भारतीय समाज में जाति और वर्ग आपस में गहराई से जुड़े हैं, जो सामाजिक और आर्थिक संरचना को प्रभावित करते हैं। समाजशास्त्र इनका सामाजिक गतिशीलता और सत्ता संरचनाओं पर प्रभाव अध्ययन करता है।
विगत वर्षों के प्रश्न
वर्ष | प्रश्न | अंक |
2023 | किस प्रकार जाति व्यवस्था समाज का खण्डात्मक विभाजन प्रस्तुत करता है? | 5M |
2021 | जाति व्यवस्था असमानता का उदाहरण क्यों है? | 2M |
2021 | एम.एन. श्रीनिवास द्वारा प्रभुजाति को स्पष्ट करने हेतु कौनसे लक्षण बताए गए हैं? | 5M |
2018 | जाति एक अन्तर्विवाही समूह है, कैसे ? | 2M |
2016 | जाति और वर्ग में अंतर कीजिए । | 5M |
2016 Special | भारत में परंपरागत रूप में जाति किस प्रकार श्रम विभाजन से संबंधित है ? | 2M |
2016 Special | जी.एस. घुरये द्वारा प्रदत्त जाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिएl | 5M |
जाति
- कास्ट शब्द की उत्पति पुर्तगाली शब्द ‘Casta’से हुई,जिसका अर्थ प्रजाति,नस्ल या जन्म है।सबसे पहले गार्सिया डी ओर्टा द्वारा उपयोग किया गया।
- विभिन्न परिभाषाए:- (Innka use aap Answer ko shuru krne me kar skte ho )
- “मैकाइवर और पेज: “जब व्यक्त्ति का वर्ग पूर्व निर्धारित हो और उसके बदलने की कोई आशा ना हो तो वर्ग प्रवर्तित हो कर जाति के रूप मे स्पष्ट होता है।”
- केतकर: “एक जाति एक सामाजिक समूह है जिसमें दो विशेषताएं हैं –
- सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक ही सीमित है जो सदस्यों से जन्म लेते हैं और इस प्रकार पैदा हुए व्यक्ति ही इसमें शामिल होते हैं;
- सदस्य एक कठोर सामाजिक व्यवस्था द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिए जाते है।
- मजुमदार और मदन: “जाति एक बंद वर्ग है.”
- एन.के. दत्ता: “एक जाति के सदस्य जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं,तथा अन्य जाति के व्यक्तियों के साथ भोजन करनें व उनके घर का पानी पीने के संबंध में भी इसी प्रकार के कुछ कठोर नियम रहते है।तथा प्रत्येक जाति के कुछ निश्चित व्यवसाय होते हैं।”
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत
- पारंपरिक सिद्धांत
- जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का विस्तार है, जहाँ चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर से हुई है। ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न ब्राह्मण वर्ग सामाजिक व्यवस्था में सबसे ऊपर थे।
- सामाजिक ऐतिहासिक सिद्धांत
- जाति व्यवस्था की उत्पत्ति लगभग 1500 ईसा पूर्व आर्यों के भारत आगमन के साथ हुई।
- धार्मिक सिद्धांत
- ऐसा माना जाता है कि किसी की जाति उसके पिछले जन्मों के कर्मों से निर्धारित होती है।
- सेनार्ट का सिद्धांत
- भारतीय, यूनानी और रोमन समाज का समानांतर अध्ययन करने के बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का कारण नस्लीय भेदभाव नहीं बल्कि सामाजिक भेदभाव है।
- व्यावसायिक सिद्धांत
- नेसफील्ड के अनुसार, ‘प्रारंभिक श्रम विभाजन’ अंतर्विवाही व्यावसायिक समूहों में विकसित हुआ। समय के साथ, ये समूह जाति व्यवस्था में तब्दील हो गए।
- नस्लीय सिद्धांत
- “जाति नस्ल का एक रुप है जो आर्यों के साथ भारत में आई” – हर्बर्ट रिस्ले
- सिद्धांत:जाति व्यवस्था नस्लीय मतभेदों से उत्पन्न हुई, जिसमें आर्यों (इंडो-आर्यन) ने भारत के मूल जन द्रविड़ों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया।
- इस सिद्धांत के अनुसार, आर्यों ने मूल निवासियों को पराजित कर अपने रक्त के वर्चस्व की रक्षा के लिए नस्लीय वर्चस्व व्यवस्था विकसित की, जो बाद में जाति व्यवस्था में बदल गई। रिस्ले का मानना था कि उच्च जातियाँ इंडो-आर्यन से उत्पन्न हुईं जबकि निचली जातियाँ गैर-आर्यन प्रजातियों से उत्पन्न हुईं।
- आलोचना: आलोचकों का तर्क है कि नस्लीय सिद्धांत जाति व्यवस्था की जटिलता को अधिक सरल बनाता है और व्यवसाय और सामाजिक भूमिकाओं जैसे अन्य महत्वपूर्ण कारकों की उपेक्षा करता है।
- अन्य समर्थक: घुर्ये (पुस्तक- भारत में जाति और नस्ल) ने आंशिक रूप से इस सिद्धांत का समर्थन किया; मजूमदार (भारत में -प्रजाति और संस्कृति पुस्तक)
- ईश्वरीय उत्पत्ति सिद्धांत
- यह सिद्धांत कहता है कि जाति व्यवस्था स्वयं ब्रह्मा द्वारा बनाई गई थी।
जाति की विशेषताएँ
ए.के.दत्ता ने जाति की निम्नलिखित विशेषताओं को स्पष्ट किया है
- जाति का कोई भी सदस्य जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता।(अन्तरजातीय विवाह)
- प्रत्येक जाति में भोजन और खान-पान संबंधित प्रतिबंध होते हैं।
- जाति के व्यवसाय प्रायः निश्चित होते हैं।
- वास्तव में जातियाँ अधिक परिवर्तनशील हैं,अनगिनत जातियां (उपजातियां) विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं,जिनमें से प्रत्येक की सामाजिक स्थिति और व्यावसायिक भूमिकाएं अलग-अलग हैं।
- जन्म के साथ ही जाति की सदस्यता व्यक्ति को जीवन पर्यंत प्राप्त हो जाती है किंतु जातीय नियमों के विपरीत कृत्यों को करने में उसकी सदस्यता समाप्त भी हो सकती है
घुर्ये ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति “जाति ,वर्ग ,व्यवसाय “ में जाति की विशेषताओं को स्पष्ट किया है
- समाज का खण्डीय विभाजन: जाति व्यवस्था समाज को विभिन्न खंडों या भागों में विभक्त कर देती हैं और प्रत्येक खंड या भाग अनेक उपखंडों या अपभागों में विभक्त हो जाता हैं और प्रत्येक खंड या उपखंड के व्यक्तियों की स्थिति,पद,कार्य आदि निश्चित रहते हैं जिनसें व्यक्तियों कि निष्ठा,प्रेम, सहानुभूति उच्च जाति की अपेक्षा अपनी जाति में अधिक होती हैं। अतः स्पष्ट है कि संपूर्ण समाज अनेक खण्डों व उपखंडों में विभक्त हो जाता है।
- संस्तरण :जाति व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न जातियों में एक संस्तरण या ऊँच – नीच के क्रम अथवा उतार-चढ़ाव के क्रम देखने को मिलते हैं।संस्तरण में परिवर्तन धन, संपत्ति, प्रतिष्ठा के आधार पर संभव नहीं होता क्योंकि जाति एक बंद वर्ग का रूप है।
- भोजन व सहवास पर प्रतिबंध- दूसरी जाति के सदस्यों द्वारा बनाया गया भोजन निषिद्ध है।
- नागरिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं प्रतिबन्ध- तत्कालीन समय में ब्राह्मणों को तथाकथित उच्च मानते हुए सर्वाधिकार प्रदान किए गये और दलितों पर धार्मिक निर्योग्यताएँ लादी गई।
- व्यवसाय के चयन का अभाव – पूर्व निर्धारित या परंपरागत व्यवसाय, जिसमें परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है। सदस्यों से आशा की जाती है कि वे जाति व्यवस्था द्वारा निर्धारित व्यवसाय करें।
- विवाह संबंधी प्रतिबंध– प्रत्येक जाति में इस बात का कठोरता से पालन किया जाता है कि इसके सदस्य अपनी ही जाति में विवाह संबंध स्थापित करें। इस रूप में,जाति अंतर्विवाही समूह का प्रतिनिधित्व करती है। विवाह संबंधी प्रतिबंध,चाहे वह उच्च या निम्न हो, सभी जातियों में पाए जाते हैं।
केतकर द्वारा विशेषताएँ-
- सदस्यता- जन्म आधारित,सदस्यों से जन्मे लोगों को सदस्यता प्राप्त होती है और इसमें इस प्रकार जन्मे सभी व्यक्ति शामिल होते हैं।
- अंतर्विवाह- सदस्यों को अपनी जाति से बाहर विवाह करने की मनाही है।
जाति के गुण व कार्य:
- सामाजिक स्थिति का निर्धारण:किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति जाति व्यवस्था के कारण जन्म से तय होती है,जिसका संपत्ति,धन या सामाजिक सफलता से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- व्यवसाय का निर्धारण:व्यवसाय जन्म से पूर्व निर्धारित होता है,व्यक्ति अपने पारिवारिक व्यापार से संबंधित कौशल प्राप्त करते हैं, जिससे प्रतिस्पर्धा संबंधी तनाव के बिना एक स्थिर कैरियर पथ की ओर अग्रसर होते हैं।
- मानसिक सुरक्षा:जाति व्यवस्था जीवन की दिशा की योजना बनाकर,जीवन के उतार-चढ़ाव के प्रभाव को कम करके मनोवैज्ञानिक मानसिक सुरक्षा और स्थिरता प्रदान करती है। सब कुछ पूर्व निर्धारित और योजनाबद्ध होता है, जिससे मनोवैज्ञानिक सुरक्षा मिलती है और तनाव कम होता है।
- जीवन साथी का चयन:जाति नियम विवाह विकल्पों का मार्गदर्शन करते हैं, जिससे व्यक्तियों को उनकी जाति के भीतर उपयुक्त जीवन साथी चुनने में मदद मिलती है।
- सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक व्यवस्था:जाति व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है,व्यक्तिगत संकट के दौरान सहायता और समाधान प्रदान करती है। जाति व्यवस्था व्यक्तिगत सामाजिक व्यवहार का भी मार्गदर्शन करती है, जिससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है।
- व्यवहार नियंत्रण (सामाजिक नियामक):जाति सख्त नियमों के माध्यम से व्यवहार संबंधी मानदंडों को लागू करती है, नियम तोड़ने वालों को जाति से बाहर करती है तथा यह सुनिश्चित करती है कि सदस्य सामाजिक अपेक्षाओं का पालन करें।
- अतिरिक्त प्रकार्य:जाति व्यवस्था ने सामाजिक संरचनाओं के विकास को प्रभावित करते हुए सामाजिक प्रशिक्षण और दक्षता में योगदान दिया है।
जाति व्यवस्था की कमियाँ व दोष :
- अप्रजातांत्रिक : समानता की भावनाओं पर कुठाराघात करती है।असमानता और पदानुक्रम को बढ़ावा देता है।
- श्रमिकों की गतिशीलता में बाधक: व्यक्तियों को पारंपरिक व्यवसायों तक सीमित करती है, विकल्प और कौशल-आधारित प्रगति को रोकती है।
- सामाजिक प्रगति में बाधक: रूढ़िवादिता और बहिष्कार का डर सामाजिक परिवर्तन और नवाचार को रोकता है।
- सांस्कृतिक विकास में बाधक: सांस्कृतिक एकता का अभाव; पदानुक्रम और भेदभाव सामूहिक प्रगति में बाधा डालते हैं।
- व्यक्तिगत विकास में बाधक: व्यक्तिगत क्षमताओं की उपेक्षा करना, योग्यता के बजाय जन्म के आधार पर भूमिकाएँ थोपना।
- सामाजिक विकास में बाधा: सामाजिक असमानता पैदा करता है, समाज को उच्च और निम्न जातियों में विभाजित करता है।
- आर्थिक विकास में बाधा: व्यावसायिक गतिशीलता को सीमित करता है, दक्षता कम करता है और आर्थिक असमानता पैदा करता है।
- राष्ट्रीय एकता में बाधाएँ: राष्ट्रीय एकता पर जाति के प्रति निष्ठा को प्राथमिकता देना, फूट को बढ़ावा देना।
- धार्मिक परिवर्तन: हिंदू धर्म में कठोरता के कारण ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरण हुआ।
- सीमित विवाह क्षेत्र: जाति विवाह विकल्पों को प्रतिबंधित करती है, सामाजिक एकीकरण को सीमित करती है।
- विकृत राजनीतिक प्रथाएँ: जातिगत राजनीति और तुष्टिकरण की नीतियाँ गहरी जड़ें जमाए बैठी जाति व्यवस्था का परिणाम हैं
आधुनिक समय में जातियाँ
- व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपना व्यवसाय चुन सकते हैं और वे ऐसा कर भी रहे हैं।
- निम्न जाति के व्यक्ति आज उच्च पदों पर कार्यरत हैं।
- कई उच्च वर्ग या जाति के सदस्यों ने भी अपना व्यवसाय या पेशा बदल लिया है।
- वैवाहिक रिश्ते कमजोर होते जा रहे हैं।
- हर साल प्रेम विवाहों की संख्या बढ़ती जा रही है और अंतरजातीय विवाहों से यह स्पष्ट हो गया है कि विवाह संबंधी जातीय बंधन टूट रहे हैं।
- घुर्ये द्वारा प्रस्तुत विशेषताएँ आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलती हैं लेकिन शहरी क्षेत्रों में जाति व्यवस्था परिवर्तन की राह पर आगे बढ़ चुकी है।
जाति व्यवस्था के परिवर्तित प्रतिमान
- व्यवसाय में परिवर्तन
- कार्य क्षमता का महत्व
- अस्पृश्यता का अंत
- विवाह पद्धति में परिवर्तन (अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विवाह
- शहरीकरण और औद्योगीकरण
- धन के महत्व में वृद्धि
- सामाजिक सुधार आंदोलन
- राजनीतिक आंदोलन
- भारत की स्वतंत्रता एवं न्याय व्यवस्था
- आर्थिक परिवर्तन और उदारीकरण (1991 से आगे- एलपीजी सुधार)
- वैश्वीकरण और पश्चिमीकरण
- मीडिया और प्रौद्योगिकी
भारतीय समाज में जाति और वर्ग: जजमानी व्यवस्था
- जजमानी प्रणाली या यजमानी प्रणाली एक आर्थिक प्रणाली थी,जो विशेष रूप से भारत के गांवों में पाई जाती थी, जिसमें एक जाति दूसरी जाति के लिए विभिन्न कार्य करती थी और बदले मे अनाज या सामान प्राप्त करती थी।
- यह एक आर्थिक अनुबंध है जिसमें सेवा प्राप्त करने वाली जाति को जजमान कहा जाता था जबकि सेवा प्रदाता को कमिन या प्रजा कहा जाता था।
- विलियम वाइज़र, पुस्तक- “द हिंदू जजमानी सिस्टम” , उनके कार्यात्मक दृष्टिकोण के अनुसार उन्होंने कहा कि जजमानी प्रणाली समानता आधारित (एक समतावादी प्रणाली) थी, विभिन्न जातियां एक-दूसरे पर निर्भर थीं, एक-दूसरे से सुरक्षा सुनिश्चित करती थीं और एक-दूसरे के महत्व को समझती थीं।
- लुई ड्यूमॉन्ट की पुस्तक – “होमो हायरार्किकस” “यह एक शोषणकारी व्यवस्था थी और ऊंची जातियां निचली जातियों का शोषण करती थीं”
- ब्राह्मण सेवा प्रदान करते थे लेकिन उन्हें कामिन या प्रजा नहीं कहा जाता था।
- कुछ श्रमिक जातियाँ सेवा प्रदाता थीं, लेकिन बदले में उन्हें कोई सेवा नहीं मिलती थी।
- विभिन्न सेवाओं का मूल्य समान एवं पर्याप्त नहीं था।
- जजमान अधिकतर ऊंची जाति के थे और निम्न जाति के कामिन थे।
- कार्य-
- आर्थिक लेन-देन एक सेवा प्रदाता और संरक्षक के बीच सम्पन्न होते हैं जिन्हें क्रमश: प्रजा और जजमान कहा जाता है।सेवा प्रदाताओं को उनकी सेवाओं के बदले मुआवजे के रूप में सामान या धन प्राप्त होता है,जैसे सुनार आभूषण बनाता है,ब्राह्मण यज्ञ करता है।
- सामाजिक संबंधों के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था की अंतर-निर्भरता के कारण विभिन्न प्रकार के ढलाईकारों का निर्माण हुआ। उदाहरण-जमींदार कुम्हार के साथ अच्छा व्यवहार करते थे क्योंकि उन्हें उनकी सेवाओं की आवश्यकता होती थी।
- राजनीतिक समर्थन – जजमान और कामिन ने एक एकीकृत समूह के रूप में कार्य किया क्योंकि जजमान को अपने शासन की वैधता प्रदर्शित करने के लिए कामिन के समर्थन की आवश्यकता थी। उदाहरण – जमींदार
- कमियाँ –
- शोषण – प्रकृति में प्रतिबंधात्मक, इसके कारण निम्न वर्गों का शोषण हुआ,जिन्हें अपमानजनक कार्य करने के लिए मजबूर किया गया। उदाहरण – बंधुआ मजदूर।
- सामाजिक सीमाएँ – लोगों पर अपनी जाति के अलावा अन्य कार्य न करने की बाध्यताएँ। कभी-कभी कामिन को किसी अन्य जजमान की सेवा करने की अनुमति नहीं थी।
शहरीकरण, आधुनिकीकरण, आधुनिक व्यवसाय एवं शिक्षा के परिणामस्वरूप जजमानी प्रथा समाप्त हो गई। लेकिन उत्तरी भारत में यह प्रतीकात्मक रूप से आज भी मौजूद है।
प्रभुत्व जाति
- एम.एन.श्रीनिवास द्वारा परिभाषित
- उन्होंने सबसे पहले रामपुरा गांव पर अपने शुरुआती शोध पत्रों में इसका प्रस्ताव रखा था।
- “एक विशेष जाति आर्थिक,आध्यात्मिक और राजनीतिक रूप से अन्य जातियों से ऊपर है।”
- सरल शब्दों में,एक जाति जो आर्थिक या राजनीतिक शक्ति प्रदान करती है,उसके पास महत्वपूर्ण संख्या बल होता है और पदानुक्रम में काफी अच्छी स्थिति होती है।
छह लक्षण:
- कृषि योग्य भूमि की पर्याप्त मात्रा
- संख्यात्मक शक्ति (संख्या बल)
- क्षेत्रीय प्रभुत्व – स्थानीय पदानुक्रम में उच्च स्थान। उच्च अनुष्ठान स्थिति (या संस्कृतिकरण) – कुछ मामलों में, जाति का जाति पदानुक्रम में उच्च स्थान होता है (जैसे, ब्राह्मण, राजपूत), लेकिन मध्यम या निचली जातियाँ भी संस्कृतिकरण के माध्यम से प्रमुख बन सकती हैं।
- पश्चिमी शिक्षा
वर्ग
- मैकाइवर एवं पेज – “एक सामाजिक वर्ग समूह का वह भाग है जो कि सामाजिक स्थिति के आधार पर अन्य लोगों से पृथक किया जा सकता है”।
- कार्ल मार्क्स – “वर्ग किसी भी समाज का एक ऐसा तथ्य है जिसमें संपत्ति और उत्पादन के साधन सामाजिक स्तरीकरण का आधार प्रस्तुत करते हैं”। मनुष्य एक वर्ग प्राणी है अर्थात् समाज में उसकी स्थिति, आयु, शिक्षा आदि एक समान नहीं है।
- सामान्य अर्थों में,समान सामाजिक परिस्थितियों वाले लोगों का एक समूह,जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से संबंधित होते हैं, एक वर्ग का गठन करते हैं। यह शक्ति, प्रतिष्ठा, धन, शिक्षा व्यवसाय, क्षमता आदि जैसे कारकों पर आधारित है।
- वर्ग; स्तरीकरण की एक खुली व्यवस्था है जिसका आधार सामाजिक स्थिति, आर्थिक ,शैक्षणिक स्थिति, सांस्कृतिक स्थिरता, योग्यता आदि हो सकता है।
- अंग्रेजों के आने से पहले वर्ग व्यवस्था नहीं थी क्योंकि जाति व्यवस्था ही सामाजिक स्तरीकरण का एकमात्र आधार थी। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में वर्ग व्यवस्था दो प्रमुख कारकों के कारण विकसित हुई और इसके परिणामस्वरूप दो वर्ग उभरे – अमीर और गरीब
- भूमि सुधार- रैयतवारी, जमींदारी और महालवारी व्यवस्था लागू की गई जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण समाज में दो वर्ग उभरे-
- जमींदार, महाजन, साहूकार, भूस्वामी
- किसान, रैयत, शिल्पी, छोटे पशुपालक
- औद्योगीकरण और शहरीकरण- इन दो वर्गों के कारण शहरी समाजों में
- उद्योगपति, पूंजीपति, निवेशक वर्ग
- मजदूर वर्ग
- भूमि सुधार- रैयतवारी, जमींदारी और महालवारी व्यवस्था लागू की गई जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण समाज में दो वर्ग उभरे-
- ब्रिटिश शासन के दौरान मैकाले की शिक्षा प्रणाली के परिणामस्वरूप शहरी समाज में एक नया वर्ग उभरा जो मध्यम वर्ग था।
- भारत में मध्यम वर्ग के उदय के प्रमुख कारण थे
- मैकाले की शिक्षा प्रणाली- उच्च जातियां प्रभावित हुईं
- औद्योगीकरण और शहरीकरण- उच्च लागत प्रभावित हुई
- हरित क्रांति- अन्य पिछड़े वर्ग
- आरक्षण और शिक्षा – अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे निम्न वर्ग
- 1990 के बाद एलपीजी सुधार – महिलाएँ और मध्यम वर्ग
वर्ग प्रणाली की विशेषताएं
- पिरामिडनुमा संरचना
- किसी समाज में अनेक वर्ग हो सकते हैं।
- उच्च वर्ग – कम जनसंख्या – अधिक संपत्ति।
- निम्न वर्ग-अधिक जनसंख्या-कम संपत्ति।
- किसी समाज में अनेक वर्ग हो सकते हैं।
- ऊँच-नीच की भावना
- विभिन्न वर्गो के बीच ऊँच-नीच की भावना पाई जाती है। जैसे पूँजीपति स्वयं को अन्य वर्गो से श्रेष्ठ समझते उदाहरण: शासक वर्ग और आम नागरिक
- समान सामाजिक परिस्थितियाँ
- एक ही वर्ग के सदस्यों की सामाजिक परिस्थितियाँ समान होती हैं, उनका आधार भिन्न-भिन्न हो सकता है
- वर्ग चेतना
- इस प्रणाली के परिणामस्वरूप वर्ग चेतना और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न होती है उदाहरण- श्रमिक वर्ग ने संगठित होकर वेतन, बोनस, काम के घंटे आदि मुद्दों पर आवाज उठाई।
- खुली व्यवस्था
- वर्ग की सदस्यता अप्राकृतिक नहीं है, यह एक खुली व्यवस्था है, सदस्यता प्राप्त की जा सकती है।
- वर्गों के बीच सामाजिक दूरी
- कुछ वर्ग के सदस्यों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक संबंध समान होते हैं। इसीलिए वे अपने ही वर्ग के लोगों से संबंध स्थापित करते हैं।
- उपवर्गों का निर्माण
- अनेक उपवर्गो का निर्माण जैसे – एक वर्ग में उपवर्ग- जैसे मध्यम वर्ग में उच्च मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग।
- विशिष्ट विशेषताएं:
- प्रत्येक वर्ग में कुछ विशिष्ट वस्तुनिष्ठ विशेषताएँ होती हैं जो उसे पहचानने में मदद करती हैं
- जैसे – अमीर वर्ग पक्के मकानों और आलीशान अपार्टमेंटों में रहता है जबकि गरीब वर्ग झुग्गी-झोपड़ियों और अविकसित इलाकों में रहता है।
- समान अवसर
- एक ही वर्ग के लोगों को काम करने का समान अवसर मिलता है,जैसे उच्च वर्ग के लिए उद्योग-धंधे, निम्न वर्ग के लिए श्रम।
- समान जीवनशैली
- एक ही वर्ग के लोगों की जीवनशैली एक जैसी होती है। उच्च वर्ग के लोग खर्चीले होते हैं, विलासितापूर्ण वस्तुओं का उपभोग करते हैं, मध्यम वर्ग परम्पराओं का पालन करता है और निम्न वर्ग मुश्किल से जीवन व्यतीत करता है।
- प्राप्त स्थिति
- वर्ग व्यवस्था आवश्यकता और स्थिति के माध्यम से प्राप्त वस्तुस्थिति पर आधारित है।
- जन्मजात नहीं
- अशिक्षित परिवार में जन्मा व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर सकता है और शिक्षित वर्ग की सदस्यता ले सकता है।
वर्ग निर्धारण के कारक
- व्यवसाय की प्रकृति: समाज में अनेक वर्गों के उद्भव का आधार।
- आर्थिक स्थिति: वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थिति विशिष्ट सामाजिक स्थिति प्राप्त करने में सहायता करती है।उदाहरण-उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग का उदय
- शिक्षा: क्षमताओं या अक्षमताओं के आधार पर।उदाहरण- साक्षर या अशिक्षित।
- निवास स्थान: लोग अपनी स्थिति के अनुसार निवास का चयन करते हैं। उदाहरण- सिविल लाइन्स, लेबर कॉलोनी, मलिन बस्तियाँ आदि।
- धर्म- भारतीय समाज धर्म के आधार पर विभाजित है। उदाहरण- हिंदू वर्ग, मुस्लिम वर्ग, सिख वर्ग आदि
- जाति-वर्ग निर्धारण में मुख्य आधार है। विभिन्न जाति समूह एक वर्ग बनाते हैं।
कार्ल मार्क्स का मानना था कि सामाजिक वर्गों को निम्न आधारों पर परिभाषित किया गया है:
- संपत्ति और उत्पादन के साधनों का स्वामी कौन है
- जो उत्पादन प्रक्रिया में कार्य करता है
- काम और श्रम में शामिल सामाजिक रिश्ते
- मानव सामाजिक श्रम जो अधिशेष पैदा कर सकता है उसका उत्पादन कौन करता है और कौन नियंत्रित करता है
मार्क्स का मानना था कि समाज सामंती समाज से पूंजीवादी समाज में बदल गया है,जो दो सामाजिक वर्गों पर आधारित है:
- पूंजीपति वर्ग: शासक वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व होता है
- सर्वहारा वर्ग: वह श्रमिक वर्ग जिसका शोषण किया जाता है
रॉबर्ट बिएरस्टेड ने वर्ग निर्धारण के लिए 7 कारकों का उल्लेख किया है:
- परिवार या रक्त समूह
- संपत्ति,धन,पूंजी या आय
- निवास का स्थान
- निवास की अवधि
- पेशा/व्यवसाय
- शिक्षा
- धर्म
थॉर्स्टन वेब्लेन- चार श्रेणियां-वेब्लेन का मानना है कि प्रत्येक वर्ग उच्च वर्ग में पहुँचने के लिए आकर्षक एवं विलासितापूर्ण वस्तुओं का प्रयोग करता है।
- परजीवी या अनुत्पादक विलासिता वर्ग।
- रईस या नवाब।
- नव धनाढ्य या जुआरी वर्ग।
- उत्पादक श्रमिक वर्ग
नई वर्ग प्रणाली के आयाम
आधुनिक समाज में बढ़ते शिक्षा, औद्योगीकरण और अन्य विकासात्मक कार्यों के कारण वर्ग व्यवस्था में कई परिवर्तन हुए हैं। नये आयाम हैं-
- बौद्धिक वर्ग- शिक्षा और विज्ञान के साथ उभरा; समाज को एकजुट किया; शिक्षक, वैज्ञानिक, दार्शनिक आदि।
- शासक वर्ग– सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के सदस्य; सामाजिक आर्थिक विकास सुनिश्चित करते हैं
- किसान वर्ग- कृषि एवं संबंधित गतिविधियाँ
- पूंजीपति या पूंजीवादी वर्ग– औद्योगिक और आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता है; व्यवसायी, उद्योगपति।
- मजदूर या श्रमिक वर्ग– दैनिक वेतन भोगी, विक्रेता, खेत और कारखाने के श्रमिक, रिक्शा चालक।
- संभ्रांत वर्ग – स्वतंत्र पेशेवर; ज्ञान और तर्क के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाना; डॉक्टर, वकील, कलाकार।
- नौकरशाही वर्ग– सरकार का स्थायी अंग; प्रशासन चलाना; कलेक्टर, एस.डी.ओ
जाति और वर्ग में भेद
आधार | जाति | वर्ग |
अर्थ | आनुवंशिकता,विवाह, व्यवसाय और जीवनशैली पर लगाए गए प्रतिबंधों के आधार पर समाज का खंडीय विभाजन | स्तरीकरण की खुली व्यवस्था जिसका आधार सामाजिक, आर्थिक,शैक्षणिक, सांस्कृतिक स्थिति है। |
सदस्यता | जन्म के आधार पर प्रद्त्त | अर्जित की जाती है। |
व्यवसाय | पूर्व-निर्धारित,गतिशीलता नहीं | पूर्व निर्धारण नहीं |
मानदंड | निर्धारित मानदंडों व रीति-रिवाजों के पालन की आशा की जाती है। | कोई अनिवार्यता नहीं |
प्रकार | बंद और स्थिर प्रणाली | गतिशील और खुली व्यवस्था |
विवाह | अंतर्विवाही | वर्ग के बाहर भी विवाह किया जा सकता है। |
प्रकृति | स्थायी | अस्थायी |
धर्म | जाति व्यवस्था के धार्मिक अर्थ हैं। | वर्ग किसी धर्म पर आधारित नही होता है। |
अंतर | मनुष्य की श्रेष्ठता-हीनता पर आधारित। | सामाजिक स्थिति की के आधार पर श्रेष्ठता-हीनता |
लोकतंत्र | लोकतंत्र को प्रोत्साहन नही | लोकतंत्र को बाधित करे ऐसा आवश्यक नही |
असमानता | व्यापक सामाजिक अंतर | सामाजिक अंतर इतना व्यापक नहीं है। |
व्यवसाय
- जाति मूलतः व्यावसायिक नहीं है। इतिहास अलग-अलग व्यवसायों को अपनाने वाली विभिन्न जातियों के कई उदाहरण प्रदान करता है। एक ही जाति के सदस्य अलग-अलग व्यवसाय भी अपनाते थे।
- लेकिन सैद्धांतिक तौर पर पहले के समय में व्यवसायों को वर्णानुसार वर्णित किया जाता था। वर्ण व्यवस्था के तहत, ब्राह्मणों, क्षत्रिय,वैश्यों और शूद्रों के अपने पूर्वनिर्धारित व्यवसाय थे।
- ये वर्ण कार्य-आधारित थे और इसलिए कोई अपना व्यवसाय बदलकर इन्हें बदल सकता था।
- समय बीतने के साथ वर्ण और जातियाँ जन्म आधारित हो गईं और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता समाप्त हो गई। समूह के सदस्य को अपने समूह, वर्ण और जाति के व्यवसाय का पालन करना पड़ता था।
उदाहरण- ऋग्वेद में एक स्त्रोत से – ‘मैं एक गायक हूं, मेरे पिता एक चिकित्सक हैं, मेरी मां मकई पीसती हैं’ इसलिए एक ही परिवार के सदस्यों ने अलग-अलग वर्णों के अलग-अलग पेशे अपनाए।
वर्तमान परिदृश्य-
- व्यवसाय के आधार पर भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों का उदय हुआ। व्यावसायिक समानता आधुनिक युग में वर्ग का निर्धारण करती है।
- वर्ग व्यवस्था में, लोग पुरानी जाति व्यवस्था की तुलना में अधिक आसानी से व्यवसाय बदल सकते हैं, जिससे अधिक गतिशीलता की अनुमति मिलती है।
- व्यवसाय किसी वर्ग के निर्धारकों में से एक है।
निश्चित व्यवसाय के गुण और दोष
- गुण –
- श्रम विभाजन कार्य विशेषज्ञता की ओर ले जाता है।
- सभी वर्गों का कार्य निश्चित था जिससे संघर्ष की स्थिति नहीं थी।
- कुछ वर्गों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है और निकट के वर्गों के बीच भी अंतर किया जा सकता है – जैसे चर्मकार और खाल-ड्रेसर, बढ़ई और रथ निर्माता आदि।
- समाज में एक संतुलन स्थापित
- दोष-
- विभिन्न समूहों का शोषण बढ़ा।
- कौशल, योग्यता और रुचि के अनुसार व्यवसाय नहीं अपनाने के कारण दक्षता में कमी आई।
- यह आर्थिक विकास में बाधक बन गया।
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