, वही यज्ञ का सच्चा स्वरूप है।
  1. बुद्ध के उपदेशों में वर्णित ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ और जैन धर्म के ‘पांच महाव्रत’ योग परंपरा के दो प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
  2. महाकाव्य रामायण और महाभारत में योग के कई संदर्भ मिलते हैं। 
  3. भगवद गीता को योग पर एक शास्त्रीय ग्रंथ माना जाता है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को “योगः कर्मसु कौशलम्” का उपदेश दिया – अर्थात्, योग कर्मों में कौशल है।

“योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”
– भगवद्गीता 2.48

अर्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित होकर, आसक्ति को त्यागकर कर्म करो। सफलता और असफलता दोनों में समभाव रखो — यही समत्व ही योग है।

योग का वर्णन षड्दर्शन में भी मिलता है।

सांख्य दर्शन

“प्रकृति और पुरुष का विवेक ही योग है”

सांख्य सूत्र (कपिल मुनि):

“पुरुषार्थेऽपि न कर्तृत्वाभावात्।”
“विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः।”

  • अर्थ: आत्मा का वास्तविक स्वरूप जान लेना (विवेक) ही मोक्ष का मार्ग है। 
  • सांख्य के अनुसार, योग वह स्थिति है जब आत्मा (पुरुष) और प्रकृति (भौतिक जगत) के भेद का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है।
  • योग वही है जब आत्मा को यह बोध हो जाए कि वह प्रकृति से भिन्न है—न वह कर्ता है, न भोगता।
  1. महर्षि पतंजलि ने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास योग की व्यापक प्रणाली का संहिताबद्ध किया। उन्होंने अष्टांग योग की अवधारणा दी, जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि पर आधारित है।
  2. पाणिनि , जो संस्कृत व्याकरण के महान आचार्य थे, उन्होंने ‘योग’ शब्द के विभिन्न रूपों और प्रयोगों को अपने अष्टाध्यायी में व्याकरणिक रूप से स्पष्ट किया है।
    • “युज समाधौ”
      • अर्थ: ‘युज्’ धातु का एक अर्थ है समाधि में स्थित होना।
      • यह वही अर्थ है जिसे पातंजलि योगसूत्र (1.2) में कहा गया –
      • “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” – योग = चित्त की वृत्तियों का निरोध।
    • “युज् संयोगे”
      • अर्थ: ‘युज्’ धातु का दूसरा अर्थ है – जोड़ना या संयोग करना।
      • यह ‘योग’ का अधिक व्यावहारिक और सांसारिक अर्थ है – दो तत्वों (जैसे आत्मा और परमात्मा) का संयोग।
  3. नाथ संप्रदाय ने हठ योग की परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हठ योग दिन-प्रतिदिन की स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने पर केंद्रित है और शरीर तथा मन के संतुलन पर जोर देता है। हठ योग के प्रमुख ग्रंथों में हठयोग प्रदीपिका, घेरंड संहिता, हठ रत्नावली, शिव संहिता, सिद्ध सिद्धांत पद्धति आदि शामिल हैं।
  4. उन्नीसवीं सदी के गुरु, जैसे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और रमण महर्षि ने योग को जनसाधारण तक पहुँचाया और इसकी महत्ता को पुनर्स्थापित किया।

योग की प्रमुख शाखाएँ

कर्म-योग (कर्म का मार्ग)

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” – (भगवद्गीता 2.47)

अर्थ :

  • योग = कर्म में कुशलता और समत्व।
  • कर्म योग वह योग है जिसमें निष्काम भाव से कर्म करना, बिना फल की इच्छा के, भगवान को समर्पित किया जाता है।
  • कर्म-योग ,योग की प्रमुख धाराओं में से एक है। ‘कर्म’ का अर्थ है ‘क्रिया’ या ‘कार्य’। 
  • कर्म योग का उद्देश्य उच्चतर आत्मा से एकत्व प्राप्त करना है, जो हमारे कार्यों को संतुलित और शुद्ध करके होता है।
  • कर्म योग व्यक्ति को प्रेरित करता है कि वह अपने कर्तव्यों को सर्वोत्तम क्षमता से निभाए, बिना किसी लगाव या परिणाम की अपेक्षा के। कर्म-योग की अवधारणा और इसका अभ्यास भगवद गीता में विस्तार से उल्लेखित है। इस योगमार्ग में निम्नलिखित विशेषताएँ प्रमुख हैं:
    • कर्म को कर्तव्य मानना: जब कोई कार्य पूर्ण समर्पण और जिम्मेदारी के साथ किया जाता है, तो वह सुख और संतोष का स्रोत बनता है। कर्तव्यनिष्ठ कर्म से व्यक्ति आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त करता है।
    • कर्मसु कौशलम्: भगवद गीता में कर्म योग का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है – “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात योग का अर्थ है दक्षता या कौशलपूर्ण कर्म। जो कर्म ध्यानपूर्वक, निपुणता और निर्लिप्तता के साथ किया जाता है, वह अधिक कुशल और प्रभावी होता है।
    • निष्काम कर्म: निष्काम कर्म का अर्थ है ऐसा कर्म जो किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या लालसा से मुक्त हो, और केवल कर्तव्य के रूप में किया जाए। यह गुण इस बात पर जोर देता है कि कर्म बिना परिणाम की अपेक्षा के किया जाना चाहिए। निष्काम भाव से किया गया कर्म आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।

कर्म योग व्यक्ति को आत्मिक विकास के पथ पर ले जाता है, जहाँ निष्काम भाव से किया गया कर्म उसे आत्मा से जोड़ता है और अंततः मोक्ष का साधन बनता है।

ज्ञान योग (ज्ञान का मार्ग)

  • ज्ञान योग आत्मा, संसार, और परम सत्य या वास्तविकता की पहचान से संबंधित है।
  • आत्मा और ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को विवेक और वैराग्य द्वारा जानना ही ज्ञान योग है।
  • मुख्य तत्व: विवेक, बौद्धिक स्पष्टता, आत्मबोध।

“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रज्न्यवां न विद्यते।” – (गीता)

भगवद्गीता कहती है कि सच्चे मार्ग पर चलने का प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता। यदि कोई थोड़े भी समय के लिए धर्म, योग, साधना या आत्म-उन्नति के मार्ग पर चलता है, तो भी वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है और जीवन के बड़े संकटों से बच सकता है।

  • योग = आत्मा के यथार्थ ज्ञान की साधना।
  • यह एक ऐसा मार्ग है जो बुद्धि का प्रयोग कर व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करता है और उसे अविद्या (अज्ञान) से दूर रखता है।
  • अविद्या जीवन में दुख, क्लेश और पीड़ा का मुख्य कारण है। अविद्या के कारण व्यक्ति अपने को शरीर, मन, जाति, और राष्ट्रीयता जैसे विभिन्न नामों और रूपों से जोड़ लेता है, और संसारिक भोग-विलास की प्राप्ति में लगा रहता है। ज्ञान योग के माध्यम से विकसित विवेकशीलता (विवेक) व्यक्ति की अविद्या का आवरण हटाकर उसे सत्य और असत्य, यथार्थ और आभास के बीच भेद करने में सक्षम बनाती है और उसे वास्तविक आनंद और शांति की दिशा में मार्गदर्शन करती है।
  • ज्ञान योग का मुख्य उद्देश्य अविद्या को पराजित करना है ताकि व्यक्ति वास्तविकता और आभास के बीच फर्क समझ सके। ज्ञान योग के तीन महत्वपूर्ण चरण हैं:
    • श्रवण: शास्त्रों और गुरु के उपदेशों को सही ढंग से सुनना और ग्रहण करना।
    • मनन: सुनी हुई बातों पर गहन चिंतन और विचार करना।
    • निदिध्यासन: ध्यान या गहन चिंतन के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार करना।
    • इन तीन चरणों के माध्यम से, ज्ञान योग व्यक्ति को अविद्या से मुक्त कर वास्तविक आत्मज्ञान की ओर ले जाता है, जहाँ उसे स्थायी सुख और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

राज योग (मानसिक नियंत्रण का मार्ग)

  • राज योग एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक पद्धति है, जो सत्य की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। 
  • यह मानसिक नियंत्रण का मार्ग है, जो मन को संवर्धित करने की एक प्रणालीबद्ध प्रक्रिया है। 
  • इसका उद्देश्य व्यक्तित्व की निहित संभावनाओं का विकास करना है।

“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।” – योगसूत्र (1.2)

  • राज योग में चित्तवृत्तियों (मन की प्रवृत्तियों) के नियंत्रण और परिवर्तन के तरीकों पर चर्चा की जाती है। इसमें अभ्यास (निरंतर अभ्यास) और वैराग्य (अविरक्ति) पर जोर दिया गया है, जो चित्तवृत्तियों के नियंत्रण और आध्यात्मिक साधनाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  • राज योग, अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग) पर आधारित है, जिसे महर्षि पतंजलि ने प्रतिपादित किया। राज योग के सभी आठ अंग मानव व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों पर कार्य करते हैं इन अंगों में शामिल हैं:
    1. यम: नैतिक अनुशासन
    2. नियम: व्यक्तिगत नियम
    3. आसन: साधना की स्थिति
    4. प्राणायाम: श्वास का नियंत्रण
    5. प्रत्याहार : इंद्रियों का संयमन
    6. धारणा: एकाग्रता
    7. ध्यान: ध्यान करना
    8. समाधि: आत्मा का परम अनुभव

राज योग का अनुसरण करके व्यक्ति मानसिक और आत्मिक विकास की दिशा में अग्रसर होता है, जिससे वह अपने जीवन में शांति और संतुलन प्राप्त कर सकता है।

भक्ति योग (भक्ति का मार्ग)

  • भक्ति योग, दिव्य प्रेम में मन को संलग्न करने की एक प्रणालीबद्ध पद्धति है।
  •  “भक्ति” का अर्थ है भगवान के प्रति निस्वार्थ और अकारण प्रेम। यह पूजा का एक ऐसा रूप है, जिसमें भगवान की अनंत और प्रेमपूर्ण स्मृति होती है। व्यक्ति स्वयं को भगवान में विलीन कर लेता है।
  • प्रेम और भक्ति का यह दृष्टिकोण भावनाओं को नरम बनाता है और मन को शांति प्रदान करता है।
  • प्राचीन ग्रंथों भागवत में भक्ति योग के नौ रूपों का वर्णन किया गया है:
    • श्रवण: भगवान की कथा सुनना
    • कीर्तन: भक्ति गीत गाना
    • स्मरण: भगवान का स्मरण करना
    • पादसेवन: भगवान के चरणों की सेवा करना
    • अर्चना: पूजा करना
    • वंदना: प्रणाम करना
    • दास्य: भगवान को सेवक की तरह मानना
    • सख्य: भगवान को मित्र मानना
    • आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में समर्पित करना

भक्ति योग, मन की नकारात्मक भावनाओं को समाप्त कर, व्यक्ति को प्रेम, शांति और आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है।

योग चित्त वृत्ति निरोधः

  • संस्कृत वाक्य “योग चित्त वृत्ति निरोधः” ऋषि पतंजलि द्वारा लिखे गए योग सूत्र से है।
  • अर्थ- “योग मन के संशोधनों या उतार-चढ़ाव को शांत करना या नियंत्रित करना है”।
  • यह मन को उत्तरोत्तर शांत करके ब्रह्मांड के साथ एकत्व स्थापित करने पर जोर देता है।

योगिक ग्रंथों में कई अभ्यासों का वर्णन किया गया है, जैसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, शट्कर्म (शुद्धि प्रक्रियाएँ), मुद्रा, बंध, धारणा, और ध्यान। यहाँ, हम उन अभ्यासों पर चर्चा करेंगे जो सामान्यतः प्रयोग में लाए जाते हैं।

सूर्य नमस्कार

योग- सकारात्मक जीवन पद्धति

सूर्य नमस्कार मुख्य  रूप से (विशिष्‍ट शारीरिक आकृतियों) के माध्यम से सूर्य  का अभिवादन करना है । सूर्य नमस्कार 12 शारीरिक स्थितियों की श्रृंखला  है । ये स्थितियाँ विभिन्न पेशियों और मेरुदड को खींचती हैं और पूरे  शरीर को लचीला बनाती हैं ।

सूर्य नमस्कार भारत का एक प्राचीन एवं सर्वश्रेष्ठ संपूर्ण शरीर का व्यायाम है। यह केवल एक शारीरिक क्रिया न होकर मानसिक और आत्मिक उन्नति का भी माध्यम है।

  1. प्रणामासन (प्रार्थना मुद्रा): खड़े होकर, हाथ जोड़कर, शुरू करें।
  2. हस्त उत्तानासन (उठाई हुई भुजा मुद्रा): श्वास लें, भुजाएं ऊपर उठाएं।
  3. हस्तपादासन (हाथ से पैर तक की मुद्रा): सांस छोड़ें, आगे की ओर झुकें।
  4. अश्व संचलानासन (घुड़सवारी मुद्रा): श्वास लें, एक पैर से पीछे हटें।
  5. दंडासन (तख़्त मुद्रा): स्वास रोकें , दूसरे पैर से पीछे हटें।
  6. अष्टांग नमस्कार (आठ अंगों वाली मुद्रा): सांस छोड़ें, घुटनों, छाती, ठुड्डी को नीचे करें।
  7. भुजंगासन (कोबरा पोज़): श्वास लें, छाती उठाएं।
  8. पर्वतासन (पर्वत मुद्रा): सांस छोड़ें, कूल्हों को ऊपर उठाएं।
  9. अश्व संचलानासन (घुड़सवारी मुद्रा): श्वास लें, एक पैर आगे बढ़ाएं।
  10. हस्तपादासन (हाथ से पैर तक की मुद्रा): सांस छोड़ें, दूसरे पैर को आगे बढ़ाएं।
  11. हस्त उत्तानासन (उठाई हुई भुजा मुद्रा): श्वास लें, भुजाएं ऊपर उठाएं।
  12. प्रणामासन (प्रार्थना मुद्रा): साँस छोड़ें, हाथ जोड़ें । 4 से 9 तक, अग्रणी पैर को बदलते हुए, दोहराएँ
क्रमआसन का नामश्वसन क्रियालाभ
1प्रणामासनरेचक (श्वास छोड़ना)मानसिक शांति, नम्रता
2हस्त उत्तानासनपूरक (श्वास लेना)मेरुदंड लचीला बनाना
3पाद हस्तासनरेचक (श्वास छोड़ना)पाचन में सुधार
4अश्व संचालनासनपूरक (श्वास लेना)शरीर में रक्त प्रवाह
5दंडासनरेचक (श्वास छोड़ना)संतुलन व सबलता बाहु
6अष्टांग नमस्कारकुम्भक (श्वास रोकना)धैर्य व एकाग्रता
7भुजंगासनपूरक (श्वास लेना)पीठ मजबूत, छाती विस्तार
8पर्वतासनरेचक (श्वास छोड़ना)मांसपेशियों में खिंचाव
9अश्व संचालनासन (दूसरा पैर)पूरक (श्वास लेना)संतुलन व सजगता
10पाद हस्तासनरेचक (श्वास छोड़ना)तनाव मुक्ति
11हस्त उत्तानासनपूरक (श्वास लेना)ऊर्जा संचार
12प्रणामासनरेचक (श्वास छोड़ना)सम्मान व आभार
सूर्य के 13 नाम: (प्रत्येक नमस्कार के साथ एक उच्चारित)
क्रममंत्र (संस्कृत)अर्थ (हिंदी में)
1मित्राय नमःसबका मित्र (सखा)
2रवये नमःप्रकाशमान होने वाले को नमस्कार
3सूर्याय नमःअंधकार को दूर करने वाले को नमस्कार
4भानवे नमःतेजस्वी प्रकाश देने वाले को नमस्कार
5खगाय नमःआकाश में चलने वाले को नमस्कार
6पूष्णे नमःपोषण व बल देने वाले को नमस्कार
7हिरण्यगर्भाय नमःस्वर्णीय गर्भ वाले ब्रह्मांडीय तत्व को नमस्कार
8मरीचये नमःकिरणों के स्वामी को नमस्कार
9आदित्याय नमःअदिति के पुत्र (देवों में श्रेष्ठ) को नमस्कार
10सवित्रे नमःसृष्टि को प्रेरणा देने वाले को नमस्कार
11अर्काय नमःतेजस्वी और उज्ज्वल रूप को नमस्कार
12भास्कराय नमःप्रकाश फैलाने वाले को नमस्कार
13श्री सवित्र सूर्यनारायणाय नमःभगवान सूर्यनारायण को नमस्कार

वर्तमान संदर्भ में महत्त्व:

  • आधुनिक जीवनशैली में समय की कमी, मानसिक तनाव, कंप्यूटर पर लंबा समय व्यतीत करना, फास्ट फूड का सेवन और भौतिक सफलता की होड़ से स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • ऐसी स्थिति में प्रतिदिन केवल 13 सूर्य नमस्कार करना एक रामबाण उपाय है।
  • सूर्य नमस्कार के लाभ:
    • मानसिक:
      • एकाग्रता बढ़ती है
      • तनाव कम होता है
      • मानसिक विकार दूर होते हैं
    • शारीरिक:
      • शरीर की लचीलापन और स्फूर्ति बढ़ती है
      • रक्त संचार सुधरता है
      • पाचन तंत्र मज़बूत होता है
      • वजन नियंत्रित रहता है
    • सामाजिक और नैतिक:
      • आत्मअनुशासन
      • स्वावलंबन की भावना
      • दिनचर्या में नियमितता
    • वैज्ञानिक दृष्टिकोण से:
      • सूर्य नमस्कार शरीर की मांसपेशियों, संधियों और ग्रंथियों को सक्रिय करता है
      • हार्मोनल संतुलन में मदद करता है
      • यह एक तरह का कार्डियो और स्ट्रेचिंग व्यायाम दोनों है।

अष्टांग योग

संस्कृत में, अष्टांग का अर्थ है आठ अंग (अस्थ- आठ, अंग- अंग)। अष्टांग योग, योग की स्थिति (जिसे समाधि भी कहा जाता है)प्राप्त करने का आठ अंगों वाला मार्ग है। पतंजलि के योग सूत्र में उल्लिखित, यह सार्वभौमिक स्व को प्रकट करने के लिए आंतरिक शुद्धि का मार्ग है जिसमें निम्नलिखित आठ आध्यात्मिक अभ्यास शामिल हैं:

  1. यम (संयम)- नैतिक अनुशासन
  2. नियम (पालन)-  व्यक्तिगत नियम
  3. आसन (योग मुद्राएं)- साधना की स्थिति
  4. प्राणायाम (श्वास पर नियंत्रण)
  5. प्रत्याहार (इंद्रियों का संयमन)
  6. धारणा (एकाग्रता)
  7. ध्यान (ध्यान करना) 
  8. समाधि (अवशोषण)-आत्मा का परम अनुभव
योग- सकारात्मक जीवन पद्धति

यम

यम, योग के आठ अंगों में पहला, आध्यात्मिक पथ पर अनुसरण करने के लिए पांच नैतिक प्रतिबंधों का उल्लेख करता है:

  1. अहिंसा – शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से हिंसा से बचना। यह करुणा और निर्णय-रहितता को बढ़ावा देता है।
  2. सत्य – शब्दों और कार्यों में सत्यनिष्ठा, जिसे अहिंसा के साथ अभ्यास किया जाता है ताकि सत्यता हानि न पहुँचाए।
  3. अस्तेय – दूसरों की संपत्ति, समय या अधिकारों की चोरी न करना, और शोषण या उत्पीड़न से बचना।
  4. ब्रह्मचर्य – संयम या आत्म-नियंत्रण, जो अक्सर यौन संयम से संबंधित होता है, लेकिन सभी इच्छाओं को प्रबंधित करने के बारे में भी है ताकि आध्यात्मिक विकास के लिए ऊर्जा को संचित किया जा सके।
  5. अपरिग्रह – संपत्तियों से अनासक्ति, केवल आवश्यक चीजों पर ध्यान केंद्रित करना ताकि वास्तविक आत्म (आत्मा) का उद्घाटन हो सके।

नियम

नियम, पतंजलि के योग का दूसरा अंग, व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ावा देने के लिए सद्गुणों की आदतों और आंतरिक अनुशासनों पर ध्यान केंद्रित करता है। पाँच नियम इस प्रकार हैं:

  1. शौच – मन, शरीर और पर्यावरण की पवित्रता। इसमें स्वच्छता बनाए रखना और ध्यान जैसे अभ्यासों के माध्यम से मानसिक स्पष्टता को प्राप्त करना शामिल है।
  2. संतोष – स्वयं और संसार को जैसे हैं, वैसा ही स्वीकार करना, इच्छाओं और आसक्ति से मुक्त होना।
  3. तप – आत्म-अनुशासन और इच्छाशक्ति, जब आवश्यक हो असहजता को अपनाना ताकि सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सके।
  4. स्वाध्याय – आत्म-अध्ययन और आत्म-प्रतिबिम्ब, अक्सर पवित्र ग्रंथों के माध्यम से, ताकि स्वयं और दिव्य का ज्ञान प्राप्त किया जा सके।
  5. ईश्वर प्राणिधान – एक उच्च शक्ति के प्रति समर्पण, कार्यों को दिव्य के प्रति समर्पित करना और अहंकार से प्रेरित इच्छाओं को छोड़ना ।

आसन

योग- सकारात्मक जीवन पद्धति
  • पंतजलि योगसूत्र के अनुसार, आसन का अर्थ है “स्थिरम् सुखम् आसनम्”, अर्थात “वह स्थिति जो आरामदायक और स्थिर हो”।
  • ब्राह्मणोपनिषद में कहा गया है, “एक आरामदायक स्थिति में बैठना, जो अनंत काल तक रहे, उसे आसन कहा जाता है।”
  • किसी भी स्थिति में लंबे समय तक आराम से बैठने की क्षमता को आसन कहा जाता है।
  • यह पंतजलि के योग पथ का तीसरा अंग है, जो यम और नियम के बाद आता है।
आसनों के मुख्य बिंदु:
  • शारीरिक और आध्यात्मिक महत्व: आसन शरीर को स्वस्थ रखते हैं, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है, क्योंकि शरीर आत्मा का वाहन है।
  • लाभ: ये क्षमता, लचीलापन, मानसिक ध्यान को बढ़ाते हैं, और परिसंचरण, प्रतिरक्षा, और पाचन तंत्र को उत्तेजित करते हैं। सूक्ष्म स्तर पर, आसन ऊर्जा चैनलों (चक्रों और नाड़ियों) को भी खोलते हैं।
  • ऐतिहासिक संदर्भ: शास्त्रीय हठ योग ग्रंथों में 84 आसनों का उल्लेख है, जिनमें से पहले चार—सिद्धासन, पद्मासन, भद्रासन, और सिंहासन—आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  • अभ्यास के दिशा-निर्देश: आसनों का अभ्यास खाली पेट, सचेतनता के साथ, और अत्यधिक बल प्रयोग के बिना किया जाना चाहिए। इन्हें प्राणायाम के साथ मिलाकर अभ्यास करने से इनके प्रभाव में वृद्धि होती है।
  • श्रेणियाँ:
    1. संस्कृतिक/सुधारात्मक आसन: रीढ़, अंगों, मांसपेशियों और जोड़ों को सुधारने के लिए (जैसे धनुरासन, चक्रासन)।
    2. ध्यानात्मक आसन: शांत बैठने और उन्नत योग अभ्यास के लिए (जैसे पद्मासन, सुखासन)।
    3. विश्रामकारी आसन: मानसिक और शारीरिक विश्राम को बढ़ावा देने के लिए (जैसे शवासन, मगरासन)।
आसनों निवारक उपाय के रूप में

पंतजलि के अनुसार, आसन स्थिर और आरामदायक स्थितियाँ हैं, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देती हैं। आसनों का अभ्यास करने से विभिन्न शारीरिक प्रणालियाँ अधिक कुशलता से काम करती हैं, जिससे रोगों की रोकथाम और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने में मदद मिलती है। रोग रोकथाम के लिए आसनों के प्रमुख लाभ:

  • हड्डियों और जोड़ों को मजबूत बनाना: 
    • हड्डियों, लिगामेंट्स को मजबूत करना।  जोड़ों की लचीलापन में सुधार करता है और मुद्रा संबंधी विकारों को रोकता है।
    • आर्थराइटिस और रीढ़ से संबंधित समस्याओं जैसे पीठ दर्द और सियाटिका के उपचार में मदद करता है।
  • पेशीय ताकत का निर्माण: मांसपेशियों की कार्यक्षमता को बढ़ाता है और वसा संचय को रोकता है।
  • रक्त संचार में सुधार:
    • हृदय की मांसपेशियों को मजबूत बनाता है, जिससे स्ट्रोक वॉल्यूम और हृदय आउटपुट में सुधार होता है।
    • रक्तचाप को सामान्य करता है और कोलेस्ट्रॉल को कम करता है, जिससे थकान में कमी आती है।
  • श्वसन क्षमता को बढ़ाना: फेफड़ों की क्षमता को बढ़ाता है और अस्थमा एवं खांसी जैसी स्थितियों की रोकथाम में मदद करता है।
  • पाचन तंत्र की कार्यक्षमता में वृद्धि: पाचन, भोजन के अवशोषण में सुधार करता है, और कब्ज व अपच जैसी समस्याओं को कम करता है।
  • तंत्रिका तंत्र को मजबूत करना: मानसिक शक्ति को बढ़ाता है, चिंता और तनाव को कम करता है, याददाश्त में सुधार करता है, और नींद संबंधी विकारों को कम करता है।
  • ग्रंथि क्रियाओं का नियमन: हार्मोन उत्पादन को संतुलित करता है, जिससे डायबिटीज जैसी स्थितियों में इंसुलिन की मांग कम होती है।
  • उत्सर्जन तंत्र को मजबूत करना: अपशिष्ट उत्पादों के कुशल निवारण में मदद करता है, जिससे थकान में कमी आती है।
  • प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करना: 
    • इम्यूनिटी को बढ़ाता है, जिससे शरीर संक्रामक रोगों के प्रति मजबूत होता है।
    • आसनों का नियमित अभ्यास जीवनशैली से संबंधित रोगों जैसे डायबिटीज, मोटापा, हृदय संबंधी समस्याएँ, आदि के खिलाफ एक प्रभावी निवारक उपाय के रूप में कार्य करता है।

प्राणायाम

स्थूल शरीर का मूल आधार प्राण है जो मृत्युपर्यंत उसके साथ रहता है। प्राणायाम का अर्थ है श्वास का संज्ञानात्मक नियमन, और यह अष्टांग योग का चौथा अंग है। यह नियंत्रित श्वसन तकनीकों को शामिल करता है जो श्वसन, हृदय और तंत्रिका तंत्र को बढ़ावा देते हैं, और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को सशक्त बनाते हैं।

प्राणायाम के मुख्य तत्व:
  • पुरक: नियंत्रित श्वास लेना।
  • रेचक: नियंत्रित श्वास छोड़ना।
  • कुम्भक: श्वास का नियंत्रित रोकना।
प्राणायाम के मुख्य प्रकार:
  1. नाड़ी सोधन (अनुलोम-विलोम): नथुनों के बीच श्वास लेने और छोड़ने के दौरान ऊर्जा चैनलों (नाडियों) को शुद्ध करता है।
  2. शीतली प्राणायाम
  3. उज्जयी प्राणायाम
  4. कपालभाति प्राणायाम
  5. दीर्घ प्राणायाम
  6. भस्त्रिका प्राणायाम
  7. बाह्य प्राणायाम
  8. भ्रमरी प्राणायाम
  9. उद्गीत प्राणायाम
  10. अग्निसार क्रिया
प्राणायाम के लाभ:
  • ऑक्सीजन की आपूर्ति को बढ़ाता है और विषाक्त पदार्थों को समाप्त करता है।
  • स्वायत्त कार्यों को बढ़ावा देता है और ऑक्सीडेटिव तनाव को कम करता है।
  • श्वसन और हृदय स्वास्थ्य में सुधार करता है, रक्तचाप को कम करता है।
  • वजन घटाने में मदद करता है और रक्त संचार को बढ़ाता है।
  • मानसिक विश्राम प्रदान करता है, तनाव, अवसाद और चिंता को कम करता है।
  • अस्थमा, माइग्रेन, तंत्रिका विकारों, और पाचन समस्याओं का प्रबंधन करने में सहायता करता है।
  • एकाग्रता, इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास को मजबूत करता है।
  • नियमित अभ्यास से जीवन की अवधि बढ़ती है और जीवन के प्रति दृष्टिकोण में सुधार होता है।
  • प्राणायाम को दैनिक अभ्यास में शामिल करने से एक शांत और ध्यान केंद्रित मन तथा स्वस्थ शरीर की प्राप्ति होती है।

प्रत्याहार

प्रत्याहार – मन नियंत्रण के लिए इंद्रियों का निष्कासन ( मन पर अंकुश लगाना,  कर्मों में लिप्तता समाप्त कर देना,  आदि विधियाँ  इंद्रियों को विशेष भोगों से दूर करती है, यही प्रत्याहार है)

  • प्रत्याहार, पतंजलि के अष्टांग योग का पाँचवाँ अंग है, जो यम, नियम, आसन, और प्राणायाम के बाद आता है।
  • यह बाहरी वातावरण से जागरूकता को हटाने और इसे आंतरिकता की ओर मोड़ने की प्रक्रिया है।
  • यह बाहरी ध्यान (पहले चार अंग) और आंतरिक ध्यान (धारणा, ध्यान, समाधि) के बीच एक पुल का निर्माण करता है।
  • यह इंद्रियों से होने वाले विक्षेप को कम कर योगिक अभ्यास को गहरा करने में मदद करता है।
  • आत्म-निरीक्षण और अच्छी पुस्तकों का अध्ययन जैसी क्रियाएं प्रत्याहार का समर्थन करती हैं।
  • यह मन को योग के उच्च स्तरों के लिए तैयार करता है, जैसे धारणा (एकाग्रता) और ध्यान (मेडिटेशन)।

धारणा

धारणा – एकाग्रता  (प्राणायाम के द्वारा मन रूपी चंचल अश्व पर लगे अंकुश से मन किसी एक तथ्य तक निहित हो जाता है यही धारणा है)

  • धारणा, पतंजलि के अष्टांग योग का छठा अंग है।
  • यह मन को एक ही वस्तु पर केंद्रित करने की प्रक्रिया है, जो आंतरिक (जैसे चक्र) या बाहरी (जैसे देव ) हो सकती है।
  • यह साधक को अगली अवस्था, ध्यान (मेडिटेशन) के लिए तैयार करती है।
  • धारणा, ध्यान और समाधि के साथ मिलकर समाधि का निर्माण करती है (एकाग्रता के क्रमिक चरण)।
  • नियमित अभ्यास एकाग्रता, शांति, और मानसिक शक्ति को बढ़ाता है।

ध्यान

ध्यान – साधनाध्यान, पतंजलि के योग का सातवाँ अंग है, जो गहरी एकाग्रता और साधना को शामिल करता है।( धारणा किए गए स्थान पर वृत्तियों के प्रवाह के एक रस हो जाने को ध्यान कहते हैं)

  • इसका उद्देश्य सत्य की खोज करना है, जिससे भ्रांति और वास्तविकता के बीच का भेद स्पष्ट होता है।
  • यह पहले के चरणों जैसे आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा पर आधारित है।
  • ध्यान का अभ्यास समाधि (अनंद या दिव्य एकता) की ओर ले जाता है, जो कि अष्टांग का आठवां अंग है।
  • अंतिम अवस्था में (ज्ञान), साधक ध्यान में पूरी तरह से लीन हो जाता है, आत्म-भावना को पार कर जाता है।

समाधि

समाधि – ध्यान की पूर्ण अवस्था ( ध्याता में ध्येय के स्वभाव का  अवेश होना ही समाधि है )

  • समाधि, पतंजलि के अष्टांग योग का आठवाँ और अंतिम अंग है।
  • यह गहरी एकाग्रता की अवस्था का प्रतीक है, जहाँ साधक आत्म-ज्ञान से परे चला जाता है।
  • यह कैवल्य (अकेलापन या मुक्ति) की ओर ले जाती है, जो योग का अंतिम लक्ष्य है।
  • समाधि में, व्यक्ति अपने सत्य आत्मा की पवित्रता को पूरी तरह से अनुभव करता है, संसारिक बंधनों से मुक्त होता है।
सम्प्रज्ञात समाधि

परिभाषा: सम्प्रज्ञात समाधि वह स्थिति है जिसमें चित्त ध्येय विषय (meditative object) में पूरी तरह लीन हो जाता है और उसी का आकार ग्रहण कर लेता है। इस अवस्था में अन्य सभी विषयों का अभाव होता है, केवल एक ध्येय विषय का ज्ञान रहता है।

विशेषताएँ:

  • इसमें चित्तवृत्ति विद्यमान रहती है।
  • चित्त की एकाग्रता किसी विशिष्ट विषय पर आधारित होती है, अतः इसे सबीज समाधि कहा जाता है।
  • इस अवस्था में सम्यक प्रज्ञा का उदय होता है, इसीलिए इसे “सम्प्रज्ञात” कहा गया है।
  • यह समाधि चित्त की उच्चतम ध्यान अवस्था होते हुए भी विषयगत आधार पर टिकी रहती है।
सम्प्रज्ञात समाधि की चार अवस्थाएँ:
  1. सवितर्क समाधि – स्थूल वस्तुओं पर ध्यान।
  2. सविचार समाधि – सूक्ष्म विषयों पर ध्यान।
  3. सानन्द समाधि – आनन्द भाव का अनुभव।
  4. सास्मित समाधि – अहंकार के सूक्ष्म भाव पर ध्यान।
असम्प्रज्ञात समाधि

परिभाषा: यह समाधि की ऐसी अवस्था है जिसमें कोई भी चित्तवृत्ति शेष नहीं रहती। यह चित्त की पूर्ण निरोध अवस्था है, जिसमें चित्त किसी भी विषय पर आधारित नहीं होता।

विशेषताएँ:

  1. इसमें न कोई ध्येय विषय होता है और न ही विषय की स्मृति
  2. चित्त के आलम्बन रूप सभी विषयों का पूर्णतः अभाव होता है।
  3. इसे निर्बीज समाधि (Seedless Samadhi) कहा जाता है क्योंकि इसमें ध्यान का कोई बीज (विषय) नहीं होता।
  4. यह समाधि अविकल्प, निराकार और निर्विशेष अवस्था है।
  5. इस अवस्था में साधक की अहंता, स्मृति और संस्कार भी लीन हो जाते हैं।
  6. अंततः योगी शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

षट्कर्म

षट्कर्म  छः शुद्धि क्रियाऐं  हैं जो शरीर को योग अभ्यास के लिए तैयार करने के लिए निर्धारित हैं।

  1. कपालभाति – ललाटखंड  और फेफड़ों की शुद्धि।
  2. त्राटक – बिना पलक झपकाए देखना।
  3. नेति – नाक की सफाई।
  4. द्योति – पाचन तंत्र और पेट की सफाई।
  5. नौली – पेट की मालिश।
  6. बस्ती – बृहदान्त्र की सफाई।
  • यह त्रि-दोष वात, पित्त और कफ के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करता है;
  • शरीर और दिमाग की रासायनिक कार्यप्रणाली में सुधार;
  • शरीर से विषाक्त पदार्थों को खत्म करता है;
  • शरीर को शुद्ध करता है;
  • आंतरिक प्रणालियों जैसे श्वसन प्रणाली, रक्त परिसंचरण, पाचन और प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती प्रदान करता है।

बंध

बंध – आंतरिक नियंत्रण के अभ्यास। बंध और मुद्रा का अभ्यास अर्ध-स्वैच्छिक और अनैच्छिक मांसपेशियों के नियंत्रण और आंतरिक अंगों के स्वरूप को बढ़ाने के लिए किया जाता है।

जालंधर बंध:

  • इसे गले को संकुचित करके और ठोड़ी को छाती की ओर लाकर किया जाता है, जबकि श्वास रोका जाता है।
  • यह ऊर्जा को संतुलित करने में मदद करता है और एकाग्रता को बढ़ाता है।

उद्दियान बंध:

  • संस्कृत के उन शब्दों से लिया गया है, जिनका अर्थ “उड़ना” या “ऊपर उठना” होता है।
  • इसमें डायाफ्राम को उठाना और इसे छाती के गुहिका में ऊँचा रखना शामिल है।
  • यह डायाफ्राम और पसलियों को मजबूत बनाता है।
  • इसे बैठ कर या खड़े होकर किया जा सकता है।

मूल बंध :

  • यह बंध, जिसे रूट लॉक के नाम से भी जाना जाता है, श्रोणि की मांसपेशियों और मूत्रजननांगी अंगों को उत्तेजित करने के लिए मलाशय में ऊर्जा प्रवाह को निर्देशित करता है।
  • रूट लॉक को सक्रिय करने के लिए, पेरिनेम की मांसपेशियों को अंदर और ऊपर की ओर सिकोड़ें।
  • पुरुषों के लिए, यह वृषण और गुदा के बीच का क्षेत्र है।
  • महिलाओं के लिए, इसमें गर्भाशय ग्रीवा के पीछे श्रोणि तल की मांसपेशियाँ शामिल होती हैं। आप अपनी नाक की नोक को देखकर भी मूल बंध का पता लगा सकते हैं: योगी ऐसा करते समय रूट लॉक को सक्रिय महसूस कर सकते हैं।

महा बंध :

  • यह बंध मूल, उड्डियान और जालंधर बंध का संयोजन है, जिनका अभ्यास एक साथ किया जाता है।
  • महा बंध शुरू करने के लिए, सबसे पहले मूल बंध को सक्रिय करें। पूरी तरह से साँस छोड़ें और फिर जालंधर बंध को सक्रिय करें।
  • अंत में, आगे की ओर झुकें और उड्डियान बंध को सक्रिय करें।
  • महा बंध को मुक्त करने के लिए, प्रत्येक बंध को उल्टे क्रम में खोलें ।

बंधों के लाभ:

  • शरीर की ऊर्जा (प्राण) पर नियंत्रण बढ़ाना।
  • आंतरिक अंगों के कार्य में सुधार करना।
  • ध्यान और एकाग्रता अभ्यास में सहायता करना।
  • शुद्धिकरण
  • ऊर्जा प्रवाह में रुकावटों को दूर करना
  • प्राणिक ऊर्जा को शरीर से बाहर निकलकर वातावरण में जाने से रोकना
  • शरीर के ऊर्जा-समृद्ध क्षेत्रों से ऊर्जा-वंचित क्षेत्रों में प्राण को पुनर्निर्देशित करना
  • कुंडलिनी जागरण आरंभ करने के लिए चक्रों को उत्तेजित करना, जो चेतना की एक विस्तारित अवस्था है
  • स्वयं को संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाना
योग- सकारात्मक जीवन पद्धति

हमारे व्यवहार के शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पहलुओं से संबंधित विभिन्न आयाम हैं। व्यक्तित्व के सभी आयामों के सर्वांगीण विकास के लिए योग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

योग एवं व्यक्तित्व का शारीरिक आयाम

  • आसन, प्राणायाम और बंध शारीरिक विकास में लाभकारी भूमिका निभाते हैं।

योग एवं व्यक्तित्व का भावनात्मक आयाम

  • सकारात्मक भावनाओं और भावनात्मक स्थिरता का विकास। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और ध्यान जैसे योगाभ्यास भावनात्मक प्रबंधन में मदद करते हैं।

योग एवं व्यक्तित्व का बौद्धिक आयाम:

  • आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान (ध्यान) जैसे यौगिक अभ्यास एकाग्रता, स्मृति विकसित करने में मदद करते हैं और इस तरह बौद्धिक विकास में मदद करते हैं।

योग एवं व्यक्तित्व का सामाजिक आयाम:

  • यम के सिद्धांत दूसरों के प्रति सम्मान, दूसरे व्यक्तियों की बात ध्यान से सुनना, अपने विचारों और भावनाओं को विनम्रता, ईमानदारी और स्पष्टता से व्यक्त करना जैसे सामाजिक कौशल को बेहतर बनाने में मदद करते हैं और इस प्रकार हमारे दोस्तों, माता-पिता, शिक्षकों और अन्य लोगों के साथ हमारे संबंधों को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।

योग एवं व्यक्तित्व का आध्यात्मिक आयाम:

  • यम और नियम हमारे नैतिक मूल्यों को विकसित करने में मदद करते हैं जबकि प्राणायाम और ध्यान हमें अपने सच्चे आत्म का एहसास कराने में मदद करते हैं। आत्मनिरीक्षण ‘स्वयं’ के विकास के लिए बहुत प्रभावी है।

जीवन शैली के रूप में योग, भोजन, खान-पान, सोच, मनोरंजन के साधन और आचरण के बारे में दिशा प्रदान करता  है। यौगिक जीवनशैली हमें तनाव से निपटने और शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में सक्षम बनाती है।

योगिक जीवन शैली के घटक हैं –

  • आहार (भोजन) – योग मिताहार पर जोर देता है, जो भोजन की गुणवत्ता और मात्रा के साथ-साथ भोजन के सेवन के दौरान मन की स्थिति से संबंधित है।
  • विहार (विश्राम) – विश्राम व्यायाम, मनोरंजक और रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से किया जा सकता है  जो हमारी भावनाओं को विनियमित और व्यवस्थित करने में मदद करते हैं।
  • आचार (आचरण) – इसमें भावनाएँ, दृष्टिकोण, इच्छाएँ, वृत्ति और आदतें शामिल हैं।
  • विचार (सोच) – हमें अपने विचारों को नियंत्रित करने में मदद करता हैं और इस तरह जीवन में आशावाद को बढ़ावा देता है ।
  • व्यवहार ( या कार्य) – आहार, विहार, आचार और विचार का परिणाम
  • लोगों को योग के प्रति जागरूक करने के लिए योग महोत्सव आयोजित किये जा रहे हैं।
  • सरकार ने योग को एक खेल विधा के रूप में मान्यता दी है और इसे प्राथमिकता श्रेणी में रखा है।
  • योग को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.
  •  कई विश्वविद्यालयों ने योग पर पाठ्यक्रम शामिल किए हैं।
  • आयुष मंत्रालय ने नमस्ते योग ऐप शुरू किया है,एक वन-स्टॉप स्वास्थ्य समाधान, जो लोगों को अपनी उंगलियों पर योग से संबंधित जानकारी, योग कार्यक्रमों और योग कक्षाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाता है।
  • आयुष मंत्रालय ने योग पेशेवरों के स्वैच्छिक प्रमाणीकरण के लिए एक योजना शुरू की है
  • पर्यटक और ई-पर्यटक वीजा के तहत अनुमत गतिविधियों की सूची में “अल्पकालिक योग कार्यक्रम में भाग लेना” शामिल है।
  • योग, एक पूरक चिकित्सा के रूप में और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणाली के तहत एक दृष्टिकोण के रूप में, कई तरीकों से आधुनिक चिकित्सा की प्रभावशीलता को बढ़ाता है और समर्थन करता है:
  • शारीरिक और मानसिक कल्याण: शारीरिक मुद्राओं, सांस नियंत्रण और ध्यान पर योग- शारीरिक शक्ति, लचीलेपन, मानसिक स्पष्टता और भावनात्मक कल्याण को बढ़ावा देकर चिकित्सा उपचार का पूरक है।
  • मानसिक स्वास्थ्य सहायता: योग अभ्यास चिंता और अवसाद के लक्षणों को प्रबंधित करने में मदद करता है, और पारंपरिक मानसिक स्वास्थ्य उपचारों की प्रभावशीलता को बढ़ाते हुए समग्र मानसिक कल्याण को बढ़ावा देता है।
  • दर्द प्रबंधन: योग की गतिविधियां, सांस पर नियंत्रण और सचेतन तकनीक पुराने दर्द की स्थिति के लिए प्रभावी दर्द प्रबंधन रणनीतियां प्रदान करती हैं।
  • हृदय स्वास्थ्य लाभ: शोध से पता चलता है कि योग रक्तचाप को कम कर सकता है, हृदय गति परिवर्तनशीलता में सुधार कर सकता है और हृदय संबंधी जोखिम कारकों को प्रबंधित कर सकता है।
  • बेहतर श्वसन स्वास्थ्य: योग अभ्यास, विशेष रूप से साँस लेने के व्यायाम, श्वसन क्रिया में सुधार करते हैं और श्वसन स्थितियों के प्रबंधन में सहायता करते हैं।
  • कैंसर सहायता: योग कैंसर के उपचार से गुजर रहे व्यक्तियों को सहायता प्रदान करता है, उपचार से संबंधित दुष्प्रभावों को कम करता है और भावनात्मक कल्याण को बढ़ाता है।
  • पुनर्वास और पुनर्प्राप्ति: योग गतिशीलता, शक्ति, आत्मविश्वास में सुधार और तनाव के स्तर को कम करके पुनर्वास प्रक्रिया में सहायता करता है, विश्राम को बढ़ावा देता है और चोटों या सर्जरी से उबरने में सहायता करके शरीर की उपचार और पुनर्प्राप्ति की क्षमता में सुधार करता है।
  1. मोटापा: वज्रासन, पाद हस्तासन, उर्ध्व हस्तासन, त्रिकोणासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन 
  2. मधुमेह: भुजंगासन, पश्चिमोत्तानासन, पवनमुक्तासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन 
  3. अस्थमा: सुखासन, चक्रासन, गोमुखासन, पर्वतासन, भुजंगासन, पश्चिमोत्तानासन, मत्स्यासन 
  4. उच्च रक्तचाप: ताड़ासन, वज्रासन, पवनमुक्तासन, अर्धचक्रासन, भुजंगासन, शवासन 
  5. पीठ दर्द: ताड़ासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, वक्रासन, शलभासन, भुजंगासन
प्राचीनआधुनिक
* मनुष्य ने योग के वास्तविक सार को समझा। योग का उद्देश्य स्वयं को अपने आसपास की दुनिया से जोड़ना था।
* साँस लेने और शरीर, आत्मा और मन को मुक्त करने पर ध्यान केंद्रित किया।
मानसिक स्वच्छता का महत्व समझा
* निष्कर्ष निकाला कि योग का नियमित अभ्यास शरीर और आत्मा को अनावश्यक प्रदूषकों से मुक्त कर देगा।
* योग के बताए गए लाभ फिटनेस, लचीलेपन और शारीरिक विकलांगताओं से छुटकारा पाने तक ही सीमित हैं।
* सिर्फ आसन पर ध्यान; सात पहलुओं की अनदेखी
* अब, पूर्ण योग संस्कृति के प्रसार के लिए योग के पाठ्यक्रम और कक्षाएं।

योगासन के लिए सामान्य नियम

आसन से पहले :
  1. शौच निवृत्ति, आस-पास का वातावरण, शरीर व मन की शुद्धि करना।
  2. योग का अभ्यास खाली पेट करना ठीक रहता है।
  3. अभ्यास के लिए बिछायत चटाई, दरी, कंबल का प्रयोग करना चाहिए।
  4. आरामदायक सूती वस्त्र धारण किए हो तो सरलता रहती है।
  5. थकावट, बीमारी, तनाव व जल्दबाजी की स्थिति में योगासन करने से बचना चाहिए।
  6. यदि पुराने रोग, पीड़ा व हृदय सम्बंधी समस्या हो तो अभ्यास से पूर्व चिकित्सक या योग विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लेना चाहिए।
  7. गर्भावस्था या मासिक धर्म के समय योग से पूर्व योग विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए।
आसन करते समय :
  1. प्रार्थना अथवा स्तुति से मन एवं मस्तिष्क को शिथिल करने एवं वातावरण निर्मित करने में सहयोग मिलता है।
  2. धीरे-धीरे आरामदायक स्थिति में शरीर एवं श्वास-प्रश्वास की सजगता, श्वास गति को बिना रोके करना चाहिए।
  3. शरीर को शिथिल रखना, किसी प्रकार के झटके से बचना चाहिए।
  4. अपनी शारीरिक व मानसिक स्थिति के अनुरूप ही अभ्यास करना चाहिए।
  5. अच्छे परिणाम आने में कुछ समय लगता है इसलिए नियमित अभ्यास, निर्देश, सावधानियों का पालन तथा योग्य प्रशिक्षक की देखरेख में अभ्यास करना चाहिए।
  6. योग सत्र का समापन ध्यान, गहन मौन एवं शांति पाठ के साथ करने से लाभ बढते हैं।
आसन के बाद :
  • अभ्यास के 25-30 मिनट बाद ही स्नान या आहार ग्रहण करना चाहिए।

ताड़ासन

का नाम ताड़ (ताड़ के पेड़) के नाम पर रखा गया है क्योंकि अंतिम आसन में शरीर ताड़ के पेड़ की तरह सीधा खड़ा रहता है। इस आसन का उद्देश्य स्थायित्व प्राप्त करना और शारीरिक दृढ़ता पाना है

  • अभ्यास विधिः
    • सर्व प्रथम पैरों पर खड़े होना चाहिए तथा दोनों पैरों के बीच थोड़ा अंतर रखना चाहिए। दोनों हाथों की अंगुलियों को एक-दूसरे से आपस में मिलाना और ऊपर खींचते हुए, श्वास को शरीर के अंदर ग्रहण करना।
    • पैर की एड़ियों को जमीन से ऊपर उठाना और पैरों की अंगुलियों पर स्वयं का संतुलन बनाना चाहिए। श्वास सहज चलेगा। इस अवस्था में कुछ देर (2 मिनट से धीरे-धीरे 10 मिनट तक ले जाना) रूकना चाहिए।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए, एडियों को वापस जमीन पर लाना चाहिए।
    • अब हाथ की अंगुलियों को अलग-अलग करके, भुजाओं को शरीर के समानान्तर लाना चाहिए।
  • लाभ :
    • इस आसन के निरंतर अभ्यास से शरीर में स्थायित्व, मेरूदण्ड से सम्बन्धित नाड़ियों में रक्त संचार ठीक करने में सहयोग करता है। एक निश्चित उम्र तक लंबाई बढ़ने में सहायक है।
    • हृदय संबंधी समस्याओं, वैरिकोज वेन्स और चक्कर आने की स्थिति में अंगुलियों पर ऊपर उठने से बचना चाहिए।

वृक्षासन:

वृक्ष का अर्थ है पेड़। इस आसन की अंतिम स्थिति एक स्थिर स्थिति है जो एक पेड़ के आकार जैसी होती है, इसलिए इसे यह नाम दिया गया है।

  • अभ्यास विधि
    • वृक्षासन का अभ्यास करते समय सर्वप्रथम दोनों पैरों को एक दूसरे से 2 इंच की दूरी पर रखकर खड़ा होना चाहिए।
    • आखों को सामने किसी बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करें।
    • श्वास को शरीर के बाहर छोड़ते हुए दाएं पैर को मोड़कर उसके पंजे को बाएं पैर की अंदरूनी जाघ पर रखना चाहिए। अभ्यास करते समय ध्यान रखना चाहिए कि एड़ी मूलाधार (पेरिनियम) से मिली होनी चाहिए।
    • श्वास को शरीर के अंदर लेते हुए दोनों हाथों को ऊपर की ओर ले जाकर दोनों हथेलियों को जोड़ना चाहिए।
    • इस स्थिति में 10 से 30 सेकंड तक रहें और सामान्य रूप से श्वास लेते रहना चाहिए।
    • श्वास को शरीर के बाहर छोड़ते हुए हाथों एवं पैरों को मूल अवस्था में वापस लाना चाहिए। शरीर को शिथिल करते हुए इस आसन का अभ्यास पुनः बांये पैर से करना चाहिए।
  • लाभ :
    • तंत्रिका से सम्बन्धित स्नायुओं के समन्वय को बेहतर बनाता है, शरीर को संतुलित बनाता है, सहनशीलता एवं जागरूकता बढ़ाता है।
    • पैरों की मांसपेशियों को गठीला बनाता है और लिगामेंट्स का भी कायाकल्प करता है।

पादहस्तासन

पद का अर्थ है पैर, और हस्त का अर्थ है हाथ। इसलिए,  पादहस्तासन का अर्थ है हथेलियों को नीचे पैर की ओर ले जाना। 

  • अभ्यास विधि :
    • पादहस्तासन का अभ्यास करते समय सर्व प्रथम दोनों पैरों के बीच 2 इंच की दूरी रख सीधे खड़े होना चाहिए।
    • धीरे-धीरे श्वास को शरीर के अंदर खींचते हुए हाथों को ऊपर की ओर ले जाना चाहिए।
    • श्वास को शरीर के बाहर छोड़ते हुए इस प्रकार झुकते रहना चाहिए कि हथेलियां जमीन को स्पर्श करने लगे।
    • इस शारीरिक स्थिति में कुछ देर (10-15 सेकण्ड तक) रूकना चाहिए। श्वास सहज स्थिति में चलेगा।
    • श्वास को शरीर के अंदर खींचते हुए धीरे-धीरे हाथों को सिर के ऊपर तक ले जाना।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए प्रारम्भिक स्थिति में आना चाहिए।
  • लाभः
    • मेरूदण्ड लचीला बनता है, जठराग्नि प्रदीप्त करता है, कब्ज से बचाता है।, थकान दूर करता है।
  • सावधानियाँ
    • हृदय अथवा पीठ से सम्बन्धित समस्याओं में इस आसन के अभ्यास से बचना चाहिए। कमर दर्द तथा डिस्क विकार में भी बचना ठीक रहेगा।

अर्ध चक्रासन 

इस आसन में शरीर का आकार आधे पहिये का आकार ले लेता है इसलिए इसे अर्धचक्रासन कहा जाता है।

  • अभ्यास विधि :
    • दोनों हाथों की सभी अंगुलियों से कमर को पीछे की ओर से पकड़ें। हथेली का पृष्ठ भाग उपर की ओर होना चाहिए।
    • सिर को पीछे की ओर झुकाते हुए ग्रीवा की मांसपेशियों को खींचना चाहिए।
    • श्वास को लेते हुए कटि भाग से पीछे की ओर झुकना चाहिए। श्वास को बाहर छोड़ते हुए शिथिल होना चाहिए।
    • इस स्थिति में 10-30 सेकंड तक रुकें तथा सामान्य रूप से श्वास लेते रहना चाहिए।
    • श्वास को अंदर खींचते हुए धीरे-धीरे प्रारम्भिक अवस्था में वापस लौटना चाहिए।
  • लाभ :
    • अर्ध चक्रासन के अभ्यास से मेरुदण्ड लचीला बनता है तथा मेरुदण्ड से सम्बन्धित नाड़ियां मजबूत बनती हैं।
    • ग्रीवा की मासंपेशियों को मजबूत बनाता है तथा श्वसन क्षमता बढ़ाता है।
    • सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस में सहायता प्रदान करता है।
  • सावधानियां :
    • यदि आपको चक्कर आते हों तो इस आसन का अभ्यास करने से बचें।
    • उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति अभ्यास करते समय सावधानी से पीछे की ओर झुकें।

त्रिकोणासन

चूंकि यह आसन धड़ और अंगों से बने तीन भुजाओं वाले त्रिकोण जैसा दिखता है, इसलिए इसे त्रिकोणासन नाम दिया गया है।

  • अभ्यास विधि :
    • त्रिकोणासन के अभ्यास के समय दोनों पैरो को फैलाकर आराम से खड़ा होना चाहिए।
    • दोनों हाथों को आकाश के समानांतर होने तक धीरे-धीरे उठाना चाहिए।
    • श्वास को शरीर से बाहर छोड़ते हुए धीरे-धीरे दांई तरफ झुकाना चाहिए।
    • झुकने के बाद दायां हाथ दाएं पैर के ठीक पीछे की ओर रखना चाहिए।
    • दायें हाथ को सीधे ऊपर की ओर रखते हुए दायें हाथ की सीध में लाना चाहिए।
    • तत्पश्चात् बांई हथेली को आगे की ओर लाना चाहिए।
    • सिर को घुमाते हुए बांए हाथ की बीच वाली अंगुली को देखना चाहिए।
    • श्वास लेते हुए इस आसन में 10-30 सेकंड तक रुकना चाहिए।
    • श्वास को शरीर के अंदर लेते हुए प्रारम्भिक अवस्था में वापस आना चाहिए।
    • इस आसन को दूसरी ओर से भी करना चाहिए।
  • लाभ
    • पैर के तलवों से सम्बन्धित विसंगतियों से बचाता है।
    • जांघों और कटि भाग की मांसपेशियों को मजबूत बनाता है।
    • कटिभाग को लचीला बनाता है तथा फेंफडों की कार्य क्षमता को बढ़ाता है।
  • सावधानियां
    • स्लिप डिस्क, सायटिका एवं उदर की शल्यक्रिया होने की अवस्था में यह आसन करने से बचना चाहिए।

शशांकासन

शशांक का अर्थ खरगोश होता है। इस मुद्रा में शरीर खरगोश का आकार लेता है, इसलिए इसे यह नाम दिया गया है 

  • अभ्यास विधि :
    • सर्व प्रथम वज्रासन में बैठना चाहिए।
    • दोनों पैरों के घुटनों को एक दूसरे से दूर फैलाना चाहिए।
    • इस प्रकार बैठे कि पैरों के अंगूठे एक दूसरे से मिले होने चाहिए।
    • दोनों हथेलियां को घुटनों के बीच पृथ्वी पर रखना चाहिए।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए दोनों हथेलियों को सामने की ओर स्वयं से दूर ले जाना चाहिए।
    • आगे की ओर झुकते हुए ठुड्डी को जमीन पर रखना चाहिए।
    • दोनों भुजाओं को समानान्तर रखना चाहिए।
    • सामने की ओर देखें और यह स्थिति बनाए रखें।
    • श्वास को अंदर खींचते हुए पीछे की ओर आना चाहिए
    • सामने की ओर देखें और यह स्थिति बनाए रखें।
    • श्वास को अंदर खींचते हुए पीछे की ओर आना चाहिए।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए वज्रासन में वापस लौटना चाहिए।
    • पैरों को पीछे खींचकर विश्रामासन में वापस लाना चाहिए।
  • लाभ :
    • शशांकासन का अभ्यास तनाव, क्रोध आदि को कम करने में सहायक है।
    • यह जनन अंग सम्बन्धी व्याधि एवं कब्ज से मुक्ति दिलाता है।
    • पाचन क्रिया सम्बन्धी व्याधि एवं पीठ दर्द से मुक्ति दिलाता है।
  • सावधानियां :
    • अधिक पीठ दर्द में इस अभ्यास को नहीं करना चाहिए।
    • घुटनों से सम्बन्धित ऑस्टियोआर्थराइटिस से पीड़ितों को सावधानी पूर्वक इस अभ्यास को करना चाहिए या वज्रासन से बचना चाहिए।

वक्रासन 

वक्र का अर्थ है मुड़ा हुआ। इस आसन में रीढ़ की हड्डी मुड़ जाती है; इसी कारण से इस आसन को वक्रासन कहा जाता है।

  • अभ्यास विधि :
    • सर्वप्रथम दांए पैर को मोडते हुए उसके पंजे को बाएं घुटने के बाजू में रखना चाहिए।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए शरीर को दांई तरफ घुमाए।
    • बांए हाथ को दाएं घुटने के पास लाएं और दाएं पैर के अंगूठे को पकड़ ले।
    • हथेली को दाएं पैर के पास रखे।
    • दाएं हाथ को पीछे ले जाएं और हथेली को जमीन पर रखे।
    • इस स्थिति में 10-30 सेकण्ड के लिए रहें।
    • सामान्य श्वास-प्रश्वास लेते रहें और शरीर को शिथिल रखना चाहिए।
    • श्वास को बाहर छोड़ते हुए अपने हाथ हटा ले और शिथिल हो जाएं।
    • इस अभ्यास क्रम को दूसरी तरफ से भी दोहराना चाहिए।
  • लाभ :
    • शरीर में कार्य करने की क्षमता को नया जीवन मिलता है।
    • मेरूदण्ड लचीला बनता है।
    • पैनक्रियाज की शक्ति बढ़ाता है, मधुमेह से बचाता है।

पार्श्वकोणासन

इस आसन की अंतिम मुद्रा में शरीर एक पार्श्व कोण बनाता है, इसलिए इसे पार्श्वकोणासन कहा जाता है।

पद्मासन

यह आसन एक पारंपरिक आसन है। इस आसन में पैर कमल की पंखुड़ियों के आकार के दिखते हैं। इसीलिए इसे पद्मासन कहा जाता है।

वज्रासन:

वज्र का अर्थ है अडिग। ऐसा माना जाता है कि इसके अभ्यास से शरीर अकड़न जैसा हो जाता है। इसे ध्यान मुद्रा माना जा सकता है। ध्यान के प्रयोजनों के लिए इसका अभ्यास करते समय, छात्रों को अंतिम चरण में अपनी आँखें बंद कर लेनी चाहिए। यह एकमात्र ऐसा आसन है जिसका अभ्यास भोजन करने के तुरंत बाद किया जा सकता है।

अर्धमत्स्येन्द्रासन

  • अर्धमत्स्येन्द्रासन का नाम महान योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नाम पर रखा गया है । 
  • एक नौसिखिया के लिए इस आसन के पूर्ण संस्करण में महारत हासिल करना बहुत कठिन है,इसलिए इसमें संशोधन किया गया है ।इस संशोधित संस्करण को अर्धमत्स्येन्द्रासन कहा जाता है। 
  • मत्स्येन्द्र एक हठ योगी का नाम है ऐसा कहा जाता है कि इस आसन में सिद्धि प्राप्त की, तो इसका पूर्ण संस्करण  मत्स्येन्द्रासन के नाम से जाना जाता है। 

गोमुखासन

संस्कृत भाषा में, ‘गोमुख’ का अर्थ है ‘गाय का चेहरा’। इस आसन में,पैर की स्थिति गोमुख का आकार लेती है, इसलिए इसका नाम गोमुखासन पड़ा ।

उष्ट्रासन 

उष्ट्र का अर्थ है ऊँट। इस मुद्रा में शरीर ऊँट की मुद्रा सदृश होता है इसलिए यह नाम दिया गया है।

पश्चिमोत्तानासन

पश्चिम का अर्थ है पीछे की ओर और उत्तान का अर्थ है फैला हुआ। इस आसन में रीढ़ की हड्डी सहित शरीर के पिछले हिस्से में खिंचाव होता है, इसलिए इसे यह नाम दिया गया है।

सेतुबंधासन

सेतुबंध का अर्थ है पुल का निर्माण। इस आसन में शरीर एक पुल की तरह स्थित होता है। सेतु का अर्थ है पुल और बंध का अर्थ है बांधना। इस आसन में शरीर एक पुल संरचना का अनुकरण करता है

पवनमुक्तासन

‘पवन’ का अर्थ है हवा और ‘मुक्त’ का अर्थ है छोड़ा हुआ। जैसा कि नाम से पता चलता है,इस आसन के अभ्यास से शरीर से अत्यधिक गैस बाहर निकलने में मदद मिलती है। यह आसन जब एक पैर से किया जाता हैं तो एकपाद पवनमुक्तासन कहलाता है।

सुप्तवज्रासन

सुप्तवज्रासन वज्रासन का ही आगे का विकास है। सुप्तवज्रासन का अर्थ है वज्रासन में लेटना; इसलिए इसका नाम सुप्तवज्रासन रखा गया है।

शलभासन

शलभ का अर्थ टिड्डी होता है। इस आसन की अंतिम स्थिति में शरीर टिड्डे के आकार जैसा दिखता है, इसलिए इसे यह नाम दिया गया है।

विपरीतकरणी

संस्कृत के अनुसार,विपरीत का अर्थ है ‘उल्टा’ और करणी का अर्थ है ‘करना’, जिसके द्वारा इस आसन में शरीर की स्थिति सामान्य से विपरीत (सिर नीचे की ओर और पैर ऊपर की ओर)होती है ।इस प्रकार इस आसन का नाम विपरीतासन पड़ा। 

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