राजस्थान का हस्तशिल्प राजस्थान इतिहास & संस्कृति विषय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो राज्य की पारंपरिक कला, शिल्प कौशल और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है। राजस्थान का हस्तशिल्प न केवल स्थानीय पहचान का प्रतीक है, बल्कि यह राज्य की सांस्कृतिक धरोहर और आर्थिक गतिविधियों का भी अभिन्न अंग है।
राजस्थान का हस्तशिल्प
राजस्थान को हस्तकलाओं का गढ़ कहा जाता है। इसकी हस्तकलाओं का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसके प्रमाण तृतीय शताब्दी के आहत सिक्कों (नगर) तथा विराटनगर बौद्ध चैत्य में उपयोग किए गए 26 लकड़ी के स्तंभों से मिलते हैं।

वस्त्र कला
रंगाई और छपाई
- महीदोज: वस्त्र निर्माण का प्राचीन शिल्प।
- रंगाई के प्रमुख प्रकार:
- पोमचा:
- पद्म (कमल) से सम्बद्ध ओढ़नी।
- दो प्रकार: लाल-गुलाबी और लाल-पीला।
- नवजात शिशु की माँ को दिया जाता है; बेटे पर पीला और बेटी पर गुलाबी।
- लहरिया और चुनरी:
- तीज और अन्य त्योहारों पर लोकप्रिय।
- चुनरी की बंधेज पद्धति ‘बाँधो और रंगो’ (Tie & Die) के नाम से प्रसिद्ध।
- पोमचा:
रंगाई और छपाई की तकनीकें:
अजरख छपाई:

- बाड़मेर की ब्लॉक प्रिंटिंग।
- ज्यामितीय अलंकरण और दोनों तरफ से छपाई।
मलीर छपाई

- मुख्य केंद्र – बाड़मेर
- रंग : नीला और भूरा
बातिक कला:
- ‘बटिक’ शब्द इंडोनेशिया से।
- मोम से डिजाइन बनाकर छपाई।
दाबू छपाई:
- ‘चित्तौड़गढ़ का अकोला गांव दाबू प्रिंट के लिए मशहूर है
- ‘दाबू’ का मतलब है ‘दाबना’।
- कपड़े के कुछ हिस्से को “लाई” से ढका जाता है।
- मुख्य केंद्र:
- सवाई माधोपुर – मोम का इस्तेमाल दाबू के तौर पर किया जाता है
- बालोतरा – मिट्टी/कीचड़ का इस्तेमाल दाबू के तौर पर किया जाता है
- बगरू और सांगानेर – गेहूं से बने बीघान का इस्तेमाल दाबू के तौर पर किया जाता है
सांगानेरी छपाई:
- काले और लाल रंग का विशेष उपयोग।
- लट्ठा या मलमल के कपड़ों पर किया जाता है।
- मुन्ना लाल गोयल ने सांगानेरी प्रिंट को दुनिया भर में मशहूर बनाया।
- अमीनशाह नाला पारंपरिक रूप से इस प्रिंट से जुड़ा हुआ है
बगरू छपाई:
- किनार और बूटियों की सूती वस्त्रों पर प्रिंटिंग।
कोटा-डोरिया:
- कोटा डोरिया एक कपास और रेशम का मिश्रित चौकोर चेक पैटर्न का कपड़ा होता है। चेक पैटर्न को ‘खत’ कहा जाता है।
- रेशम कपड़े को चमक प्रदान करता है जबकि कपास कपड़े को मजबूती प्रदान करता है।
- इस शिल्प की शुरुआत मैसूर में हुई और फिर कोटा के पास कैथून गांव में स्थानांतरित हो गया। इसलिए, साड़ियों को ‘कोटा-मंसूरिया’ के नाम से जाना जाने लगा।
आभूषण उद्योग
मीनाकारी

- सोने,चाँदी, पर रंग-विरंगा काम या सोने चाँदी पर रंग भरने की कला मीनकारी कहलाती है।
- जयपुर और नाथद्वारा प्रसिद्ध।
- कोटा के ‘रैटवाली’ क्षेत्र में कांच पर मीनाकारी।
- राजस्थान में यह शिल्प अकबर के समय विकसित हुआ।
- ‘चंपकली हार’, ‘चूड़ियाँ’, और ‘नथ’ मीनाकारी के प्रमुख उत्पाद।
- कुदरत सिंह 1988 पदमश्री से सम्मानित।
थेवा कला:

- प्रतापगढ़ की राज-सोनी जाति द्वारा ।
- बेल्जियम के रंगीन कांच पर सोने की बारीक कलाकारी।
- प्रमुख उत्पाद: हार, पेंडेंट, बॉक्स और ट्रे।
- इस कला में प्राकृतिक दृश्य, पशु-पक्षी और धार्मिक कथाओं का चित्रण।ious stories.
धातु का काम (कोफ्तगिरी)

- दमिश्क से लाकर पंजाब और फिर वहाँ से गुजरात एवं राजस्थान में फैली।
- फौलाद की वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की जड़ाई।
पत्थर शिल्प

- मौर्यकाल से राजस्थान में प्रचलित।
- विभिन्न जिलों में पत्थरों की विशिष्टता:
- डूंगरपुर: हरा-काला।
- मकराना: सफेद संगमरमर।
- जालोर: ग्रेनाइट।
- संगमरमर पर पच्चीकारी:
- जयपुर और भीलवाड़ा प्रसिद्ध।
मृण शिल्प (टेराकोटा)
ब्लू पॉटरी:

- राजस्थान में शुरुआत: राजा मानसिंह प्रथम के समय।
- स्थानीय भाषा में इसे ‘काम चीनी’ कहते हैं।
- चीनी मिट्टी के बर्तनों पर क्वार्ट्ज़ के रंगीन पाउडर से जो अलंकरण किया जाता है उसे ब्लू -पॉटरी कहते हैं।
- स्वतंत्रता के बाद पंडित कृपाल सिंह शेखावत के प्रयास से पुनर्जीवित, 1976 में ब्लू पॉटरी हेतु पद्मश्री।
मोलेला (टेराकोटा कला):

- राजसमंद जिले का मोलेला ग्राम प्रसिद्ध।
- स्थानीय लोकदेवताओं की मूर्तियों के लिए काली चिकनी मिट्टी का उपयोग।
- इस मूर्ति कला के लिये मोलेला के शिल्पी सोलानाड़ा तालाब की काली चिकनी मिट्टी में 25 प्रतिशत गधे की लीद मिलाकर काम में लेते हैं। उसको जमीन पर थापा जाता है और हाथ और साधारण औजार से ही आकृति उभारी जाती है। एक सप्ताह तक सूखने के बाद आग में इन्हें 800° से. ताप में पका कर गैरू रंग कर दिया जाता है।
- खेमराज व मोहनलाल कुम्हार इस काम के लिये प्रसिद्ध है।
काष्ठ शिल्प
कावड़ व बेवाण:

- बेवाण कला राजस्थान की एक पारंपरिक लोक कला है जिसमें छोटे, लकड़ी के लघु मंदिर बनाना शामिल है, जिनका उपयोग अक्सर धार्मिक अनुष्ठानों और सजावटी वस्तुओं के रूप में किया जाता है।
- चित्तौड़गढ़ जिले का बस्सी गाँव काष्ठ शिल्प हेतु बहुत प्रसिद्ध है।
- कावड़ एक पोर्टेबल (आसानी से लाने-लेजाने योग्य) लकड़ी का मंदिर है जिसमें देवताओं, स्थानीय नायकों, संतों और संरक्षकों की दृश्य कहानियों को दर्शाने वाले पैनल होते हैं।
- एक घुमक्कड़ पुजारी (कावड़िया भाट) कावड़ की कला का वर्णन करता है। वह अपने कावड़ के साथ अपने दर्शकों के घर-घर घूमता है, और कहानी बताने के लिए मंदिरनुमा आकृति के दरवाज़े खोलता है।
- जैसे-जैसे प्रत्येक दरवाज़ा खुलता है, दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ती जाती है। एक पारंपरिक कावड़ में, अंतिम द्वार खुलने पर भगवान राम, उनकी पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की एक सुंदर और मनमोहक छवि दिखाई देती है। ये पोर्टेबल मंदिर मुख्य रूप से उन लोगों के लिए थे जो पूजा के लिए मंदिर नहीं जा सकते थे।
- प्रसिद्ध कलाकार: मांगीलाल मिस्त्री, सत्यनारायण सुथार
जनजातीय हथियार:
- यह बांसवाड़ा जिले के चंदूजी का गड़ा और डूंगरपुर में प्रसिद्ध हैं।
चर्म उद्योग (उस्ता कला)

- बीकानेर का ‘उस्ता’ शिल्प।
- सुनहरी मीनाकारी कला ऊँट की खाल पर।
लाख का काम
- लाख की चूड़ियाँ बनाना मुख्य कार्य।
- जयपुर ‘कुट्टी’ के काम के लिए प्रसिद्ध।
हाथी दांत की कलाकृतियाँ :
- वस्तुओं में शामिल हैं: आभूषण, पाउडर बॉक्स, आभूषण बॉक्स, कफ़लिंक, लैंप, कलात्मक सजावट, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, ब्रोच।
- उदयपुर – सबसे प्रसिद्ध।
- जोधपुर – काली, हरी और लाल धारियों वाली चूड़ियाँ।
हस्तशिल्प को प्रोत्साहन
- राजसीको (RAJSICO): हस्तशिल्प के लिए विशेष प्रयास।
- औद्योगिक नीति-1998
- हस्तशिल्प नीति 2022: 50,000 नए रोजगार सृजन का लक्ष्य।
FAQ (Previous year questions)
राजसमंद जिले का मोलेला ग्राम प्रसिद्ध।
स्थानीय लोकदेवताओं की मूर्तियों के लिए काली चिकनी मिट्टी का उपयोग।
विधि –
इस मूर्ति कला के लिये मोलेला के शिल्पी सोलानाड़ा तालाब की काली चिकनी मिट्टी प्रयुक्त करते हैं।
इसमें 25 प्रतिशत गधे की लीद मिलाकर इसे ज़मीन पर थापा जाता है।
फिर हाथ या सामान्य औजारों से आकृति उभारी जाती है।
एक सप्ताह तक सूखने के बाद आग में इन्हें 800° से. ताप में पका कर गैरू रंग कर दिया जाता है।
खेमराज व मोहनलाल कुम्हार इस काम के लिये प्रसिद्ध है।
राजस्थान का हस्तशिल्प