भारत में समाजशास्त्रीय विचारों का विकास भारतीय संदर्भ में समाजशास्त्र को एक अनुशासन के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया को दर्शाता है। यह प्रारंभिक विद्वानों, सामाजिक सुधारकों के योगदान और भारत में समाजशास्त्रीय चिंतन को आकार देने में स्वदेशी व पश्चिमी दृष्टिकोणों के प्रभाव का अनुसरण करता है।
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वर्ष | प्रश्न | अंक |
2018 | सामाजिक विचारधारा क्या है? | 2M |
2016 Special | उन चार भारतीय समाजशास्त्रियों के नाम बताइए जिन्होंने भारतीय समाजशास्त्र में अग्रगामी योगदान दिया है । | 2M |
समाजशास्त्र क्या है?
- ऑगस्टे कॉम्टे:– “सामाजिक विज्ञान वह विज्ञान है जो सामाजिक घटनाओं को प्राकृतिक और वैज्ञानिक बनाता है तथा नियमों के अधीन मानता है, जिनकी खोज अनुसंधान का उद्देश्य है।”
- किन्सले डेविस:– “समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है।”
- एम. जॉनसन:– “सामाजिक विज्ञान वह विज्ञान है जो सामाजिक समूहों, उनके आंतरिक स्वरूप या संगठन के मॉडल, उन प्रक्रियाओं को जो इन संगठनों को बनाए रखने या बदलने की प्रवृत्ति रखती हैं, और समूहों के बीच संबंधों से संबंधित है।”
- जी.एस. घुर्ये:– “समाजशास्त्र समग्र रूप से सामाजिक संबंधों, संस्थाओं और समाज का व्यवस्थित अध्ययन है।”
- एम.एन. श्रीनिवास:– समाजशास्त्र सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है, जिसमें समय के साथ सामाजिक संस्थाएँ कैसे विकसित और परिवर्तित होती है, शामिल है।
- गिलिन और गिलिन:– “समाजशास्त्र व्यापक अर्थ में व्यक्तियों के एक – दूसरे के संपर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अंतःक्रियाओं का अध्ययन कहा जा सकता है।”

- क्रिया + प्रतिक्रिया = अंतःक्रिया
- अंतःक्रिया + उद्देश्य + स्थायित्व = सामाजिक संबंध
- सोसियस (लैटिन) – साथी, सहयोगी, समाज
- लोगस (ग्रीक) – का अध्ययन
- शाब्दिक अर्थ – समाजशास्त्र, समाज का अध्ययन है।
प्रारंभिक भारतीय समाजशास्त्रीय विचारधारा

- प्राचीन ग्रंथ: वेदों,उपनिषदों और मनुस्मृति ने सामाजिक व्यवस्थाओं ,भूमिकाओं और पदानुक्रम को प्रारंभिक स्वरुप प्रदान किया।
- दार्शनिकों का योगदान: बुद्ध और महावीर जैसे विचारकों ने नैतिकता,सामाजिक समानता पर अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
- मध्यकाल: संतों और कवियों जैसे कबीर,गुरु नानक और भक्ति आंदोलन के नेताओं ने जाति पदानुक्रम की आलोचना की और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया।
औपनिवेशिक काल
- ब्रिटिश प्रभाव : भारत में पश्चिमी शिक्षा और सामाजिक विज्ञान की शुरुआत।
- जनगणना और सर्वेक्षण : भारतीय समाज पर व्यवस्थित रूप से डेटा संग्रहण;जिससे समाजशास्त्रीय अध्ययन में सहायता प्राप्त हुई।
- सामाजिक सुधार आंदोलन : राजा राम मोहन राय, ज्योतिराव फुले और ई.वी. रामास्वामी (पेरियार) इत्यादि सुधारकों ने सती प्रथा, जातीय भेदभाव और बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कार्य किया।
समाजशास्त्र का उद्भव
- विभिन्न बौद्धिक और सामाजिक प्रभावों ने मिलकर समाजशास्त्र के विकास को एक वैज्ञानिक विषय के रूप में आकार दिया।
- 18-19 वीं शताब्दी में यूरोप में हुए सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक परिवर्तनों ने एक ऐसे विषय की आवश्यकता पैदा की जो सामाजिक व्यवस्थाओं का वैज्ञानिक अध्ययन कर सके।
वैश्विक परिस्थिति में वे उल्लेखनीय परिवर्तन जिनके कारण समाजशास्त्र का विकास हुआ, वे हैं –
यूरोप में व्यापारिक क्रांति
- व्यवसायों का वैश्वीकरण
- अर्थव्यवस्था एवं बैंकिंग प्रणाली का विकास
- मध्यम वर्ग का उदय
- कागजी मुद्रा का विकास
- पुनर्जागरण के आगमन के साथ वैज्ञानिक क्रांति की शुरुआत
प्रबोधन – (14वीं-18वीं सदी )
- समाज के प्राथमिक मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, लोकतंत्र और तार्किकता जैसे महत्वपूर्ण विचारों का स्रोत।
- मौजूदा पारंपरिक विश्व-दृष्टिकोण में निहित अवधारणाओं को चुनौती दी, यह एक बौद्धिक आंदोलन था जिसमें रूसो, वाल्टेयर, मोंटेस्क्यू आदि जैसे कई दार्शनिक शामिल थे।
फ्रांसिसी क्रांति (1789 AD)
- स्वतंत्रता,समानता ,बंधुत्व का विचार उभर कर सामने आया ।
- राजतंत्र का अंत, स्वतंत्रता व लोकतंत्र की स्थापना हुई।
- अनेक बुद्धिजीवियों एवं दार्शनिकों का योगदान ।
औद्योगिक क्रांति (18th- 19th सदी ) – इंग्लैंड मे प्रारंभ हुई।
- तकनीकी उन्नति से विनिर्माण प्रकिया में बदलाव ।
- नागरिकों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तन
- औद्योगिक श्रमिकों के नए वर्ग का उदय ।
- मशीनीकरण से उत्पादन बढ़ने के साथ पूंजीवाद का विकास हुआ।
नोट:- ‘ऑगस्त काॅम्टे’ ने 1838 में सर्वप्रथम समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया। उन्हें समाजशास्त्र का जनक माना जाता है और वे चाहते थे कि यह नया विज्ञान, भौतिक विज्ञान के अध्ययन के तरीकों को अपनाए।
भारत में समाजशास्त्र
समाजशास्त्र का विकास:
- प्रथम चरण : 1773 -1900
- अंग्रेजों ने भारतीय समाज को समझने की कोशिश की।
- 1774 → विलियम जोन्स → रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल
- दूसरा चरण: 1901-1950
- पेशेवर समाजशास्त्री जैसे- हर्बर्ट रिस्ले (आदिवासी जाति सातत्य)
- बॉम्बे विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्यापन (1919) प्रारंभ
- प्रमुख सहयोग→जी.एस. घुर्ये, राधाकमल मुखर्जी, डी.पी. मुखर्जी
- तीसरा चरण: 1950 से अब तक
- विस्तार का चरण, एम.एन. श्रीनिवास आदि
- स्वतंत्र भारत → नीति निर्माण में सामाजिक विज्ञान की भूमिका
भारतीय समाजशास्त्रियों का उदय
शुरुआत में, कई भारतीय संयोगवश समाजशास्त्री और मानवशास्त्री बन गए। भारत में सामाजिक एंथ्रोपोलॉजी के दो प्रमुख अग्रदूत, एल.के. अनंतकृष्ण अय्यर (1861-1937) और शरत चंद्र रॉय (1871-1942) इस प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।
- एल.के. अनंतकृष्ण अय्यर:
- क्लर्क के रूप में अपना करियर शुरू किया।
- स्व-प्रशिक्षित अन्वेषक : संभवतः भारत में पहले स्व-प्रशिक्षित मानवविज्ञानी, जिनको राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई।
- मानवविज्ञान में औपचारिक योग्यता न होने के बावजूद, उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस के एथनोलॉजी अनुभाग का अध्यक्ष चुना गया।
- शरत चंद्र रॉय:
- वकील, अंग्रेजी में स्नातकोत्तर।
- वकील होने के कारण आदिवासी रीति-रिवाजों और कानूनों की व्याख्या करनी पड़ी, जिससे आदिवासी समाज में उनकी गहरी रुचि पैदा हुई।
- कार्य: 1922 में “मैन इन इंडिया” नामक पत्रिका की स्थापना की।
अनंतकृष्ण अय्यर और शरत चंद्र रॉय दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में संयोगवश लेकिन सच्चे अग्रदूत थे।
परवर्ती भारतीय समाजशास्त्री
- औपनिवेशिक काल के दौरान चार भारतीय समाजशास्त्री उभरे, जिन्होंने भारत की आज़ादी के बाद भी अपना अध्ययन जारी रखा।
- जी.एस. घुर्ये
- डी.पी. मुखर्जी
- ए.आर. देसाई
- एम.एन. श्रीनिवास
- 1920 और 1950 के दशक के बीच, भारत में समाजशास्त्र बम्बई और लखनऊ, दो प्रमुख विभागों तक सीमित था ।इस अवधि के दौरान मुंबई विभाग का नेतृत्व जी.एस. घुर्ये द्वारा किया जा रहा था, जबकि लखनऊ विभाग में तीन प्रमुख व्यक्ति थे, जो प्रसिद्ध ‘त्रयी’ के रूप में जाने जाते थे:
- राधाकमल मुखर्जी (संस्थापक)
- डी.पी. मुखर्जी
- डी.एन. मजूमदार।
1914 | मुंबई विश्वविद्यालय में वैकल्पिक विषय के रुप में |
1919 | पैट्रिक गोडिस की अध्यक्षता में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना। |
1917 | 1917 में बृजेन्द्र नाथ सिंह के नेतृत्व में ऐच्छिक विषय के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र को आरंभ किया गया था। |
1921 | लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की शुरुआत। |
1923 | आंध्र व मैसूर विश्वविद्यालय में शुरुआत। |
1939 | इरावती कर्वे की अध्यक्षता में पुणे विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की गई। |
1952 | संपूर्ण भारत के समाजशास्त्रियों को जोड़ने के लिए इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी का गठन किया गया। |
समाजशास्त्रीय विचारों का विकास: अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र
- अनुसंधान और प्रशिक्षण के लिए विभिन्न केंद्र स्थापित किये गये, जिन्होंने समाजशास्त्र को एक अलग विषय के रूप में विकसित करने के लिए कार्य किया।
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- भारतीय समाजशास्त्रीय सोसाइटी।
- टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क,लखनऊ
- टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,बॉम्बे
- सामाजिक विज्ञान संस्थान,आगरा
समाजशास्त्री
मैसूर नरसिम्हाचार श्रीनिवास

एम.एन. श्रीनिवास को भारत में समाजशास्त्रीय और सामाजिक मानवविज्ञान अनुसंधान में संरचनात्मक-कार्यात्मक विश्लेषण के नए दृष्टिकोण का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। उनके कार्य को निम्नलिखित श्रेणियों के तहत व्यवस्थित और विश्लेषित किया जा सकता है :-
- सामाजिक परिवर्तन
- ब्राह्मणीकरण,संस्कृतीकरण (धार्मिक + लौकिक), पश्चिमीकरण (प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक) और लौकिकीकरण
- संस्कृतीकरण – पूर्वानुमानात्मक समाजीकरण का मामला (कुर्ग)
- जब सम्पूर्ण समूह को सामाजिक गतिशीलता प्राप्त होती है (संस्कृतीकरण)
- धर्म और समाज
- ‘ब्राह्मणीकरण’ की अवधारणा दी ,जो बाद में ‘संस्कृतीकरण’की व्यापक अवधारणा में विकसित हुई।
- पश्चिमीकरण
- ग्राम अध्ययन
- वह गांव को भारतीय समाज और सभ्यता का लघु रूप मानते हैं।
- रामपुर (गाँव) – प्रबल जाति
- जाति
- ‘प्रबल जाति’ (Dominant Caste)
अन्य योगदान :
- यूरोप केंद्रित सिद्धांतों को चुनौती दी, स्वदेशी ढांचे की वकालत की (“भारत सामाजिक संरचना”).
- अन्य समाजशास्त्रियों को भारत में अनुसंधान हेतु प्रभावित किया
- दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और बड़ौदा विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की; इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
- जातिगत गतिशीलता जैसे तत्कालीन सामाजिक मुद्दों से जुड़े।
- समाजशास्त्रीय अनुसंधान में गांवो के अध्ययन के महत्व पर जोर दिया गया(“विलेज,कास्ट,जेण्डर एण्ड मैथड”;”‘भारतीय गाँव”).
- “आधुनिक भारत में जाति” और “आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन” जैसी प्रभावशाली रचनाएँ प्रकाशित
मुख्य कृतियां- { Books name 2 marker me Important h}
- मैसूर में विवाह और परिवार
- दक्षिण भारत के कुर्ग में धर्म व समाज
- संस्कृतिकरण व पश्चिमीकरण
- आधुनिक भारत में जाति व अन्य लेख
- आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन
- दि रिमेम्बर्ड विलेज
- प्रभुत्व जाति व अन्य लेख
- द कोहेसिव रोल ऑफ संस्कृताईजेशन
- विलेज,कास्ट,जेण्डर एण्ड मैथड: भारतीय सामाजिक मानवविज्ञान पर लेख
गोविन्द सदाशिव घुर्ये

‘भारतीय समाजशास्त्र के जनक‘ के रूप में प्रख्यात।
योगदान: उनके समस्त कार्यों को निम्नलिखित व्यापक क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- जाति → पुस्तक- “भारत में जाति और नस्ल”।
- जनजाति → वे ‘पिछड़ी जाति के हिंदू’ के अलावा कुछ नहीं हैं।
- रिश्तेदारी,परिवार और विवाह:
- हमारे समाज में 3 प्रकार के विवाह प्रतिबंध हैं, जो जाति और रिश्तेदारी के बीच संबंध को आकार देते हैं।
- ये हैं अंतर्विवाह,बहिर्विवाह और अतिविवाह।
- संस्कृति,सभ्यता और शहरों की ऐतिहासिक भूमिका
- ग्रामीण शहरीकरण (ग्रामीण + शहरीकरण) का विचार
- सभ्यता और संस्कृति :
- संस्कृति के विकास पर दो परस्पर विरोधी विचार हैं: एक इसे स्वतंत्र रूप से बढ़ते हुए देखता है, जबकि दूसरा इसे प्रसार के माध्यम से बढ़ते हुए देखता है।
- धर्म (संस्कृति विरासत का केंद्र) → भारतीय साधु
- संघर्ष और एकीकरण का समाजशास्त्र
- “घुर्ये की प्रभावशाली त्रयी पुस्तकों में
- “भारत में सामाजिक तनाव (1968)”
- “भारत कहाँ है “(1974), और
- “भारत लोकतंत्र को फिर से बनाता है “(1978) शामिल हैं।”
मुख्य कृतियां– { Books name 2 marker me Important h}
- कास्ट एण्ड रेस इन इंङिया
- कलचर एण्ड सोसाइटी
- कास्ट ,क्लास एण्ड ओक्युपेशन
- सिटीज एण्ड सिविलाईजेशन
- दि शिड्यूलड ट्राइब्ज
- दि इंडियन साधुज
- सोशियल टेन्शन्स इन इंडिया
- विदर इंडिया
- इंडिया रिक्रियेट्स डेमोक्रेसी
- वैदिक इंडिया
राधा कमल मुखर्जी

योगदान –
- उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में अनुसंधान और प्रशिक्षण हेतु एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
- उनके योगदान से समाजशास्त्र की नई शाखा ‘मूल्यों का समाजशास्त्र’ का विकास हुआ।
- उन्होंने सार्वभौमिक सभ्यता और समुदायों के समुदाय की अवधारणा पर चर्चा की।
- उन्होंने आर्थिक लेन-देन और सामाजिक व्यवहार और शहरी सामाजिक समस्याओं के बारे में बात की।
केंद्रीय विचार
- 1.आर्थिक और सामाजिक व्यवहार के बीच संबंध
- भारत में,आर्थिक लेन-देन विशुद्ध रूप से बाजार की शक्तियों के बजाय जाति और धार्मिक मानदंडों से गहराई से प्रभावित होते हैं।
- 2.सामाजिक पारिस्थितिकी
- सामाजिक पारिस्थितिकी की उनकी अवधारणा पारिस्थितिक क्षेत्रों को आकार देने में भूवैज्ञानिक, भौगोलिक, जैविक और सामाजिक कारकों के बीच परस्पर क्रिया पर विचार करती है।
- 3.वनों के संरक्षण की दलील
- 4.शहरी सामाजिक समस्याओं के लिए एक सुधारात्मक दृष्टिकोण
- 5.मूल्यों का सिद्धांत
- तथ्य और मूल्य मानवीय अंतःक्रियाओं में जुड़े हुए हैं, जहाँ खाने या कपड़े पहनने जैसी सरल क्रियाएँ भी मूल्यों द्वारा आकार लेती हैं।
- 6.भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता
- 7.मुखर्जी की सार्वभौमिक सभ्यता की अवधारणा
मुख्य कृतियां-
- रुरल इकॉनोमी ऑफ इंडिया,1926
- रिजनल सोशियोलॉजी,1926
- दी लैण्ड प्राब्लमस ऑफ इंडिया,1927
- इन्ट्रोडक्शन ऑफ सोशियल साइक्लॉजी,1928
- सोशियोलॉजी ऑफ मैसटीसिजम,1931
- मेन एंड हीज हैबिटेशन,1940
- इंडियन वर्किंग क्लास,1945
- दी सोशियल स्ट्रक्चर ऑफ वैल्यूज,1949
- इन्टर कास्ट टेंशन,1951
- दी डेस्टिनी ऑफ सिविलाईजेशन,1964
अक्षय रमन लाल देसाई

योगदान–
- राज्य की अवधारणा के बारे में चर्चा की और भारतीय समाज को पूंजीवादी बनाने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवाद को उत्तरदायी माना।
- भारतीय ग्रामीण राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया।
- ग्रामीण सामाजिक संरचना, सामाजिक-आर्थिक नीतियों और राज्य तथा समाज की संरचना का विश्लेषण किया।
- भारत में राष्ट्रीय आंदोलन और किसान संघर्षों के क्षेत्र में योगदान के विषय मे लिखा ।
- उन्होंने डी. पिल्लई के साथ ‘स्लम्स एंड अर्बनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पर एक पुस्तक लिखी।
मुख्य कृतियां–
- सोशयल बैकग्राउंड एंड इंडियन नेशन्लिजम
- रिसेन्ट ट्रेंड इन इंडियन नेशन्लिजम
- रुरल सोशियोलॉजी इन इंडिया
- स्टेट एंड सोसाइटी इन इंडिया
- पीजेन्ट स्ट्रगल इन इंडिया
- इंडियाज पाॅथ ऑफ डवलपमेंट
- अग्ररियन स्ट्रगल इन इंडिया आफ्टर इंडिपेंडेन्स
भारत में वर्गों पर विचार:
- दो वर्ग: स्वामी और सेवक।
- सेवक वर्ग, नैतिक और सामाजिक रूप से स्वामी वर्ग की सेवा करने के लिए बाध्य है। यह संबंध द्वंद्वात्मक आर्थिक संबंध है, जिसकी तुलना पश्चिम में दास प्रथा से की जा सकती है।
जाति के जन्म पर → आर्यन आक्रमण
धुर्जति प्रसाद मुखर्जी

योगदान –
- भारतीय समाजशास्त्र की विषयवस्तु एवं अध्ययन पद्धति पर चर्चा की।
- परंपराओं को भारतीय समाजशास्त्र की विषय वस्तु माना तथा भारतीय परंपराओं एवं संस्कृति को प्रभावित करने वाली आंतरिक एवं बाह्य चुनौतियों की चर्चा की।
- साहित्य के क्षेत्र में योगदान दिया,कई लेख व उपन्यास लिखें।मध्यम वर्ग की भूमिका,आधुनिक भारतीय संस्कृति और आधुनिकीकरण पर भी चर्चा की गई।
- ”भारतीय इतिहास“ नामक पुस्तक में भारतीय इतिहास के संविधान पर चर्चा की।
- वे स्वयं को मार्क्सवादी कहते थे और भारतीय समाज का विश्लेषण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से करते थे।
मुख्य कृतियां–
- व्यक्तित्व और सामाजिक विज्ञान
- समाजशास्त्र की मूल अवधारणाएँ
- आधुनिक भारतीय संस्कृति
- भारतीय युवकों की समस्याएँ
- टैगोर: एक अध्ययन
- विचार और प्रतिविचार
- विविधताएँ
समाजशास्त्र का भारतीयकरण
इन चार भारतीय समाजशास्त्रियों ने नव स्वतंत्र और आधुनिकीकृत भारत के संदर्भ में समाजशास्त्र को एक विशिष्ट चरित्र देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।वे उन विविध तरीकों का उदाहरण देते हैं जिनमें समाजशास्त्र का ‘भारतीयकरण’ किया गया था
- जी.एस. घुर्ये:
- पश्चिमी मानवविज्ञानियों द्वारा तैयार किए गए सवालों से शुरुआत हुई।
- शास्त्रीय भारतीय ग्रंथों के अपने गहन ज्ञान और शिक्षित भारतीय मत की समझ से इन प्रश्नों को समृद्ध किया।
- डी.पी. मुखर्जी:
- वे पूर्णतः पश्चिमीकृत बौद्धिक पृष्ठभूमि से आये थे।
- भारतीय परंपरा के महत्व को फिर से खोजा, साथ ही उसकी कमियों को भी पहचाना।
- ए.आर. देसाई:
- मार्क्सवाद से अत्यधिक प्रभावित।
- ऐसे दौर में भारतीय राज्य के बारे में आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जब ऐसी आलोचना असामान्य थी।
- एम.एन. श्रीनिवास:
- सामाजिक नृवंशविज्ञान के अग्रणी पश्चिमी केंद्रों में प्रशिक्षित।
- अपने प्रशिक्षण को भारतीय संदर्भ के अनुरूप ढाला और 20वीं सदी के अंत में समाजशास्त्र के लिए एक नया एजेंडा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संबंधित बिंदु
सामाजिक विचार
- सामाजिक घटनाओं को समझने और समझाने के लिए विचारकों और दार्शनिकों द्वारा विकसित विचारों और सिद्धांतों के समूह से संबंधित।
- यह इतिहास, दर्शन, साहित्य और अन्य विषयों से लिया गया है, जो इसे अंतःविषय बनाता है।
- समय के साथ हुए सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तनों को दर्शाता है और इसमें विभिन्न संस्कृतियों और युगों -युगों के विविध दृष्टिकोण शामिल हैं।
- सामाजिक समस्याओं की जाँच करने और सामाजिक जीवन की समस्याओं पर प्रतिक्रिया करने में पूर्व में की गई गलतियों से बचने के लिए महत्वपूर्ण है।
- महत्वपूर्ण विचारकों में जैसे – प्लेटो, अरस्तू, कन्फ्यूशियस और प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के अन्य महत्वपूर्ण योगदानकर्ता शामिल हैं।
समाजशास्त्रीय विचारधारा
- सामाजिक विचारधारा की एक विशिष्ट शाखा जो समाजशास्त्र के माध्यम से समाज को समझने पर केंद्रित है।
- वैज्ञानिक तरीकों और अनुभवजन्य अनुसंधान का उपयोग करके व्यवस्थित अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करता है।
- सामाजिक संस्थाओं, संरचनाओं, संबंधों और सामाजिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करता है।
- सैद्धांतिक रूपरेखाओं के महत्व पर बल देते हुए, सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए सिद्धांतों और अवधारणाओं का उपयोग करता है।
- प्रमुख योगदानकर्ताओं में शामिल हैं:ऑगस्ते कॉम्टे, जिन्होंने ‘समाजशास्त्र’ शब्द दिया ;कार्ल मार्क्स, जिन्होंने वर्ग संघर्ष की जांच की;एमिल दुर्खीम का सामाजिक एकजुटता पर काम और मैक्स वेबर का नौकरशाही का विश्लेषण।
- एम.एन. श्रीनिवास और जी.एस. घुर्ये,जैसे भारतीय समाजशास्त्रियों के योगदान पर प्रकाश डाला गया। समाजशास्त्रीय चिंतन में वैश्विक और स्थानीय दृष्टिकोण पर जोर देना शामिल है।
- भारतीय समाजशास्त्री जैसे एम.एन. श्रीनिवास और जी.एस. घुर्ये ने समाजशास्त्रीय चिंतन में वैश्विक और स्थानीय दृष्टिकोण पर जोर दिया।
सामाजिक संरचना
- परिभाषा: सामाजिक संबंधो और संस्थाओं का संगठित प्रारुप
- घटक: स्थितियाँ, भूमिकाएँ, संस्थाएँ, सामाजिक समूह।
- कार्य: समाज में व्यवस्था और पूर्वानुमेयता बनाए रखता है।
समाजीकरण
- परिभाषा: सामाजिक मानदंडों और मूल्यों को सीखने और आत्मसात करने की प्रक्रिया।
- एजेंट: परिवार, स्कूल, साथी, मीडिया।
- परिणाम: व्यक्तिगत पहचान और सामाजिक कौशल का विकास।
सामाजिक परिवर्तन
- परिभाषा: समय के साथ संस्कृति, व्यवहार, सामाजिक संस्थाओं का परिवर्तन।
- कारण: तकनीकी नवाचार, आर्थिक बदलाव, राजनीतिक आंदोलन।
- प्रभाव: सभी सामाजिक पहलुओं को प्रभावित करते हुए क्रमिक या क्रांतिकारी हो सकता है।
सामाजिक स्तरीकरण
- परिभाषा: समाज में व्यक्तियों की पदानुक्रमित व्यवस्था।
- आधार: जाति, वर्ग, नस्ल, लिंग, जातीयता।
- प्रभाव: संसाधनों और अवसरों तक पहुंच में भेदभाव।
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