लोक देवता राजस्थान की धार्मिक आस्था और संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। राजस्थान इतिहास & संस्कृति में लोक देवताओं की पूजा लोक जीवन, परंपराओं और सामाजिक मूल्यों को दर्शाती है। ये देवता अपने पराक्रम, बलिदान और जनसेवा के लिए प्रसिद्ध हैं और आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष सम्मान पाते हैं।

विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न

वर्षप्रश्नअंक
2000कल्ला जी राठौड 2M
1984रामदेवरा 2M
2010राजस्थान में शक्ति पूजा 5M
2000पाबूजी 5M
2000,2008  देवनारायण जी 5M
1999गोगा जी 5M
1997वीर तेजा जी 5M
1997बाबा रामदेव 5M
2000मध्यकालीन राजस्थान में प्रमुख संतों एवं लोक देवताओं का वर्णन कीजिए।10M

राजस्थान की लोक परंपरा में 13वीं सदी से एक नया अध्याय शुरू हुआ, जब इस क्षेत्र में तुर्क आक्रमण के बाद इस्लामी संस्कृति का प्रभाव बढ़ा। इस दौर में सामाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए कुछ महापुरुषों ने उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने मूर्ति पूजा और कर्मकांडों को छोड़कर सच्चे ईश्वर को हृदय में स्थान देने का मार्ग दिखाया। राजस्थान के इन महान व्यक्तियों ने अपने त्याग, साहस और समाज सेवा से लोगों को प्रेरित किया। इनकी महानता को समाज ने देवत्व का दर्जा दिया और इन्हें लोक देवताओं के रूप में पूजना शुरू किया। गोगाजी, तेजाजी, पाबूजी, मल्लीनाथ जैसे लोक देवता अपनी सादगी, धर्मनिष्ठा और जनकल्याण के कारण अमर हो गए।

गोगाजी : 

  • जन्मस्थान: ददरेवा (शीर्षमेड़ी) चूरु, स्मारक घुडमेड़ी(गोगमेड़ी) हनुमानगढ़ में स्थित है।
  • माता-पिता: ज़ेवर और बाछल के पुत्र।
  • समकालीन: गोगाजी को गोरखनाथ और महमूद गजनवी के समकालीन माना जाता है।
  • युद्ध और बलिदान: अपने चचेरे भाइयों अर्जन और सुरजन के साथ संपत्ति को लेकर युद्ध किया। इस युद्ध में उन्होंने उन्हें मार गिराया लेकिन अपने पशुओं को बचाते हुए शहीद हो गए।
  • सर्पदंश से सुरक्षा: गोगाजी को सर्पदंश से सुरक्षा प्रदान करने वाला माना जाता है। उनकी पूजा करने से विष का प्रभाव समाप्त हो जाता है।
  • उपदेश:
    • एकता और सहिष्णुता: हिंदू और मुस्लिम दोनों द्वारा पूजित, गोगाजी की विरासत सामुदायिक एकता का प्रतीक है।
    • सांस्कृतिक प्रभाव: गोगाजी की शिक्षाएं और उनके स्मारक, जैसे गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) में स्थित स्थल, सांस्कृतिक सामंजस्य और श्रद्धा को प्रेरित करते हैं।

वीर तेजा :

  • जन्म: 1073 ईस्वी में माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन खड़नाल गाँव (नागौर) में ताहडजी और रामकुंवरी के घर।
  • अपने ससुराल पनेर जाते समय, तेजाजी ने मेर लोगों से लाछा गूजरी की चोरी हुई गायों को छुड़ाने का निश्चय किया। इस यात्रा के दौरान सुरसुरा में उनका सामना एक सांप से हुआ।
  • तेजाजी जी ने साँप से वापस लौटकर आने का वादा किया।
  • बलिदान: गायों को छुड़ाने के बाद, तेजाजी ने सांप से किया हुआ वादा निभाते हुए वापस लौटकर उसे स्वयं को डसने दिया। गंभीर चोटों एवं खून से लथपथ,तेजाजी ने सांप को अपनी जीभ पर डसने दिया और भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन सुरसुरा (किशनगढ़) में अपने प्राण त्याग दिए।
  • उपदेश :
    • समर्पण और वचन-पालन: तेजाजी की कहानी वचन-पालन के महत्व को दर्शाती है, भले ही इसके लिए व्यक्तिगत हानि क्यों न उठानी पड़े।
    • निर्बलों की रक्षा: उन्हें निर्बलों का रक्षक माना जाता है, जो साहस और कर्तव्य का प्रतीक हैं।
  • तेजाजी की याद में भाद्रपद शुक्ल दशमी को ‘तेजा दशमी’ मनाई जाती है। इस अवसर पर परबतसर (नागौर) में एक विशाल पशु मेला लगता है, जिसमें क्षेत्र भर से हजारों लोग शामिल होते हैं।

पाबूजी :

  • जन्म: पाबूजी का जन्म 1239 ई. में धाँधल जी राठौड़ के घर कोलू (बाड़मेर) गाँव में हुआ। 
  • विवाह : सूरजमल सोढ़ा की पुत्री सोढ़ी से विवाह के दौरान, पाबूजी ने अपने प्रतिद्वंद्वी जिंदराव खींची द्वारा देवळ चारणी की गायों को घेरने के संघर्ष में हस्तक्षेप किया। उन्होंने देवळ की केसरिया घोड़ी पर सवार होकर गायों को छुड़ाया और वीरता से लड़ेते हुए (1276 ई.) अपने प्राण त्याग दिए। 
  • उपासना: पाबूजी को ऊंटों के देवता के रूप में पूजा जाता है और यह भी माना जाता है कि ऊंटों को मारवाड़ में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।
  •  पाबूजी से संबंधित ग्रंथ:
    • पाबूजी रा छंद  – कवि मेहा
    • पाबूजी के गीत – बांकीदास
    • पाबूजी के सोरठे – रामनाथ
    • पाबू प्रकाश – आसिया मोडजी
  • उपदेश:
    • वीरता और बलिदान: पाबूजी का जीवन साहस, बलिदान और सत्य के लिए खड़े होने का संदेश देता है।
    • वचन-पालन: कठिन परिस्थितियों में भी अपने वचनों को निभाने की उनकी प्रतिबद्धता एक प्रमुख शिक्षा है।
    • निर्बलों की रक्षा: पाबूजी को निर्बलों के रक्षक के रूप में देखा जाता है, जैसा कि देवळ चारणी और गायों की रक्षा में दिखाया गया है।
    • समर्पण और सेवा: उनके कर्तव्यनिष्ठा और निःस्वार्थ सेवा का उदाहरण जीवन में प्रेरणा देता है।

रामदेवजी : 

  • प्रारंभिक जीवन: रामदेवजी का जन्म बाड़मेर जिले के उंडू-कासमेर गाँव में तंवर वंश के अजमलजी और मैनादे के घर हुआ। उन्हें मल्लीनाथजी का समकालीन माना जाता है।
  • विवाह: उन्होंने अमरकोट के दलजी सोढ़ा की पुत्री नेतलदे से विवाह किया और पोखरण को अपनी भतीजी को दहेज में दे दिया। इसके बाद वे रामदेवरा (रूणिचे) में बस गए, जहाँ 1458 ई. में भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन उन्होंने समाधि ली।
  • पूजा स्थल: रामदेवजी की पूजा रामदेवरा में की जाती है, जहाँ भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को एक विशाल मेला लगता है। यह मेला साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देता है।
  • कमड़िया पंथ: उन्होंने “कमड़िया पंथ” की स्थापना की, जिसके अनुयायी तेरह ताल नृत्य करते हैं।
  • उपदेश : 
    • सामाजिक समानता: रामदेवजी ने जाति प्रथा का विरोध किया और सभी व्यक्तियों को समान बताया।
    • मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्राओं का विरोध: उन्होंने मूर्ति पूजा और पारंपरिक तीर्थ यात्राओं को अस्वीकार कर सादगी और सीधी आध्यात्मिक साधना पर जोर दिया।
    • धार्मिक एकता: उन्हें हिंदू भगवान श्रीकृष्ण के अवतार और मुस्लिम “रामसा पीर” दोनों के रूप में पूजा जाता है, जो धार्मिक समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा देता है।
    • सामाजिक सुधार: रामदेव जी एक समाज सुधारक थे जिन्होंने ईश्वर की भक्ति, गुरु की मार्गदर्शकता और सत्संग के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने मूर्तिपूजा और जाति व्यवस्था का विरोध किया और सभी मनुष्यों को एक समान बताते हुए हरिजन को गले के हार के हीरे के समान बताया। उन्होंने अजपाजाप को अमरत्व प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग बताया।
    • निःस्वार्थ सेवा: उन्होंने कमजोर और वंचितों की रक्षा के साथ-साथ सेवा के महत्व पर जोर दिया।
    • साहित्य का प्रसार: रामदेवजी एक शिक्षित संत थे और उन्होंने “चौबीस बाणियाँ” जैसे ग्रंथ लिखकर साहित्य को समृद्ध किया।

देव नारायण जी :

  • प्रारंभिक जीवन: देव नारायण जी का जन्म लगभग 1243 ई. में बगड़ावत प्रमुख भोज और सेदू गुर्जर के घर हुआ। उनके पिता का निधन भिनाय के शासक के साथ संघर्ष में उनके जन्म से पहले ही हो गया था। उनकी रक्षा के लिए उनकी माता उन्हें मालवा ले गईं।
  • दस वर्ष की आयु में, राजस्थान लौटते समय, देव नारायण ने जय सिंह देव परमार की पुत्री पिपलदे से विवाह किया। बाद में, उन्होंने गायों को लेकर हुए संघर्ष में भिनाय ठाकुर को मारकर अपने पिता की मौत का बदला लिया।
  • पूजा स्थल: देव नारायण जी की पूजा मुख्य रूप से आसिन्द (भीलवाड़ा) में की जाती है, जहाँ उनकी स्मृति में भाद्रपद शुक्ल सप्तमी पर वार्षिक मेला लगता है।
  • फड़: “देव जी की फड़” को लोक देवताओं के बीच सबसे लंबी एवं लोकप्रिय फड़ माना जाता है, जिसे जंतर वाद्य यंत्र के साथ गाया जाता है।

हडबू जी :

  • प्रारंभिक जीवन: हरभू जी नागौर के भुंडेल के महाराज मेहाजी साँखला के पुत्र और राव जोधा (1438-1489 ई.) के समकालीन थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने हरभजमल में निवास किया और सांसारिक मोह को त्याग दिया।
  • आध्यात्मिक यात्रा: रामदेवजी से प्रेरित होकर, हरभू जी ने अपने हथियार छोड़ दिए और गुरु बालीनाथ जी से दीक्षा ली। वे एक समर्पित संत बन गए और आध्यात्मिक साधनाओं में लीन हो गए।
  • राव जोधा को आशीर्वाद: जब राव जोधा ने मेवाड़ से मंडोर को मुक्त करने का प्रयास किया, तो हरभू जी ने उन्हें आशीर्वाद स्वरूप खंजर दिया। बाद में, विजय के बाद, राव जोधा ने हरभू जी को “बेंगटी” गांव भेंट किया।
  • हरभू जी को चमत्कारी शक्तियों का धनी माना जाता था। वे शकुन शास्त्री (जिनकी बातें सत्य होती हैं) के रूप में प्रसिद्ध थे और अपनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और चमत्कारों के लिए पहचाने जाते थे।
  • पूजा स्थल: उनका मुख्य पूजा स्थल बेंगटी (फलोदी) में है, जहाँ भक्त उनकी बैलगाड़ी की पूजा करते हैं।

मेहाजी मंगलिया :

  • प्रारंभिक जीवन: मेहाजी मंगलिया का जन्म एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था, लेकिन उनका पालन-पोषण उनके ननिहाल गांव मंगलिया में हुआ, जिससे उनका नाम “मेहाजी मंगलिया” पड़ा। वे राव चुंडा के समकालीन थे।
  • अपनी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण मेहाजी के कई शत्रु बने। अंततः वे जैसलमेर के राव रणांगदेव भाटी के साथ युद्ध में शहीद हो गए।
  • आध्यात्मिकता और चमत्कार: मेहाजी को एक कुशल शकुन शास्त्री माना जाता था। उनके पास भविष्यवाणी करने और आध्यात्मिक ज्ञान की अद्भुत क्षमता थी।
  • पूजा स्थल: उनका मंदिर बापनी में स्थित है, जहाँ भाद्रपद कृष्ण अष्टमी पर वार्षिक मेले का आयोजन होता है।

मल्लिनाथजी : 

  • प्रारंभिक जीवन: मल्लिनाथजी का जन्म 1358 ईस्वी में मारवाड़ के रावल साल्खा और जानीदे के पुत्र के रूप में हुआ था। पिता के निधन के बाद, उन्होंने अपने चाचा कन्हड्डे के अधीन महेवा में प्रशासन की जिम्मेदारी संभाली।
  • महेवा के शासक: 1374 ईस्वी में चाचा के निधन के बाद मल्लिनाथजी महेवा के शासक बने। 1378 में उन्होंने मालवा के सुबेदार निजामुद्दीन की सेना को हराकर अपने क्षेत्र का विस्तार किया।
  • आध्यात्मिक यात्रा: अपनी रानी रुपादे के प्रेरणा से मल्लिनाथजी ने 1389 ईस्वी में उगमसी भाटी से दीक्षा ली और योग-साधना में रत हो गए। उन्हें पूर्वज्ञान (प्रेक्षज्ञता) का आशीर्वाद प्राप्त था और वे दिव्य शक्तियों जैसे चमत्कारी कार्य करने के लिए प्रसिद्ध थे।
  • मल्लिनाथजी ने 1399 ईस्वी में सभी संतों को एकत्रित करके एक भव्य हरी कीर्तन का आयोजन किया। उसी वर्ष चैत्र शुक्ल द्वितीया को उनका निधन हुआ।
  • उनका मंदिर बाडमेर के तिलवाड़ा गांव में लूणी नदी के किनारे स्थित है, जहाँ हर साल चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत शुक्ल एकादशी तक बड़ा मवेशी मेला आयोजित होता है। जोधपुर के पश्चिमी परगने का नाम मलानी भी उनके सम्मान में रखा गया है।

कल्ला जी : 

  • प्रारंभिक जीवन: कल्लाजी का जन्म 1544 ई. में समियाणा गांव मेड़ता(नागौर), आषाढ़ शुक्ल अष्टमी रविवार को हुआ था। वे मेड़ता के राव दूदा के पोते और अचल सिंह के पुत्र थे। उनकी बुआ मीरा बाई थी। कालाजी को उनके चाचा उम्मेद सिंह ने पाला। कालाजी अपनी कुलदेवी नागनेची के महान भक्त थे
  • 16 वर्ष की आयु में कल्लाजी मेड़ता छोड़कर मेवाड़ आ गए। महाराणा उदय सिंह ने उन्हें बागोर एवं रुंदेला की जमींदारी दी। कल्लाजी ने भीलों को नियंत्रित कर युद्ध और कूटनीति के माध्यम से शांति स्थापित की, जिससे महाराणा उदय सिंह ने उन्हें अपनी सेना में विशेष सामंत नियुक्त किया।
  • अकबर के चित्तौड़ आक्रमण (1568 ई.) के दौरान, जब जैमल गंभीर रूप से घायल हो गए थे, तो कालाजी ने उन्हें अपनी पीठ पर बिठाया और दोनों हाथों में तलवारें दीं, जबकि स्वयं दो तलवारों से युद्ध करते रहे।इस कारण कालाजी को ‘चार हाथ और दो सिर वाला लोक देवता’ कहा गया।
  • कल्लाजी और जैमल ने युद्ध में असाधारण साहस दिखाया। जब जैमल घायल हो गए, तो कालाजी उनका इलाज कर रहे थे, तभी एक मुग़ल सिपाही ने कालाजी का सिर काट दिया। यह मान्यता है कि सिर कटने के बाद भी कालाजी का शरीर मुगलों से लड़ते हुए रुंडेला पहुंचा और वहीं उनकी मृत्यु हो गई। 
  • सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व: कल्ला जी की वीरता, बलिदान और प्रतिष्ठा को ‘कल्ला पंचीसी’ जैसे लोक साहित्य में संजोया गया है। उनका आस्था हर धर्म के लोगों में है, और मुस्लिम भी उनके पूजा स्थल पर आकर अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं। कालाजी, जो समुदायिक एकता और सभी के कल्याण का प्रतीक हैं, एक सार्वभौमिक लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं।

राजस्थान के लोक देवताओं का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व:

राजस्थान के लोक देवताओं का क्षेत्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य पर गहरा प्रभाव है। इनका महत्व निम्नलिखित तरीकों से व्यक्त होता है:

नैतिक और आचारिक मार्गदर्शन:

तेजाजी, गोगाजी और रामदेवजी जैसे लोक देवता साहस, बलिदान और वचन निभाने के मूल्यों को बढ़ावा देते हैं। ये देवता ऐसी सद्गुणों का प्रतीक हैं जो आज भी लोगों में प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं, जैसे कमजोरों की रक्षा करना, सम्मान बनाए रखना और अन्याय के खिलाफ लड़ना।

राजनीतिक स्थिरता:

लोक देवताओं के आशीर्वाद ने शासकों में उत्साहवर्धन का कार्य किया। उदाहरण स्वरूप, हरभूजी ने राव जोधा को कटार देकर अपना आशीर्वाद दिया था जिससे जोधा मंडोर को वापस प्राप्त करने में सफल रहे थे; संत रणाबाई ने जोधपुर महाराज अजीत सिंह की विजय के लिए आशीर्वाद प्रदान किया।

सांस्कृतिक पहचान और क्षेत्रीय गर्व:

रामदेवजी मेला और मल्लिनाथजी का मवेशी मेला जैसे उत्सव और मेले न केवल स्थानीय रीति-रिवाजों को संरक्षित करते हैं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूत करते हैं। ये घटनाएँ राजस्थान के लोगों में गर्व और एकता की भावना उत्पन्न करती हैं।

सामाजिक सुधार:

रामदेवजी जैसे देवता जातिवाद, मूर्तिपूजा और तीर्थयात्रा जैसी सामाजिक असमानताओं का विरोध करते थे। उनके उपदेशों में समानता और तर्कशीलता पर जोर दिया गया, जो आज भी प्रगतिशील विचारों को प्रेरित करता है।

क्षेत्रीय साहित्य और कला का प्रसार:

रामदेवजी को ‘छब्बीस बनिया’ जैसे साहित्यिक ग्रंथ के निर्माण का श्रेय दिया जाता है, जो आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ावा देता है। इसी तरह पाबूजी का फड़ और अन्य मौखिक परंपराएँ क्षेत्रीय कथाओं और विश्वासों को संरक्षित करती हैं, जो कला धरोहर को जीवित रखती हैं।

स्वास्थ्य और कल्याण:

गोगाजी जैसे देवताओं की पूजा, जिन्हें साँप के काटने से सुरक्षा देने वाला माना जाता है, आज भी लोगों के दैनिक जीवन पर प्रभाव डालती है। इस प्रकार की परंपराएँ आध्यात्मिक अभ्यासों को स्वास्थ्य और सुरक्षा के व्यावहारिक विश्वासों के साथ जोड़ती हैं।

आर्थिक प्रभाव:

इन देवताओं से संबंधित तीर्थ स्थल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। तेजाजी मेला और अन्य संबंधित मेले व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देते हैं, जो क्षेत्रीय उत्पादों के लिए एक मंच प्रदान करते हैं।

सामाजिक एकता का प्रचार:

रामदेवजी जैसे लोक देवता विभिन्न धर्मों के लोगों द्वारा पूजे जाते हैं, हिंदू उन्हें कृष्ण के अवतार के रूप में और मुस्लिम उन्हें रामसा-पीर के रूप में पूजते हैं, जो सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देता है और सामाजिक भेदभाव को समाप्त करता है।

लोक देवता

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