भारतीय समाज के समक्ष चुनौतियाँ समाज शास्त्र में एक महत्वपूर्ण विषय है, जो सामाजिक असमानता, गरीबी, जातिगत भेदभाव और पर्यावरणीय समस्याओं जैसी अनेक बाधाओं को दर्शाता है। समाज की प्रगति के लिए इन चुनौतियों को समझना और उनका समाधान खोजना आवश्यक है, ताकि एक समावेशी और सतत विकासशील समाज का निर्माण हो सके।
दहेज
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2023 | दहेज प्रथा के दोष / कमियाँ | 2M |
2016 | भारत में लैंगिक (जेण्डर) असमानता के परिणामों को समझाइये । | 5M |
- दहेज निषेध अधिनियम 1961 में “दहेज” से तात्पर्य उस संपत्ति या स्त्रीधन से है,जो शादी के समय दिया जाता है,या देने का वादा किया जाता है। यह दहेज विवाह में एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को दिया जाता है, या शादी के किसी भी पक्ष के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है। (सीधे शब्दों में, दहेज विवाह के दौरान दिए जाने वाले धन का प्रकार है,चाहे वह संपत्ति हो या पैसे,और इसे देने वाले कोई भी हो सकते हैं।)
- भिन्नता → दक्षिण (भूमि, विरासत आदि) बनाम उत्तर (भौतिकवादी वस्तु- कार आदि)
- दहेज एक सामाजिक खतरा बन गया है, जिससे महिलाओं का उत्पीड़न होता है और यहां तक कि उनकी दुखद मौतें भी होती हैं।
आँकड़े
- एनसीआरबी: 2022 में 6000 दहेज हत्या के मामले दर्ज (4.5% की गिरावट)।
- अगस्त 2023 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय भारत में कहा गया है कि महिलाएं “कानूनी आतंकवाद” करने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए का दुरुपयोग कर रही हैं।
- दहेज न केवल अवैध है, बल्कि अनैतिक और एक सामाजिक बुराई भी है।
- परंपरागत रूप से यह प्रथा बेटियों को पैतृक संपत्ति से हिस्सा देने के रूप में शुरू हुई थी, लेकिन समय के साथ दूल्हे और उनके परिवारों ने इसे अपना अधिकार मान लिया, जिससे धीरे-धीरे यह प्रथा खराब होती गई और यह दूल्हा और दुल्हन दोनों पक्षों के लिए प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया।
दहेज के कारण
- ऐतिहासिक विरासत : दहेज प्राचीन प्रथाओं से उपजा है जहां शादी के समय बेटियों को स्त्रीधन दिया जाता था।
- प्रतिष्ठा का सवाल : दहेज परिवार की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है।
- महिलाओं की वित्तीय निर्भरता : महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता दहेज की मांग को बढ़ावा देती है। महिला को एक दायित्व माना जाता है, इसलिए दायित्व के हस्तांतरण के लिए दहेज के रूप में मुआवजे की मांग की जाती है
- अच्छे वर की अंकाक्षा : दहेज का उपयोग वांछनीय दूल्हे को आकर्षित करने और दुल्हन को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता है।
- उपभोक्तावाद और भौतिकवाद : बढ़ती भौतिक इच्छाएँ दहेज की अपेक्षाओं को बढ़ाती हैं।
- सामाजिक स्वीकृति और मान्यता : दहेज गहरी जड़ें जमा चुके सामाजिक मानदंडों द्वारा कायम है।
- बेटे की मेटा वरीयता की धारणा में परिणाम (पुत्र प्राप्ति की चाह)
- शिक्षा का अभाव : सीमित शिक्षा दहेज प्रथा को कायम रखती है।
- दहेज से संबंधित दुर्व्यवहार के परिणामस्वरूप बच्चे अवसादग्रस्त हो जाते हैं और अंततः एक अस्वस्थ समाज बन जाता है।
- दहेज की व्यवस्था में गरीब परिवार कर्ज के चक्र में फंस जाते हैं, जिसके कारण आत्महत्या, खराब मानसिक स्वास्थ्य और बालिका शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है।।
- दहेज निषेध अधिनियम (1961) की अप्रभाविकता
दहेज का प्रभाव
- दहेज संबंधी हिंसा : दहेज की माँग के कारण गंभीर दुर्व्यवहार हो सकता है,यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है। उदाहरण- डॉ. सुहाना आत्महत्या मामला (केरल)
- परिवारों पर आर्थिक बोझ : दहेज अक्सर परिवारों को कर्ज और गरीबी में धकेल देता है।
- लिंग भेदभाव और कन्या भ्रूण हत्या : दहेज लड़कों को प्राथमिकता देने में योगदान देता है, जिससे कन्या भ्रूण हत्या होती है।
- जैसे: हरियाणा का विषम लिंगानुपात आंशिक रूप से दहेज के दबाव (बेटियाँ-वित्तीय बोझ) के कारण है।
- विलंबित या अस्वीकृत विवाह : यदि परिवार दहेज देने में असमर्थ हैं,तो महिलाएं अविवाहित रह सकती हैं।
- मनोवैज्ञानिक आघात : दहेज का दबाव गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकता है।
- जैसे. विस्मया केस-2021 (केरल), अपने पति और ससुराल वालों से लगातार दहेज उत्पीड़न के बाद आत्महत्या कर ली।
- लैंगिक असमानता को कायम रखना : दहेज महिलाओं को वित्तीय बोझ मानकर लैंगिक असमानता को बढ़ावा देता है।
- शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव : परिवार बेटियों की शिक्षा के बजाय दहेज के लिए बचत को प्राथमिकता दे सकते हैं।
क़ानूनी प्रावधान
- दहेज निषेध अधिनियम (डीपीए),1961:
- दहेज से संबंधित अपराधों को गंभीर अपराध माना जाता है – संज्ञेय, गैर-जमानती और गैर-समझौता योग्य।
- दहेज निषेध अधिकारी: राज्य सरकार इस अधिनियम को लागू करने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति कर सकती है।
- दहेज देने/लेने पर दंड: न्यूनतम 5 साल की कैद और कम से कम ₹15,000 का जुर्माना या दहेज की राशि, जो भी अधिक हो।
- दहेज मांगने पर दंड: न्यूनतम 6 महीने से 2 साल की कैद और ₹10,000 तक जुर्माना।
- IPC 498A (अब भारतीय न्याय संहिता BNS धारा 80) : दहेज उत्पीड़न सहित पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता को संबोधित करता है।
- IPC 304B – दहेज हत्या (अब बीएनएस धारा 85 और 86) : दहेज हत्या को परिभाषित करता है,जिसमें कम से कम 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा होती है।
- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 : दहेज संबंधी दुर्व्यवहार सहित घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
सुझाव
- दुल्हन: महिलाओं को शैक्षिक और आजीविका के अवसर प्रदान कर उनकी आर्थिक स्वतंत्रता और दहेज पर निर्भरता को कम करके उन्हें सशक्त बनाना।
- दूल्हा: दहेज मुक्त विवाह को बढ़ावा देकर और दहेज की मांगों को अस्वीकार करके दूल्हे और उनके परिवारों के बीच आदर्श विवाह की संस्कृति पैदा करना। पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव की जरूरत।
- समाज: दहेज प्रथा को कायम रखने वाले सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने और बदलने के लिए सामुदायिक अभियान का नेतृत्व और इसके नकारात्मक प्रभावों को उजागर करना। ‘महिलाओं के भौतिकीकरण’ की विचारधारा को बदलना होगा। “दुल्हन ही दहेज है”
- लड़की और लड़के दोनों के लिए साथी चुनने की स्वतंत्रता हो।
- अंतरजातीय विवाह को स्वीकार किया जाना चाहिए और बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
- कानून: जमीनी स्तर पर कानूनों की प्रवर्तनीयता सुनिश्चित करना जैसे – दहेज निषेध अधिनियम (डीपीए), 1961
तलाक
तलाक विवाह को समाप्त करने की कानूनी प्रक्रिया है, जिसे विवाह विच्छेद भी कहा जाता है।
तलाक के आँकड़े
- आर्थिक सर्वेक्षण 2018: भारत की वार्षिक तलाक दर 1.1 प्रति 1000 व्यक्ति है ( 50% से 60% की वृद्धि)
- शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन मामला(2023) : सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के अन्तर्गत ‘विवाह का असाध्य रूप से टूटने‘ के आधार पर सीधे तलाक की अनुमति दे सकते है।
तलाक के सिद्धांत
- दोष सिद्धांत: एक पति या पत्नी को यह साबित करना होगा कि दूसरे ने गलत कार्य किया है (उदाहरण के लिए,व्यभिचार,क्रूरता,परित्याग) जो तलाक को उचित ठहराता है।
- आपसी सहमति सिद्धांत: आपसी सहमति से विवाह विच्छेद किया जा सकता है।
- असाध्य रूप से टूटना: जीवनसाथी द्वारा तलाक को अंतिम उपाय के रूप में लिया जा सकता है उदाहरणस्वरूप जब दोनों दोबारा साथ रहने में सक्षम न हों।
तलाक का आधार
हिंदू विवाह अधिनियम,1955,धारा 12 तलाक के आधार को परिभाषित करती है:
- पीड़ित पति या पत्नी में से कोई भी निम्नलिखित कारणों से तलाक के लिए आवेदन कर सकता है: व्यभिचार,क्रूरता,परित्याग,धर्मांतरण, मानसिक विकार,कुष्ठ रोग,यौन रोग,त्याग,मृत्यु की आशंका।
- केवल पत्नी निम्नलिखित कारणों से तलाक के लिए आवेदन कर सकती है: द्विविवाह,बलात्कार,विवाह से इनकार आदि।
तलाक के कारण
- संवाद की कमी: ख़राब संवाद से ग़लतफ़हमियाँ,अनसुलझे झगड़े और भावनात्मक संबंध कमज़ोर हो जाते हैं।
- विश्वास की कमी: विवाहेतर संबंध विश्वास तोड़ते हैं और अक्सर सामंजस्य बिठाना मुश्किल बना देते हैं।
- वित्तीय समस्याएँ: धन,ऋण या वित्तीय प्रबंधन पर असहमति विवाह में महत्वपूर्ण तनाव पैदा कर सकती है।
- घनिष्ठता का अभाव: भावनात्मक या शारीरिक अंतरंगता में गिरावट के कारण साझेदार अलग-थलग और असंतुष्ट महसूस कर सकते हैं।
- लगातार संघर्ष और बढ़ती दूरी: बार-बार होने वाली बहस, अनसुलझे झगड़े और समय के साथ अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते पार्टनर शादी की नींव को कमजोर कर सकते हैं।
- अवास्तविक उम्मीदें: जब विवाह के बारे में उम्मीदें वास्तविकता के अनुरूप नहीं होती हैं, तो इससे निराशा और कुंठा हो सकती है।
- मादक पदार्थों का सेवन और घरेलू हिंसा: अपमानजनक व्यवहार,शारीरिक,भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न, विवाह को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।
- सांस्कृतिक या धार्मिक मतभेद और पारिवारिक हस्तक्षेप: अलग-अलग मान्यताओं या परिवार के अत्यधिक हस्तक्षेप से उत्पन्न संघर्ष महत्वपूर्ण चुनौतियाँ पैदा कर सकते हैं।
- पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव – एकल परिवार और एकल अभिभावकत्व का चलन है।
तलाक के प्रभाव
- व्यक्तिगत प्रभाव:
- भावनात्मक संकट: दुःख,क्रोध या राहत की भावनाएँ
- स्वास्थ्य के मुद्दों: तलाक से संबंधित तनाव नींद की समस्या और अन्य स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को जन्म दे सकता है।
- सामाजिक प्रभाव:
- सामाजिक संबंधों का नुकसान: आपसी मित्रता ख़त्म हो सकती है और सामाजिक अलगाव हो सकता है।
- कलंक: कुछ समुदायों में तलाक एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है।
- विवाह, परिवार, समाज और अन्य सामाजिक संस्थाओं का पतन
- संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में विघटन।
- सामाजिक मूल्यों में गिरावट
- मनोवैज्ञानिक प्रभाव:
- मानसिक स्वास्थ्य संघर्ष: अवसाद,चिंता और आत्म-सम्मान में कमी का खतरा बढ़ जाता है।
- शोक मनाने की प्रक्रिया: व्यक्ति अक्सर किसी नुकसान के शोक के समान ही शोक का अनुभव करते हैं।
- बच्चों पर प्रभाव:
- भावनात्मक और व्यवहारिक मुद्दे: बच्चे भ्रमित, क्रोधित या दोषी महसूस कर सकते हैं, जिसका असर उनके व्यवहार और पढ़ाई पर पड़ सकता है।
- माता-पिता-बच्चे का रिश्ता: हिरासत परिवर्तन से माता-पिता के साथ संबंधों में तनाव आ सकता है।
- आर्थिक प्रभाव:
- वित्तीय तनाव: तलाक के कारण अक्सर आय कम हो जाती है और वित्तीय बोझ बढ़ जाता है।
- संपत्ति प्रभाग: संपत्ति और ऋण का बंटवारा दीर्घकालिक वित्तीय अस्थिरता पैदा कर सकता है।
कानूनी प्रावधान
- धारा 13 (हिंदू विवाह अधिनियम, 1955): हिंदुओं में तलाक के लिए आधार,जैसे व्यभिचार,क्रूरता और परित्याग।
- धारा 27 (विशेष विवाह अधिनियम, 1954): विवाह के लिए तलाक के लिए विशेष आधार।
- अनुच्छेद 142: सर्वोच्च न्यायालय को उन मामलों में तलाक देने का अधिकार देता है,जहाँ वह पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक समझता है।
शायरा बानो केस 2017
2017 में,सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने तत्काल तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया,और सरकार से इसके खिलाफ कानून बनाने का आग्रह किया।
फैसले का महत्व:
- तत्काल तीन तलाक को अमान्य घोषित करना।
- लैंगिक समानता को बढ़ावा देना: अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार की रक्षा करना – पहले, एक मुस्लिम पुरुष तीन बार “तलाक” बोलकर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता था,जबकि महिलाओं के पास यह क्षमता नहीं थी।
- मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण:
- इस प्रथा को इस्लाम की एक आवश्यक प्रथा के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी।
- न्यायालय ने निर्देश दिया कि नागरिकों के कल्याण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाली ऐसी प्रथाओं को अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं किया जाता है।
- महिलाओं की गरिमा (अनुच्छेद 21): यह इस बात पर जोर देता है कि लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा गैर-परक्राम्य सिद्धांत हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव – यह पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे कई इस्लामी देशों के साथ संरेखित है, जिन्होंने पहले ही इस प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है।
तलाक से कैसे बचा जा सकता है
- निजी रिश्तों में नैतिक मूल्यों का समावेश, खास तौर पर परिवार और विवाह में।
- महिला सशक्तिकरण और महिला- पुरुषों को नैतिक शिक्षा।
- आपसी पारिवारिक मुद्दों और वैचारिक मतभेदों को बातचीत और उचित संचार के माध्यम से हल किया जाना चाहिए।
- एक साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना और एक-दूसरे को सम्मान देना।
- प्रतिबद्धता, धैर्य, ईमानदारी, विश्वास और प्रशंसा बनाए रखना चाहिए।
- बाहरी प्रभाव को नियंत्रित किया जाना चाहिए, उदाहरण के लिए परिवार और दोस्तों के हस्तक्षेप के लिए सीमाएँ निर्धारित की जानी चाहिए।
- जरूरत पड़ने पर विवाह परामर्शदाताओं, गुरुओं या बड़ों से मदद लें।
बाल विवाह
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2021 | ‘शारदा एक्ट’ क्या है? | 2M |
2016 Special | बाल विवाह से आप क्या समझते हैं ? | 2M |
बाल विवाह पर हालिया डेटा
- लैंसेट ग्लोबल हेल्थ अध्ययन (2023): पांच में से एक लड़की और लगभग छह लड़कों में से एक भारत में अभी भी विवाह की कानूनी उम्र से कम उम्र में विवाहित होते हैं।
- एनएचएफएस-5 डेटा: राजस्थान में पिछले 5 वर्षों में बाल विवाह में 10% की गिरावट देखी गई।
- लैंसेट डेटा: 1993 और 2021 के बीच बाल विवाह का प्रचलन 49.4% से घटकर 22.3% हो गया।
- यूनिसेफ – दुनिया में होने वाले बाल विवाहों में से एक तिहाई भारत में होते हैं, जहाँ लगभग 15 लाख बाल वधुएँ हैं।
- 2005 से 2015 तक बाल विवाहों में 47% से लगभग 27% की गिरावट आई है।

इतिहास
- आयु सहमति अधिनियम,1861: यौन संबंध के लिए न्यूनतम आयु 10 वर्ष निर्धारित की गई।
- रुखमाबाई मामला: 1884 में,रुखमाबाई,जो 11 साल की उम्र में विवाह कर चुकी थीं और अलग रह रही थीं,को अदालत द्वारा अपने पति के पास लौटने या जेल की सजा का सामना करने के लिए मजबूर किया गया।
- फुलमनी दासी मामला: 1889 में,11 वर्षीय फुलमनी दासी की उसके 35 वर्षीय पति द्वारा बलात्कार के बाद मृत्यु हो गई, जिससे कानूनी सुधारों की शुरुआत हुई।
- आयु सहमति अधिनियम,1891:(जॉनसन अधिनियम)
- यौन संबंध के लिए सहमति की आयु 12 वर्ष कर दी गई, जिससे विवाहित और अविवाहित दोनों लड़कियों पर प्रभाव पड़ा।
- रुखमाबाई और फुलमनी दासी की पीड़ा से प्रेरित होकर यह अधिनियम पारित हुआ।
- जोशी समिति:
- विवाह और सहमति की आयु की सिफारिश करने के लिए बनाई गई।
- लड़कियों के लिए 14 और लड़कों के लिए 18 वर्ष की समान आयु सीमा की वकालत की।
- जून 1929 में रिपोर्ट की गई और यह शारदा अधिनियम की नींव बनी।
- शारदा अधिनियम,1929:
- जिसे बाल विवाह निषेध अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है।
- लड़कियों के लिए विवाह की आयु 14 और लड़कों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई।
- 1978 में इसे संशोधित कर लड़कियों के लिए 18 और लड़कों के लिए 21 वर्ष कर दिया गया।
- यह अधिनियम इसके प्रायोजक हरबिलास शारदा के नाम पर रखा गया।
- अंतर्राष्ट्रीय कानून:
- विवाह के लिए न्यूनतम कानूनी आयु निर्धारित करने वाले विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौते, जिनमें शामिल हैं:
- विवाह के लिए सहमति,विवाह के लिए न्यूनतम आयु और विवाह के पंजीकरण पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (1962)
- महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (1979)
- बीजिंग घोषणा (1995)
बाल विवाह के कारण
- रीति-रिवाज और परंपरा: कम उम्र में शादी को लड़कियों की उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती दहेज की मांग से बचने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है।
- गरीबी: परिवार वित्तीय बोझ कम करने या कर्ज चुकाने के लिए बेटियों की शादी कर देते हैं।
- शिक्षा का अभाव: शिक्षा तक सीमित पहुंच बाल विवाह के नुकसान के बारे में अज्ञानता को कायम रखती है।
- कामुकता पर नियंत्रण: कामुकता को नियंत्रित करने के लिए सामाजिक मानदंड शीघ्र विवाह को बढ़ावा देते हैं।
- कमजोर कानून प्रवर्तन: कानूनों का अपर्याप्त कार्यान्वयन इस प्रथा को जारी रहने देता है।
- सामाजिक दबाव: समुदाय अक्सर परिवारों पर पारंपरिक प्रथाओं का पालन करने के लिए दबाव डालते हैं।
- लैंगिक असमानता: गहरी जड़ें जमाए हुए लैंगिक पूर्वाग्रह लड़कियों के लिए शिक्षा या व्यक्तिगत विकास के बजाय विवाह को प्राथमिकता देते हैं।
- अंतरपीढ़ीगत गरीबी: बाल वधूएं अक्सर आर्थिक तंगी से मुक्त नहीं हो पाती हैं और इसे अगली पीढ़ी तक पहुंचा देती हैं जिससे गरीबी का चक्र जारी रहता है।
- मानसिकता(कलंक का डर): अगर बेटियां एक निश्चित उम्र के बाद भी अविवाहित रहती हैं तो परिवारों को सामाजिक कलंक का डर रहता है।
बाल विवाह का प्रभाव
- बचपन ख़त्म : बच्चों को वयस्क जिम्मेदारियों के लिए बाध्य करता है,जिससे उनकी शिक्षा और विकास बाधित होता है।
- अधिकारों की हानि : शिक्षा,स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे मौलिक अधिकारों से इनकार करता है।
- घरेलू हिंसा में वृद्धि : शक्ति और परिपक्वता की कमी के कारण दुर्व्यवहार और हिंसा के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
- स्वास्थ्य के मुद्दों : प्रारंभिक गर्भावस्था,कुपोषण और उच्च मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर से जटिलताएँ होती हैं। उदाहरण स्वरूप मुर्शिदाबाद मेडिकल कॉलेज में कम वजन वाले 10 शिशुओं की मौत हो गई।
- मानवाधिकार का उल्लंघन : बुनियादी मानवाधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
- यौन और लिंग आधारित हिंसा : इसे हिंसा के एक प्रकार के रूप में मान्यता दी गई है जो असमानता और शोषण को लागू करती है।
- मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं : आघात के कारण अवसाद,चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं।
- बाल स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव : इसके परिणामस्वरूप खराब स्वास्थ्य परिणाम और विकासात्मक देरी होती है।
- जनसंख्या वृद्धि और गरीबी का ‘दुष्चक्र’
सरकार द्वारा प्रयास
- संवैधानिक प्रावधान:अनुच्छेद 21ए: निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा,विलंबित विवाह सुनिश्चित करता है।
- अनुच्छेद 15(3): बाल संरक्षण के लिए विशेष प्रावधानों की अनुमति देता है।
कानूनी उपाय:
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006: बाल विवाह को अपराध मानते हुए लड़कियों के लिए विवाह की आयु 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष निर्धारित की गई।
- धारा 9: बालिग पुरुष का बच्चे से विवाह
18 वर्ष से अधिक आयु का कोई भी पुरुष जो किसी बच्चे से विवाह करता है,उसे 2 साल तक के कठोर कारावास,₹1 लाख तक के जुर्माने,या दोनों का सामना करना पड़ सकता है। - धारा 10: बाल विवाह कराना
जो कोई भी बाल विवाह को संपन्न, आयोजित, निर्देशित या उकसाता है, उसे 2 साल तक के कठोर कारावास और ₹1 लाख तक के जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है।
- धारा 9: बालिग पुरुष का बच्चे से विवाह
- पॉक्सो अधिनियम, 2012: बाल विवाह से जुड़े यौन शोषण से बचाता है।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009: बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाता है,कम उम्र में विवाह को हतोत्साहित करता है।
- जया जेटली समिति लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष करने की सिफारिश करेगी।
- सीमा बनाम अश्विनी कुमार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हर शादी का पंजीकरण होना चाहिए।
सरकारी पहल:
- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ: लड़कियों की शिक्षा और कल्याण को बढ़ावा देता है।
- किशोरी शक्ति योजना: किशोरियों को शिक्षा और जीवन कौशल प्रदान करता है।
- सशर्त नकद हस्तांतरण- विवाह में देरी करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करता है। (मुख्यमंत्री कन्यादान योजना)
सामुदायिक पहुँच:
- जागरूकता अभियान: बाल विवाह कानूनों और प्रभावों पर समुदायों को शिक्षित करें।
- स्थानीय अधिकारी: बाल विवाह रोकने के लिए अधिकारियों को प्रशिक्षित करें।
- सामुदायिक (सामुहिक) विवाह प्रोत्साहन
राजस्थान सरकार:
- सीएम राजश्री योजना: लड़कियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए शुरू की गई योजना।
- राजस्थान राज्य बाल विवाह रोकथाम रणनीति और कार्य योजना 2017: 10 साल की समय सीमा के भीतर राजस्थान को बाल विवाह मुक्त राज्य बनाने की परिकल्पना करती है।
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (PCMA) के तहत बाल विवाह निषेध अधिकारी नियुक्त किए गए हैं।
- महिला नीति 2021
- सामुदायिक जागरूकता (स्कूलों में मीना-राजू और गार्गी कार्यक्रम)
- 7 बिंदु कार्यक्रम
- सुरक्षित मातृत्व
- शिशु मृत्यु दर में कमी
- जनसंख्या को स्थिर करना
- बाल विवाह की रोकथाम
- कम से कम दसवीं कक्षा तक के स्कूलों में लड़कियों की अवधारण
- महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने की सुरक्षा प्रदान करें
- स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के द्वारा महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण
भ्रष्टाचार
“भ्रष्टाचार सौंपी गई शक्ति का निजी लाभ के लिए दुरुपयोग है।”— ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल
या
[भ्रष्टाचार = एकाधिकार + विवेक-जवाबदेही] द्वितीय ARC द्वारा।
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2021 | राजनीतिक भ्रष्टाचार को परिभाषित कीजिए । | 2M |
2013 | सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मुख्य कारण क्या हैं ? | 2M |
संबंधित शब्दावली

- रिश्वतखोरी: सत्ता की स्थिति में किसी अधिकारी या अन्य व्यक्ति के कार्यों को प्रभावित करने के लिए किसी मूल्यवान चीज़ की पेशकश करना,देना,प्राप्त करना या याचना करना।
- गबन: किसी की देखभाल के लिए सौंपे गए धन या संपत्ति का दुरुपयोग।
- धोखा: अनुचित या गैरकानूनी लाभ प्राप्त करने के लिए बनाई गई भ्रामक प्रथाएँ।
- ज़बरदस्ती वसूली: जबरदस्ती या धमकी के माध्यम से धन, सामान या सेवाएँ प्राप्त करना।
- भाई-भतीजावाद: अक्सर रिश्तेदारों या करीबी दोस्तों को नौकरी देकर पक्षपात किया जाता है।
- क्रोनीज्म : मित्रों और सहयोगियों को उनकी योग्यता की परवाह किए बिना पक्षपात दिखाया जाता है।
- संरक्षण: समर्थन,प्रोत्साहन,या वित्तीय सहायता जो एक संगठन या व्यक्ति दूसरे को देता है।
- ग्राफ्ट: बेईमानी या अनुचित तरीकों से लाभ प्राप्त करना, विशेषकर किसी के पद के दुरुपयोग के माध्यम से।
- काले धन से तात्पर्य उस धन से है जो धारक के पास पूरी तरह या कानूनी रूप से स्वामित्व में नहीं है। भारत में काले धन के दो मुख्य स्रोत हैं:
- अवैध गतिविधियाँ: अपराध, नशीली दवाओं के व्यापार, आतंकवाद और भ्रष्टाचार से प्राप्त धन।
- कर चोरी: कानूनी गतिविधियों से प्राप्त धन,आय की घोषणा न करने या करों का भुगतान न करने से जमा हुआ धन। कुछ काला धन अंतरराष्ट्रीय टैक्स हेवन में भी चला जाता है।
भ्रष्टाचार के प्रकार
- सांठगांठ से किया भ्रष्टाचार: पक्षों के बीच आपसी समझौता (उदाहरण: सत्यम घोटाला)।
- दबावयुक्त भ्रष्टाचार: एक पक्ष को भ्रष्ट कार्यों के लिए मजबूर किया जाता है (उदाहरण: तेलगी स्टांप पेपर घोटाला)।
- व्यवस्थित भ्रष्टाचार: संस्थानों में गहराई से जड़ें जमा चुका व्यापक भ्रष्टाचार (उदाहरण: बोफोर्स कांड)।
- राजनीतिक भ्रष्टाचार: राजनीतिक प्रक्रियाओं और पदों का दुरुपयोग (उदाहरण: जयललिता संपत्ति से अधिक संपत्ति का मामला)।
- नौकरशाही भ्रष्टाचार: सार्वजनिक प्रशासन के भीतर भ्रष्टाचार (उदाहरण:अशोक सिंघवी,एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी और खनन विभाग के प्रमुख सचिव,को राजस्थान के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा ₹2.55 करोड़ की रिश्वत मामले में गिरफ्तार किया गया)।
भ्रष्टाचार के कारण
- विल्सन के अनुसार, “लोग तब चोरी करते हैं जब चारों ओर बहुत सारा पैसा पड़ा हो और कोई देख नहीं रहा हो”।
- के संथानम समिति का मानना है कि “भ्रष्टाचार तभी अस्तित्व में रह सकता है जब कोई भ्रष्ट हो और भ्रष्ट करने में सक्षम हो”।
- ऐतिहासिक और राजनीतिक:
- औपनिवेशिक विरासत: पुराने कानूनी ढाँचे और सत्तावादी अवशेष
- राजनीति का अपराधीकरण: 40% मौजूदा सांसदों पर आपराधिक मामले, 25% पर गंभीर आरोप हैं-ADR रिपोर्ट)।
- क्रोनी पूंजीवाद: व्यापार और राजनीतिक अभिजात वर्ग के बीच पक्षपात।
- व्यक्ति:
- निम्न नैतिक मानक: व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा में गिरावट।
- कम वेतन: अपर्याप्त मुआवज़ा अनैतिक व्यवहार को बढ़ावा देता है (2nd ARC)।
- आधुनिकीकरण: पारंपरिक मूल्यों से भौतिकवाद की ओर बदलाव।
- सामाजिक:
- सामान्यीकरण: भ्रष्टाचार को सामाजिक स्तर पर स्वीकार किया जाता है।
- सार्वजनिक संशयवाद: संस्थानों में अविश्वास प्रतिरोध को कमजोर करता है।
- मान्यता का अभाव: ईमानदार अधिकारियों की अक्सर अनदेखी की जाती है।
- संगठनात्मक:
- विवेकाधीन शक्तियाँ: अनियंत्रित अधिकारों का दुरुपयोग होता है।
- अनुच्छेद 311: सरकारी कर्मचारियों को जवाबदेही से बचाता है।
- ख़राब पर्यवेक्षण: निरीक्षण की कमी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।
- राजनीतिक-प्रशासक सांठगांठ: भ्रष्ट आचरण में सहयोग।
- अकुशल प्रक्रियाएँ: नौकरशाही की देरी भ्रष्ट्राचार के अवसर पैदा करती है।
- कमजोर कानून: PCA,1988 में खामियाँ।
भ्रष्टाचार के प्रभाव
आर्थिक प्रभाव:
- कर आतंकवाद: भ्रष्टाचार आक्रामक और अनुचित कर प्रवर्तन को बढ़ावा देता है।
- व्यावसायिक वातावरण: यह लागत और जोखिम बढ़ाकर व्यापार करने में आसानी में बाधा डालता है।
राजनीतिक प्रभाव:
- लोकतांत्रिक क्षरण: लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करता है,जिससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है और कानून का शासन कमजोर होता है।
सामाजिक प्रभाव:
- बढ़ी हुई असमानता सामाजिक विभाजन को गहरा करती है और सामाजिक एकजुटता को कमजोर करती है।
- सामाजिक लागत (सरकारी योजनाओं का ख़राब परिणाम)
पर्यावरणीय प्रभाव:
- गिरावट: पर्यावरण मंजूरी में भ्रष्टाचार के कारण ख़राब प्रबंधन होता है और गिरावट बढ़ती है,जैसा कि आदित्य बिड़ला और हिंडाल्को से जुड़े कोयला ख़नन मामलों में देखा गया है।
विकास में बाधा:
- परियोजना में देरी: भ्रष्टाचार के कारण विकास परियोजनाओं में देरी होती है और जेब से खर्च बढ़ जाता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा:
- रक्षा संबंधी अनियमितताएँ: बोफोर्स केस की तरह रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार,राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालता है।
- रक्षा मंत्रालय द्वारा राज्यसभा को दिए गए 2022 के अपडेट के अनुसार, 2010 से अब तक सशस्त्र बलों में भ्रष्टाचार के 1,080 मामले सामने आए हैं।
भ्रष्टाचार को कम करना
- संस्थानों को मजबूत बनाना: भ्रष्टाचार से लड़ने वाली संस्थाओं की क्षमता और स्वतंत्रता बढ़ाना।
- कानूनी सुधार: भ्रष्ट आचरण को परिभाषित करने और दंडित करने वाले मजबूत कानूनी ढांचे को लागू करना।
- पारदर्शिता: भ्रष्टाचार के अवसरों को कम करने के लिए सरकार और व्यावसायिक संचालन में पारदर्शिता को बढ़ावा देना।
- जन जागरण: जनता को भ्रष्टाचार के खतरों के बारे में शिक्षित करना और उन्हें जवाबदेही की मांग करने के लिए प्रोत्साहित करना।
- अंतरराष्ट्रीय सहयोग: सीमा पार भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और अन्य देशों के साथ सहयोग करना।
भ्रष्टाचार रोकने के सरकारी प्रयास:
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988: भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनी उपायों को मजबूत करता है।
- धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002: वित्तीय अपराध और मनी लॉन्ड्रिंग को निशाना बनाता है।
- केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003: निगरानी के लिए सीवीसी को एक स्वायत्त निकाय के रूप में स्थापित करता है।
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013: उच्च स्तरीय सार्वजनिक अधिकारियों के लिए भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल।
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005: नागरिकों को सरकार से जानकारी मांगने का अधिकार देता है।
- सिंगल विंडो क्लीयरेंस: नौकरशाही देरी को कम करने के लिए स्वीकृतियों को सुव्यवस्थित करता है।
- केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई): भ्रष्टाचार के मामलों की जांच एजेंसी।
- दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग: शासन में सुधार और भ्रष्टाचार को कम करने के उपायों की सिफारिश करता है।
- संथानम समिति: भ्रष्टाचार की पहचान करने और उस पर अंकुश लगाने के प्रारंभिक प्रयास।
- व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम:भ्रष्टाचार की रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति को सुरक्षा।
साम्प्रदायिकता
परिभाषा :- एक विश्वास प्रणाली जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा अपने जातीय,धार्मिक या सांस्कृतिक समूह के प्रति निष्ठा को व्यापक समुदाय या समाज की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है।
- इसमें अक्सर दूसरों के विरोध में अपने समुदाय के हितों को बढ़ावा देना शामिल होता है,जो कभी-कभी संघर्ष और सामाजिक विभाजन का कारण बनता है।
साम्प्रदायिकता के प्रकार
बिपन चंद्रा के अनुसार:
- उदार साम्प्रदायिकता: धर्मनिरपेक्ष ढांचे के भीतर समुदाय-आधारित मांगें। उदाहरणस्वरूप मुस्लिम लीग द्वारा पृथक निर्वाचन की मांग
- मध्यम साम्प्रदायिकता: सामुदायिक हितों पर आधारित राजनीतिक लामबंदी। उदाहरण: 1940 के दशक के दौरान मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग
- कट्टर साम्प्रदायिकता: समुदायों के बीच शत्रुता और हिंसा। उदाहरण: 1947 में भारत का विभाजन,जिसके कारण व्यापक पैमाने पर विभाजन हुआ व सांप्रदायिक हिंसा हुई।
साम्प्रदायिकता में योगदान देने वाले कारक
- फूट डालो और राज करो की ब्रिटिश नीति: 1909 के पृथक निर्वाचन क्षेत्र,सांप्रदायिक पंचाट 1932 जैसी नीतियों ने सांप्रदायिक विभाजन को गहरा कर दिया।
- विभाजनकारी राजनीति: राजनेता और राजनीतिक दल चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक पहचान का फायदा उठा सकते हैं, मौजूदा विभाजन को गहरा कर सकते हैं और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे सकते हैं।
- इतिहास की विभिन्न धारणाएँ: भारतीय इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या प्राचीन चरण को हिंदू चरण और मध्यकालीन चरण को मुस्लिम चरण के रूप में चित्रित करती है।
- मनोवैज्ञानिक कारक: पारस्परिक विश्वास की कमी के कारण इस्लामोफोबिया जैसी रूढ़िवादिता सांप्रदायिक भय को तीव्र करती है (उदाहरण के लिए, 9/11 के बाद इस्लामोफोबिया)।
- सोशल मीडिया द्वारा फैलाई गई सूचनाएँ : धार्मिक आपत्तिजनक खबरें हिंसा भड़काती हैं (उदाहरण के लिए, कन्हैयालाल हत्या, 2022; नूह हिंसा )।
- आर्थिक पिछड़ापन और असमान विकास: गरीबी तनाव को बढ़ाती है (उदाहरण के लिए, मुजफ्फरनगर दंगे, 2013)।
- धार्मिक कट्टरवाद: आईएसआईएस जैसे समूहों का ऑनलाइन प्रचार सांप्रदायिकता को बढ़ाता है,जैसे कि कश्मीर में युवाओं का कट्टरपंथ।
साम्प्रदायिकता के प्रभाव
- सामाजिक एकता को कमज़ोर करता है: विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास और शत्रुता को बढ़ावा देकर सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करता है।
- विकास में बाधा: संसाधनों और ध्यान को विकासात्मक गतिविधियों से हटाकर संघर्षों के प्रबंधन और कानून-व्यवस्था बनाए रखने पर केंद्रित करता है।
- लोकतंत्र को कमजोर करता है: राष्ट्रीय हितों पर संकीर्ण सामुदायिक हितों को बढ़ावा देकर लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करता है।
- मानवाधिकारों का उल्लंघन: विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों के मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।
- मनोवैज्ञानिक प्रभाव: प्रभावित समुदायों में मनोवैज्ञानिक आघात और असुरक्षा की भावना पैदा होती है।
- सामाजिक विभाजन: धार्मिक, जातीय या भाषाई आधार पर समाज में विभाजन पैदा करता है।
- हिंसा और दंगे: सांप्रदायिक हिंसा, दंगों और जान-माल की हानि का कारण बनते हैं।
- राजनीतिक अस्थिरता: सांप्रदायिक तनाव और संघर्ष के कारण राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है।
- भेदभाव: रोजगार, शिक्षा और सेवाओं तक पहुँच जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भेदभाव होता है।
- आर्थिक व्यवधान: संघर्षों के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बाधित होती हैं, जिससे व्यवसाय और आजीविका प्रभावित होती है।
साम्प्रदायिकता का मुकाबला करने के उपाय
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 51(ए): सभी नागरिकों के बीच समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देता है।
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951:
- धर्म के आधार पर वोटों की अपील करने वाले चुनाव अभियानों पर प्रतिबंध लगाता है।
- भारतीय दंड संहिता:
- धारा 153-ए एवं 295-ए: धार्मिक समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाली कार्रवाइयों और धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियों को दंडित करें।
- सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम,नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास अधिनियम,2005:
- सांप्रदायिक हिंसा को रोकने और पीड़ितों के पुनर्वास को सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
अन्य सुझाव :
- अल्पकालिक : शांति समितियाँ,मीडिया पर्यवेक्षण,कानून प्रवर्तन,पीड़ितों का पुनर्वास।
- दीर्घकालिक: एक धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को बढ़ावा देना।
- सच्चर समिति ने असहिष्णुता और बहिष्कार की शिकायतों से निपटने के लिए एक समान अवसर आयोग की सिफारिश की।
- मीडिया बहस ध्रुवीकरण को विनियमित करना।
- विदेशी हस्तक्षेप पर कडी नजर।
- राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन द्वारा सक्रिय दृष्टिकोण → कौमी एकता सप्ताह आदि।
- पहचान की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता।
- हांगकांग और मलेशियाई मॉडल:
- हांगकांग: नस्ल संबंध इकाइयां(RRU) नस्लीय सद्भाव को बढ़ावा देती हैं।
- मलेशिया: MESRA पहल जातीय एकीकरण और सामुदायिक जुड़ाव को बढ़ावा देती है।
गरीबी
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के अनुसार ग़रीबी संसाधनों,क्षमताओं,विकल्पों,सुरक्षा और शक्ति का दीर्घकालिक अभाव है जो लोगों को पर्याप्त जीवन स्तर और अन्य अधिकारों का उपभोग करने से रोकता है।
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2023 | निर्धनता की संस्कृति | 2M |
संबंधित शब्दावली
- “गरीबी एक आर्थिक समस्या से कहीं अधिक है” – अमर्त्य सेन.
- ‘आंद्रे बेतेइले’ ने अपने लेख ” प्रदूषण और गरीबी” में गरीबी को प्रदूषण से भी अधिक संक्रामक माना है।
- पूर्ण गरीबी:
- ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जहां घरेलू आय बुनियादी जीवन स्तर (भोजन,आश्रय,आवास) बनाए रखने के लिए आवश्यक स्तर से नीचे है। इसे “निर्वाह निर्धनता” भी कहा जाता है।
- तुलनात्मक गरीबी:
- ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जहां घरेलू आय औसत आय से एक निश्चित प्रतिशत कम है। यह समाज के भीतर असमानताओं को उजागर करता है।
- गरीबी रेखा:
- 2009-10 में गरीबी को मापने के लिए उपयोग किए जाने वाले एक आर्थिक बेंचमार्क में,गरीबी रेखा को ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 673 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 860 रुपये (ग्रामीणों के लिए 2,400 और शहरी व्यक्तियों के लिए 2,100 के न्यूनतम कैलोरी सेवन के आधार पर) के रूप में परिभाषित किया गया था।

- मानव गरीबी सूचकांक (HPI):
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा विकसित,यह तीन आवश्यक आयामों में बुनियादी मानव विकास में अभाव को मापता है:
- लंबी उम्र
- शिक्षा
- उचित जीवन स्तर
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा विकसित,यह तीन आवश्यक आयामों में बुनियादी मानव विकास में अभाव को मापता है:
- बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई):
- नीति आयोग द्वारा तैयार
- 24.82 करोड़ भारतीय पिछले 9 वर्षों में बहुआयामी गरीबी से बाहर आ गए हैं ।
- 3 आयाम और 12 संकेतक:
- स्वास्थ्य: पोषण, बाल एवं किशोर मृत्यु दर,मातृ स्वास्थ्य
- शिक्षा: स्कूली शिक्षा के वर्ष,स्कूल में उपस्थिति
- जीवन स्तर: खाना पकाने का ईंधन,स्वच्छता, पेयजल,बिजली,आवास,संपत्ति,बैंक खाते।
- भारत,2030 से काफी पहले एसडीजी लक्ष्य 1.2 (2030 तक गरीबी को कम से कम आधा करना) उपलब्धि हासिल करने की राह पर है ।


गरीबी का वर्गीकरण:
- दीर्घकालिक ग़रीब: हमेशा गरीब या आम तौर पर गरीब, कभी-कभी थोड़ी बेहतर आय के साथ (उदाहरण के लिए, आकस्मिक श्रमिक)।
- मंथन गरीब: नियमित रूप से गरीबी के अंदर और बाहर जाएं (उदाहरण के लिए,छोटे किसान,मौसमी श्रमिक)।
- क्षणिक गरीब: आमतौर पर अमीर होते हैं लेकिन कभी-कभी दुर्भाग्य के कारण गरीबी में पड़ जाते हैं।
- गैर गरीब: जो लोग कभी गरीब नहीं होते।
कारण
- औपनिवेशिक शोषण: औपनिवेशिक शासन के दौरान गैर-औद्योगीकरण; वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 1830 में 17.6% से गिरकर 1900 तक 1.7% हो गई।
- गरीबों के लिए निवेश की कमी: स्वास्थ्य और शिक्षा में अपर्याप्त निवेश; उदाहरण के लिए,1981 के बाद से सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के पुनरुद्धार(चीन)
- सामाजिक व्यवस्था: जाति आधारित शोषण; इसके अनुसार, दलित गरीबों और बेरोजगारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं – एस.एम. माइकल।
- आर्थिक नीतियां: धीमी वृद्धि (1950 से 1980 के दशक तक 3.5% की “हिंदू वृद्धि दर”); भ्रष्टाचार और लालफीताशाही विकास में बाधक है, हालांकि वर्तमान रुझान बताते हैं कि 2025 तक बहुसंख्यक मध्यम वर्ग हो सकते हैं।
- कृषि पर अत्यधिक निर्भरता: 60% आबादी कृषि पर निर्भर है, जो सकल घरेलू उत्पाद में केवल 18% योगदान देती है।
- जनसंख्या का दबाव: तीव्र जनसंख्या वृद्धि विकास में बाधा डालती है और गरीबी को बढ़ाती है।
- उच्च निरक्षरता: साक्षरता दर 74.04%,ग्रामीण क्षेत्रों में 67.77%,अवसरों को सीमित करता है।
- उच्च बेरोजगारी: कृषि में महत्वपूर्ण छिपी हुई और मौसमी बेरोजगारी के साथ बेरोजगारी विहीन विकास।
- उद्यमिता का अभाव: कमजोर औद्योगिक आधार,पूंजी की कमी और सीमित उद्यमशीलता भावना।
परिणाम
- गरीबी की संस्कृति
- निर्भरता की संस्कृति
- कुपोषण
- जनसंख्या विस्फोट
- नैतिकता में गिरावट
- निरक्षरता (शिक्षा पर खर्च नहीं कर सकते।)
- सामाजिक विचलन (अपराध भ्रष्टाचार)
- आईएमआर,एमएमआर में वृद्धि
गरीबी से संबंधित सिद्धांत
- आर्थिक गरीबी: इसे पश्चिमी संदर्भ में परिभाषित किया गया है, जो गरीबी को मुख्य रूप से भौतिक संपदा और जीवन स्तर से मापता है। वित्तीय संसाधनों और आय की कमी पर ध्यान केंद्रित करता है,
- गरीबी की संस्कृति:
- ऑस्कर लुईस का “गरीबी की संस्कृति” सुझाव देती है कि गरीबी में रहने वाले लोग अपनी कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए जीवन जीने का अपना तरीका विकसित करते हैं। इसमें दिन-प्रतिदिन जीवित रहने, निराशा की भावना और सामाजिक अलगाव पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है। हालाँकि इससे उन्हें अपनी स्थिति का प्रबंधन करने में मदद मिलती है, यह उन्हें समाज में पूरी तरह से भाग लेने से भी रोक सकता है और उनके लिए गरीबी से बचना कठिन बना सकता है।
- आलोचना: यह विचार उन व्यापक सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के बजाय गरीबों को उनकी स्थिति के लिए गलत तरीके से दोषी ठहराता है जो उन्हें गरीबी में रखते हैं।
- एक सकारात्मक प्रतिक्रिया प्रणाली के रूप में गरीबी –
- इसे गरीबी का दुष्चक्र भी कहा जाता है और यह सिद्धांत तर्क देता है कि गरीबी का कारण बनने वाले विभिन्न कारक इस तरह से काम करते हैं कि एक गरीब व्यक्ति कभी भी उनसे बाहर नहीं निकल सकता है। उदाहरण के लिए – बेरोजगारी गरीबी को जन्म देती है, गरीब लोगों को अच्छी शिक्षा नहीं मिल सकती, अच्छी शिक्षा के बिना कोई रोजगार नहीं है।

- गरीबी का चक्र:
- यह वर्णन करता है कि कैसे शिक्षा,स्वास्थ्य देखभाल और रोजगार के अवसरों की कमी के कारण गरीबी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बनी रहती है।
- गरीबी का संरचनात्मक सिद्धांत:
- यह माना जाता है कि गरीबी धन के असमान वितरण, नौकरी के अवसरों की कमी और अपर्याप्त शिक्षा जैसे प्रणालीगत मुद्दों से उत्पन्न होती है। यह गरीबी को कायम रखने में सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं की भूमिका पर जोर देता है।
- आधुनिकीकरण सिद्धांत:
- तर्क है कि गरीबी आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी विकास की कमी के कारण है। यह सुझाव देता है कि गरीब देश आधुनिक प्रथाओं और संस्थानों को अपनाकर आर्थिक रूप से विकसित हो सकते हैं।
- निर्भरता सिद्धांत:
- यह बताता है की कि विकासशील देशों में गरीबी विकसित देशों पर उनकी निर्भरता का परिणाम है। यह सिद्धांत वैश्विक पूंजीवाद की शोषणकारी प्रकृति और राष्ट्रों के बीच असमान आर्थिक संबंधों पर प्रकाश डालता है।
- सामाजिक बहिष्कार:
- उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा व्यक्तियों या समूहों को विभिन्न अधिकारों,अवसरों और संसाधनों से व्यवस्थित रूप से अवरुद्ध किया जाता है जो आम तौर पर एक अलग समूह के सदस्यों के लिए उपलब्ध होते हैं,जो सामाजिक एकीकरण के लिए मौलिक हैं।
गरीबी को नियंत्रित करना
भारत में गरीबी उन्मूलन के प्रयास (4 तरीके)
- मजदूरी रोजगार
- मनरेगा : महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम ग्रामीण परिवारों को 100 दिनों का वेतन रोजगार प्रदान करता है।
- प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर्स आत्मनिर्भर निधि (पीएम स्वनिधि): स्ट्रीट वेंडरों को कोविड-19 के बाद उनके व्यवसायों को समर्थन देने के लिए किफायती ऋण प्रदान करता है।
- सीएम स्वनिधि योजना: स्ट्रीट वेंडर्स को 80 हजार तक का लोन ।
- स्व रोजगार
- IRDP: एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण गरीबों को स्वरोजगार प्रदान करना है।
- NREP : राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम मजदूरी रोजगार सृजन पर केंद्रित है।
- RLEGP: ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम ने भूमिहीन मजदूरों को रोजगार प्रदान किया।
- TRYSEM:स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण,ग्रामीण युवाओं के लिए लक्षित कौशल विकास।
- खाद्य सुरक्षा
- एनएफएसए-2013: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम गरीबों को सब्सिडी वाला खाद्यान्न सुनिश्चित करता है।
- राष्ट्रीय पोषण मिशन (पोषण अभियान): बच्चों और महिलाओं के लिए पोषण संबंधी परिणामों में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित।
- प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई): आपातकालीन स्थिति में निःशुल्क खाद्यान्न।
- सामाजिक सुरक्षा
- प्रधान मंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM): असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए पेंशन योजनाएं प्रदान करता है।
- प्रधान मंत्री जन धन योजना : बैंकिंग सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करना
- DPAP: सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण गरीबों पर सूखे के प्रभाव को कम करना है।
- प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना : ग्रामीण गरीबों के लिए आवास उपलब्ध कराता है।
- प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना : गरीब घरों की महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान करता है।
प्रदूषण और पवित्रता
- प्रदूषण और पवित्रता की धारणा जाति व्यवस्था तक ही सीमित है।
- दूसरी ओर गरीबी,जाति,धर्म और क्षेत्र की बाधाओं से परे होती है।
- गरीबी में रहने वाले लोगों को,चाहे वे किसी भी राज्य या भाषा के हों,समान भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
- इस प्रकार, प्रदूषण के विपरीत, गरीबी सामाजिक या सांस्कृतिक सीमाओं का पालन नहीं करती,जो इसे प्रदूषण की धारणा से अधिक संक्रामक बनाता है ।(आंद्रे बेटेले ने दिया था कॉन्सेप्ट)
बेरोजगारी
ऐसी स्थिति जहां जो व्यक्ति काम करने में सक्षम हैं और सक्रिय रूप से काम की तलाश में हैं,उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पा रहा है। इसमें वे लोग शामिल हैं जिन्हें अस्थायी रूप से नौकरी से हटा दिया गया है और वे अपनी नौकरी पर वापस बुलाए जाने का इंतजार कर रहे हैं।
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2023 | अनियत रोज़गार | 2M |
भारत में श्रम शक्ति और रोजगार संकेतक
- श्रम शक्ति: इसका अर्थ उन सभी व्यक्तियों से है जो कार्य कर रहे हैं,साथ ही वे जो कार्य नहीं कर रहे हैं लेकिन वर्तमान वेतन दर पर कार्य की खोज में हैं।
- श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर): LFPR को जनसंख्या में श्रम बल (अर्थात् काम करने वाले,काम की तलाश करने वाले या काम के लिए उपलब्ध) में शामिल व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया जाता है।
- श्रमिक जनसंख्या अनुपात (डब्ल्यूपीआर): डब्ल्यूपीआर को जनसंख्या में नियोजित व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है।
बेरोजगारी के प्रकार
- घर्षणात्मक बेरोजगारी: घर्षणात्मक बेरोजगारी तब होती है जब लोग एक नौकरी से दूसरे नौकरी में संक्रमण करते समय या पहली बार कार्यबल में प्रवेश करते समय अस्थायी रूप से बेरोजगार होते हैं। यह नौकरी चाहने वालों को उपयुक्त नौकरी रिक्तियों से मिलाने में लगने वाले समय को दर्शाता है। उदाहरण: हाल ही में कॉलेज से स्नातक किया गया व्यक्ति अपनी पहली नौकरी की तलाश में है या एक कर्मचारी जिसने बेहतर पद पाने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी है।
- संरचनात्मक बेरोजगारी: संरचनात्मक बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब श्रमिकों के कौशल और उपलब्ध नौकरियों की आवश्यकताओं के बीच अंतर होता है। इस प्रकार की बेरोजगारी अक्सर तकनीकी परिवर्तन,उपभोक्ता मांग में बदलाव या अर्थव्यवस्था में बदलाव के कारण होती है। उदाहरण: फैक्ट्री कर्मचारी जो स्वचालन के कारण अपनी नौकरी खो देते हैं और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नई प्रकार की नौकरियों के लिए आवश्यक कौशल की कमी रखते हैं।
- चक्रीय बेरोजगारी: चक्रीय बेरोजगारी आर्थिक मंदी या मंदी के कारण होती है। जब अर्थव्यवस्था धीमी हो जाती है, तो व्यवसाय अपना उत्पादन कम कर देते हैं और श्रमिकों की छंटनी कर सकते हैं,जिससे अस्थायी बेरोजगारी हो सकती है। उदाहरण: मंदी के दौरान श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया गया जब उपभोक्ता मांग में कमी के कारण कंपनियां उत्पादन कम कर देती हैं और नौकरियों में कटौती करती हैं।
- मौसमी बेरोजगारी: मौसमी बेरोजगारी तब होती है जब लोग अपनी नौकरी की प्रकृति के कारण वर्ष के कुछ निश्चित मौसमों या अवधियों के दौरान काम से बाहर होते हैं। यह श्रम की मांग में मौसमी बदलावों से जुड़ा है। उदाहरण: कृषि श्रमिक जो केवल रोपण या फसल के मौसम के दौरान नियोजित होते हैं या पर्यटन उद्योग में श्रमिक जो केवल अधिक यात्रा सीजन के दौरान व्यस्त होते हैं।
- प्रच्छन्न बेरोजगारी: प्रच्छन्न बेरोजगारी तब होती है जब आवश्यकता से अधिक लोग कार्यरत होते हैं और उत्पादन में उनका योगदान न्यूनतम या शून्य होता है। ऐसा अक्सर उन क्षेत्रों में होता है जहां श्रम की वास्तविक आवश्यकता की तुलना में बहुत अधिक लोग काम कर रहे होते हैं। उदाहरण: एक परिवार के स्वामित्व वाले खेत में, खेत पर काम करने वाले परिवार के बहुत से सदस्य वास्तव में खेत की समग्र उत्पादकता में महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे सकते हैं, जिससे छिपी हुई बेरोजगारी हो सकती है।
- दीर्घकालिक बेरोजगारी: दीर्घकालिक बेरोजगारी उस स्थिति को संदर्भित करती है जहां व्यक्ति लंबे समय तक बेरोजगार रहते हैं,आमतौर पर 12 महीने से अधिक। यह कौशल की कमी,नौकरी के अवसरों या अन्य बाधाओं के कारण हो सकता है। उदाहरण: एक व्यक्ति जो एक वर्ष से अधिक समय से नौकरी की तलाश कर रहा है,लेकिन सफलता नहीं मिली है, शायद इसका कारण उनके कौशल और उपलब्ध नौकरी के अवसरों के बीच बेमेल है।
रोजगार के प्रकार
- अल्परोजगार: अल्परोजगार तब होता है जब लोग कार्यरत तो होते हैं,लेकिन उनके कौशल या उत्पादकता का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया जाता है। हो सकता है कि वे ऐसी नौकरियों में काम कर रहे हों जो उनकी शिक्षा या प्रशिक्षण स्तर से मेल नहीं खाती हों। उदाहरण: एक उच्च शिक्षित व्यक्ति ऐसी नौकरी में काम कर रहा है जिसके लिए न्यूनतम कौशल की आवश्यकता होती है,जैसे कि एक डिग्री धारक कैशियर के रूप में काम करता है।
- औपचारिक रोजगार: नौकरियाँ जो श्रम कानूनों द्वारा विनियमित होती हैं,लिखित अनुबंध,नौकरी सुरक्षा और स्वास्थ्य बीमा और सेवानिवृत्ति योजनाओं जैसे लाभ प्रदान करती हैं। उदाहरण: एक बहुराष्ट्रीय निगम के लिए एकाउंटेंट के रूप में काम करने वाला एक पूर्णकालिक कर्मचारी,जो नियमित वेतन, स्वास्थ्य लाभ और सेवानिवृत्ति योगदान प्राप्त करता है।
- अंशकालिक रोजगार: ऐसी नौकरियाँ जहाँ व्यक्ति पूर्णकालिक पद की तुलना में प्रति सप्ताह कम घंटे काम करते हैं। उदाहरण: एक छात्र एक कॉफ़ी शॉप में पार्ट टाइम वेटर के रूप में काम करता है,सप्ताह में 20 घंटे काम करता है,और उसे स्वास्थ्य बीमा जैसे लाभ नहीं मिल रहे हैं।
- स्व रोजगार: रोजगार जहां व्यक्ति स्वयं के लिए काम करते हैं,अपना खुद का व्यवसाय चलाते हैं या कम नौकरी सुरक्षा और कम लाभ के साथ फ्रीलांसर के रूप में काम करते है।
- अस्थायी रोजगार: छोटी अवधि के लिए लक्षित नौकरियाँ, जैसे मौसमी कार्य या अनुबंध-आधारित भूमिकाएँ। उदाहरण: एक खुदरा कर्मचारी को छुट्टियों के मौसम में बढ़े हुए ग्राहक यातायात को संभालने के लिए काम पर रखा गया था,और मौसम खत्म होने के बाद नौकरी समाप्त हो जाती थी।
- आकस्मिक रोज़गार: रोजगार जहां श्रमिकों को आवश्यकतानुसार काम पर रखा जाता है,अक्सर अनियमित घंटों और न्यूनतम नौकरी सुरक्षा के साथ। उदाहरण: एक निर्माण श्रमिक को विशिष्ट परियोजनाओं या कार्यों के लिए काम पर रखा गया है,जैसे कि एक नया घर बनाना,बिना किसी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता या गारंटीकृत घंटों के।
- कार्यबल का आकस्मिककरण: स्व-रोज़गार और नियमित वेतनभोगी नौकरियों से आकस्मिक वेतन वाले काम में बदलाव को कार्यबल का आकस्मिककरण कहा जाता है।
- पूर्णकालिक रोजगार:ऐसी नौकरियाँ जिनमें व्यक्तियों को प्रति सप्ताह मानक संख्या में काम करना पड़ता है,आमतौर पर अधिक स्थिरता और लाभ प्रदान करती हैं। उदाहरण: एक प्रशासनिक सहायक एक कार्यालय में प्रति सप्ताह 40 घंटे काम करता है,नियमित वेतन,स्वास्थ्य लाभ और सवैतनिक अवकाश प्राप्त करता है।
- अनौपचारिक रोजगार: ऐसी नौकरियाँ जो श्रम कानूनों द्वारा विनियमित नहीं होती हैं,उनमें अक्सर औपचारिक अनुबंध, नौकरी सुरक्षा और लाभों का अभाव होता है। उदाहरण: स्नैक्स बेचने वाला एक स्ट्रीट वेंडर,जो बिना किसी औपचारिक अनुबंध या लाभ के स्वतंत्र रूप से काम करता है,और जिसके पास नौकरी की सुरक्षा नहीं हो सकती है।
बेरोज़गारी का मापन
बेरोज़गारी दर: यह श्रम शक्ति का वह प्रतिशत है जो बेरोजगार है। इसकी गणना इस प्रकार की जाती है:
बेरोजगारी दर = बेरोजगार श्रमिक × 100 कुल श्रम शक्ति
- सामान्य बेरोजगारी स्थिति (यूपीएस): यह उन लोगों को ट्रैक करता है जो वर्ष के अधिकांश समय बेरोजगार रहते हैं, विशेषकर वे जो नियमित नौकरियों की तलाश में हैं। यह अक्सर शिक्षित और कुशल श्रमिकों के बीच दीर्घकालिक बेरोजगारी को उजागर करता है,और इसे “खुली बेरोजगारी” भी कहा जाता है।
- सामान्य प्रधान और सहायक स्थिति बेरोजगारी (यूपीएसएस): यदि कोई व्यक्ति वर्ष भर अंशकालिक या सामयिक आधार पर भी काम पाने में असमर्थ है, तो उसे बेरोजगार माना जाता है।
- वर्तमान साप्ताहिक स्थिति बेरोजगारी (सीडब्ल्यूएस): यह उन व्यक्तियों की संख्या को संदर्भित करता है जिन्हें सर्वेक्षण सप्ताह के दौरान एक घंटे का भी काम नहीं मिला।
- वर्तमान दैनिक स्थिति बेरोजगारी (सीडीएस):यह उन व्यक्तियों की संख्या को संदर्भित करता है जिन्हें सर्वेक्षण सप्ताह के दौरान किसी दिन या कुछ दिनों में काम नहीं मिला।
भारत में बेरोजगारी के कारण:
- धीमी आर्थिक वृद्धि
- श्रम बल में वृद्धि: तीव्र जनसंख्या वृद्धि और सामाजिक कारक नौकरी चाहने वालों की अधिकता में योगदान करते हैं।
- ग्रामीण-शहरी प्रवास
- अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी: श्रम की प्रचुरता के बावजूद,भारत में पूंजी गहन प्रौद्योगिकी को मुख्य रूप से कठोर श्रम कानूनों के कारण अपनाया जाता है।
- दोषपूर्ण शैक्षिक प्रणाली: प्रासंगिक कौशल और प्रशिक्षण की आवश्यकता और उपलब्धता के बीच असमानता ।
- बुनियादी ढांचे के विकास का अभाव
- रोजगार की कमी
मादक पदार्थों की लत
परिभाषा:-
- “मादक पदार्थ जैसे – शराब,मारिजुआना,हेरोइन,तंबाकू जैसे मनो-सक्रिय पदार्थों का हानिकारक या खतरनाक उपयोग है”।— संसदीय स्थायी समिति।
आंकङे
- 21 करोड़ लोग नशीली दवाओं का ,16 करोड़ शराब का सेवन,3 करोड़ कैनाबिस उपयोगकर्ता।
संबंधित शब्दावली
- दवाई का दुरूपयोग: चिकित्सा दिशानिर्देशों या सामाजिक मानदंडों से हटकर दवाओं का उपयोग अक्सर व्यक्ति और समाज के लिए नकारात्मक परिणामों का कारण बनता है।इसमें गैर-चिकित्सीय कारणों से या अत्यधिक मात्रा में दवाओं का सेवन शामिल है।
- पदार्थ उपयोग विकार (एसयूडी): एक चिकित्सीय स्थिति जिसमें नशीले पदार्थों (ड्रग्स या अल्कोहल) का बार-बार उपयोग शामिल है जो शारीरिक व मानसिक अस्वस्थता का कारण बनता है।
- निर्भरता: ऐसी स्थिति जिसमें शरीर दवा के प्रति अनुकूलित हो जाता है,जिससे सहनशीलता (उसी प्रभाव को प्राप्त करने के लिए अधिक दवा की आवश्यकता होती है) कम हो जाती है व कार्यशीलता प्रभावित होती है।
- दवा-सहायता उपचार (MAT): नशीली दवाईयों के सेवन की इच्छा को प्रबंधित कर मादक द्रव्यों के सेवन संबंधी विकारों के इलाज के लिए परामर्श और व्यवहार उपचारों का उपयोग।
- संभावित नकारात्मक प्रभावों मे कमी: रणनीतियों और नीतियों का उद्देश्य नशीली दवाओं के उपयोग से जुड़े नकारात्मक स्वास्थ्य, सामाजिक और कानूनी प्रभावों को कम करना है। इसमें नशीली दवाई/पर्दाथों के बिक्री केंद्रों पर निगरानी जैसी तकनीक सम्मिलित हैं।
- सहवर्ती विकार: किसी व्यक्ति में मादक द्रव्य उपयोग विकार और मानसिक स्वास्थ्य विकार दोनों की उपस्थिति,प्रभावी प्रबंधन के लिए एकीकृत उपचार दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
- मादक द्रव्यों का सेवन: शराब और अवैध दवाओं सहित मनो-सक्रिय पदार्थों का हानिकारक या खतरनाक उपयोग,व्यवहार के एक पैटर्न की विशेषता है जो महत्वपूर्ण प्रतिकूल परिणामों(बिगड़ता स्वास्थ्य,रिश्तों और दैनिक कामकाज पर नकारात्मक प्रभाव) की ओर ले जाता है।
मादक पदार्थों की लत के कारण
- आर्थिक: बेरोज़गारी और बदलते परिवेश के कारण नशीली दवाओं के उपयोग के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है।
- सामाजिक: माता-पिता की देखभाल की कमी, हिप्पी जैसी प्रतिसंस्कृति का प्रभाव और संचार अंतराल मादक द्रव्यों के सेवन में योगदान कर सकते हैं।
- शैक्षिक: पाठ्यक्रम में कम जागरूकता और नशीली दवाओं के उपयोग के परिणामों के बारे में लापरवाही महत्वपूर्ण शैक्षिक कारक हैं।
- मनोवैज्ञानिक: आत्मसम्मान में कमी,दर्द कम करने की इच्छा,अनिद्रा और मनोवैज्ञानिक तनाव जैसे मुद्दे नशीली दवाओं की लत को प्रेरित कर सकते हैं।
- सांस्कृतिक: वैश्वीकरण और सामाजिक विघटन पारंपरिक मूल्यों को नष्ट कर सकते हैं, जिससे नशीली दवाओं के उपयोग में वृद्धि हो सकती है।
- फ़िल्मों में शराब का खुला प्रचार
- सामाजिक स्वीकार्यता की भावना
- भौगोलिक: “गोल्डन ट्राइएंगल” एवम् “गोल्डन क्रिसेंट” जैसे क्षेत्रों की निकटता से नशीली दवाओं की उपलब्धता और जोखिम बढ़ जाता है।

चुनौतियां
- सामाजिक स्वीकृति: पश्चिमी राजस्थान जैसे कुछ क्षेत्रों में अफ़ीम जैसे पदार्थों की गहरी सामाजिक स्वीकृति है।
- आसान उपलब्धता: नशीली दवाओं तक व्यापक पहुंच से लत से निपटना कठिन हो जाता है।
- कमज़ोर युवा: विभिन्न सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों के कारण युवा विशेष रूप से नशीली दवाओं की लत के प्रति संवेदनशील होते हैं।
- भौगोलिक स्थिति: गोल्डन ट्राइएंगल और गोल्डन क्रीसेंट जैसे प्रमुख मादक पदार्थों की तस्करी वाले क्षेत्रों से भारत की निकटता इस मुद्दे को बढ़ा देती है।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का अभाव: अपर्याप्त वैश्विक सहयोग मादक पदार्थों की तस्करी और लत को नियंत्रित करने के प्रयासों में बाधा डालता है।
- सामाजिक कलंक: लत से जुड़ा कलंक व्यक्तियों को मदद मांगने से हतोत्साहित करता है, जिससे समस्या और गंभीर हो जाती है।
प्रभाव
- परिवारों में भावनात्मक तनाव: तनाव,चिंता और अवसाद में वृद्धि।
- परिवारों पर वित्तीय बोझ: इलाज के लिए महत्वपूर्ण लागत और आय का नुकसान।
- हेल्थकेयर पर बढ़ी मांग: चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की अधिक आवश्यकता।
- उत्पादकता का नुकसान: कार्य प्रदर्शन और आर्थिक उत्पादन में कमी।
- अपराध दर में वृद्धि: नशीली दवाओं से संबंधित अधिक अपराध और हिंसा।
- उच्च कानूनी लागत: कानून प्रवर्तन और कानूनी कार्यवाही पर खर्च में वृद्धि।
- कमजोर शैक्षणिक प्रदर्शन: स्कूलों में उच्च ड्रॉपआउट दर और व्यवहार संबंधी मुद्दे।
- सामाजिक एकांत:व्यक्तिगत संबंधों को प्रभावित करने वाला प्रत्याहार और कलंक।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम: एचआईवी और हेपेटाइटिस जैसी संक्रामक बीमारियों का फैलना।
- आर्थिक प्रभाव: कार्यबल की भागीदारी में कमी और आर्थिक विकास में गिरावट।
रोकथाम
- रोकथाम कार्यक्रम: स्कूलों,समुदायों और परिवारों को लक्षित करके नशीली दवाओं के दुरुपयोग और लत को रोकने के लिए शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाना।
- उपचार और परामर्श: चिकित्सा,परामर्श और सहायता समूहों सहित चिकित्सा और मनोवैज्ञानिक उपचार तक पहुंच।
- डिटॉक्सीफिकेशन सेवाएँ: वापसी के लक्षणों को सुरक्षित रूप से प्रबंधित करने और शरीर से दवाओं को खत्म करने के लिए चिकित्सा सहायता।
- पुनर्वास कार्यक्रम: संरचनात्मक पुनर्वास कार्यक्रम जिसमें चिकित्सा,जीवन कौशल प्रशिक्षण और पुनरावृत्ति रोकथाम रणनीतियाँ शामिल हैं।
- दवा-सहायता -उपचार (एमएटी): लालसा और वापसी के लक्षणों को प्रबंधित करने में मदद के लिए दवाओं का उपयोग,जिसे अक्सर परामर्श के साथ जोड़ा जाता है।
- सहायता समूह: सहकर्मी समर्थन और साझा अनुभवों के लिए नारकोटिक्स एनोनिमस (NA) जैसे सहायता समूहों में भागीदारी।
- नुकसान कम करने की रणनीतियाँ: नशीली दवाई बिक्री केंद्रो की निगरानी रखना और सुरक्षित दवा उपयोग प्रथाओं पर जानकारी प्रदान करना।
- पारिवारिक और सामाजिक समर्थन: प्रोत्साहन और स्थिरता प्रदान करने के लिए पुनर्प्राप्ति प्रक्रिया में परिवार के सदस्यों और समर्थन नेटवर्क को शामिल करना।
- कानूनी और नीतिगत उपाय: ऐसे कानूनों और नीतियों को लागू करना जो मादक पदार्थों की तस्करी को रोकते हैं और व्यसन उपचार और पुनर्प्राप्ति सेवाओं का समर्थन करते हैं।
- पुनःएकीकरण कार्यक्रम:नौकरी प्रशिक्षण,शिक्षा और आवास सहायता सहित समाज में पुनः एकीकरण में सहायता।
अन्य प्रयास :-
- “ऑपरेशन म्याऊ-म्याऊ”– बाड़मेर पुलिस ने नशे को रोकने के लिए
- “ऑपरेशन सीमा” – – श्रीगंगानगर जिला प्रशासन द्वारा नशीले पदार्थ की तस्करी की रोकथाम हेतु शुरू किया गया
- “ऑपरेशन भौकाल” मादक पदार्थ के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई हेतु जोधपुर रेंज पुलिस द्वारा चलाया जा रहा है
- नया सवेरा अभियान – – जोधपुर जिला प्रशासन द्वारा नशे की रोकथाम हेतु
- एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स:– इस फोर्स की राजस्थान में 9 चौकियां स्थापित होगी
मादक पदार्थों के व्यसन रोकने हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदम:
संवैधानिक
- अनुच्छेद 47: राज्य को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पदार्थों के निषेध की दिशा में काम करने का आदेश देता है।
कानूनी उपाय:
- एनडीपीएस (NDPS)अधिनियम, 1985: नशीली दवाओं के दुरुपयोग को रोकने के लिए कड़े उपायों के साथ मादक दवाओं के उत्पादन, बिक्री और उपयोग को विनियमित और दंडित करता है।
- COTPA, 2003(सीओटीपीए, 2003): सार्वजनिक धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाने,विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने और स्वास्थ्य चेतावनियों को लागू करके तंबाकू की खपत को नियंत्रित करता है।
- एनएपीडीडीआर (NAPDDR): निवारक शिक्षा,जागरूकता और समुदाय-आधारित हस्तक्षेपों के माध्यम से नशीली दवाओं की मांग को कम करने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- नशा मुक्त भारत अभियान: एक राष्ट्रव्यापी अभियान जिसका उद्देश्य जागरूकता और नशा मुक्ति कार्यक्रमों के माध्यम से नशा मुक्त भारत बनाना है।
- NDDP(एनडीडीपी): नशामुक्ति केंद्रों और परामर्श के माध्यम से उपचार और पुनर्वास सेवाएं प्रदान करता है।
- स्कूल-आधारित जागरूकता (नवचेतना): नशीली दवाओं के उपयोग के खतरों के बारे में छात्रों को शिक्षित करना,नशीली दवाओं से मुक्त जीवन शैली को बढ़ावा देना।
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