राजस्थान में मराठा

राजस्थान में मराठा राजस्थान इतिहास & संस्कृति का एक महत्वपूर्ण विषय है, जो 18वीं शताब्दी में मराठा शक्ति के क्षेत्र में विस्तार को दर्शाता है। इस काल की प्रमुख घटनाओं में राजस्थान में मराठों के आगमन के कारण, मंदसौर का युद्ध और हुर्डा सम्मेलन शामिल हैं। बूँदी, जयपुर और मारवाड़ की राजनीति व प्रशासन में मराठाओं की सक्रिय भूमिका ने न केवल स्थानीय शासन को प्रभावित किया, बल्कि राजपूतों के आपसी संबंधों को भी बदला और क्षेत्रीय स्वायत्तता को कमजोर किया।

Maratha in Rajasthan

राजस्थान में मराठों के प्रभाव, संबंध, और परिणामों का विश्लेषण करने के लिए हम इस विषय को निम्नलिखित भागों में विभाजित कर समझने का प्रयास करते हैं :

मराठों के आगमन के प्रमुख कारण

  • मुगल सत्ता का पतन : औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगलों की शक्ति क्षीण हो गई, जिससे उत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हुई।
  • पेशवा बाजीराव प्रथम की विस्तारवादी नीति : मालवा, गुजरात और उससे आगे तक मराठा प्रभाव का विस्तार करने का उद्देश्य।
  • राजपूत राज्यों की दुर्बलता : आंतरिक उत्तराधिकार संघर्षों और पारस्परिक असहमति के कारण राजस्थान राजनीतिक रूप से असुरक्षित था।
  • चौथ और सरदेशमुखी की प्राप्ति : मराठों ने राजस्थान को कर-संग्रह (tribute) का स्रोत बनाया और आर्थिक लाभ के लिए बारंबार आक्रमण किए।
  • स्थानीय राजाओं द्वारा आमंत्रण : घरेलू संघर्षों में सहायता हेतु कई राजपूत शासकों ने स्वयं मराठों को आमंत्रित किया (जैसे बूंदी, मारवाड़, जयपुर में)।
  • भौगोलिक स्थिति : राजस्थान की स्थिति दिल्ली, पंजाब और व्यापारिक मार्गों की ओर पहुँच का प्रमुख द्वार थी।

मराठों के साथ प्रारंभिक संपर्क :

  • राजपूतों का मराठों से पहला संपर्क तब हुआ जब औरंगजेब ने शिवाजी का दमन करने के लिए जोधपुर के जसवंत सिंह और आमेर के जय सिंह को दक्कन भेजा।
  • यद्यपि वे असफल रहे, परंतु उन्होंने शिवाजी की स्वतंत्रता, हिंदू संस्कृति की रक्षा के प्रयासों और औरंगजेब के खिलाफ उनके संघर्ष की प्रशंसा की।
  • यह संपर्क केवल दक्कन तक सीमित रहा जब तक पेशवा बाजीराव प्रथम ने उत्तर की ओर विस्तार अभियान नहीं चलाया।

मराठों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध :

  • जयपुर के सवाई जय सिंह ने गुप्त रूप से मराठों को उनके मालवा अभियान में समर्थन दिया।
  • उनका उद्देश्य मालवा में मुगल नियंत्रण को कमजोर करना और अपने प्रभाव का विस्तार करना था।

राजस्थान में मराठों का विस्तार :

  • 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगल साम्राज्य के पतन ने नए शक्तियों के लिए अवसर पैदा किए।
  • 1720 ई. में, पेशवा बाजीराव ने मालवा और गुजरात पर ध्यान केंद्रित करते हुए उत्तर की ओर विस्तार की व्यवस्थित रणनीति अपनाई।
  • सवाई जय सिंह, जिन्हें मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया था, ने प्रारंभ में विरोध किया लेकिन मराठों को रोक नहीं सके, और मालवा उनके नियंत्रण में आ गया।

राजस्थान में मराठों के आक्रमण :

  • मराठों ने कोटा, बूंदी, मेवाड़ और मारवाड़ में छिटपुट आक्रमण शुरू किए।
  • 1726 में, बाजी भीम ने मेवाड़ पर हमला किया और चौथ वसूली।
  • 1728 में, बाजीराव ने डूंगरपुर और बांसवाड़ा के शासकों को कर चुकाने के लिए मजबूर किया।
  • वे मुकुंदरा दर्रे और गुजरात के रास्ते ईडर और जालोर से राजस्थान में प्रवेश करते थे।

मंदसौर का युद्ध (1733) :

  • 1732 में, जय सिंह को पुनः मालवा का गवर्नर नियुक्त किया गया।
  • 1733 में, मराठा नेताओं मल्हार राव होल्कर और राणोजी शिंदे ने मंदसौर में जय सिंह को घेर लिया।
  • उनकी आपूर्ति काट दी गई, जिससे जय सिंह को समझौता करना पड़ा। उन्होंने ₹6 लाख का भुगतान किया और 38 परगनों को चौथ के रूप में सौंपा।
  • इसके बाद मराठों ने मालवा पर अपना नियंत्रण मजबूत किया

राजस्थान में मराठों की घुसपैठ :

बूंदी में मराठों की भूमिका : 

  • मराठों ने राजपूताना पर आक्रमण करने के लिए मालवा को अपना आधार बनाया।
  • सवाई जय सिंह ने बूंदी के सिंहासन पर अपने दामाद दलेल सिंह को बिठाने के लिए बुध सिंह को हटा दिया।
  • बुध सिंह ने मराठों से समर्थन मांगा, और मल्हार राव होल्कर ने उन्हें पुनः सिंहासन पर बैठा दिया।
  • बाद में जय सिंह ने फिर से बुद्धसिंह को हटाकर दलेल सिंह को बहाल किया।
  • बुद्ध सिंह की मृत्यु के बाद, उनकी विधवा ने होल्कर से सहायता मांगी, जिन्होंने जयपुर की सेना को हराकर उम्मेद सिंह को बूंदी के सिंहासन पर बैठा दिया।
  • इस सेवा के बदले में, होल्कर ने पाटन पर नियंत्रण प्राप्त किया।

हुरड़ा सम्मेलन (1734) :

  • मराठों के खिलाफ मुगलों की कमजोरी को देखते हुए, राजपूत नेताओं ने एकजुट मोर्चा बनाने के लिए हुरड़ा में सभा की।
  • प्रमुख प्रतिभागी: सवाई जय सिंह (जयपुर), महाराणा जगत सिंह (मेवाड़), अभय सिंह (जोधपुर), दुल्हेराम सिंह (बूंदी), दुर्जन साल (कोटा), आदि।
  • मराठों का विरोध करने के लिए 17 जुलाई 1734 को एक समझौता हुआ।

जयपुर में मराठों की भूमिका :

  • सवाई जय सिंह की मृत्यु (21 सितंबर 1743) के बाद उनके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार विवाद हुआ।
  • ईश्वरी सिंह को मुगल बादशाह और पड़ोसी शासकों, जिसमें पेशवा भी शामिल थे, का समर्थन प्राप्त हुआ।
  • महाराणा जगत सिंह (मेवाड़) और दुर्जन साल (कोटा) ने ईश्वरी सिंह का विरोध कर माधो सिंह का समर्थन किया।
  • ईश्वरी सिंह ने टोंक माधो सिंह को सौंप दिया, लेकिन इससे वह संतुष्ट नहीं हुए।
  • 1744 में, महाराणा जगत सिंह ने माधो सिंह के साथ मिलकर जयपुर पर हमला किया। ईश्वरी सिंह ने मराठा सहायता मांगी।
  • राजमहल का युद्ध (1747): महाराणा अब मराठों से सहायता चाहते थे और मल्हार राव होल्कर से ₹2 लाख की राशि देने के लिए समझौता किया। ईश्वरी सिंह ने कोटा, शाहपुरा, और मेवाड़ की संयुक्त सेनाओं को हराया।
  • 1748 का युद्ध : ईश्वरी सिंह को हराया गया और उन्हें मराठा सरदार गंगन धार को भारी रिश्वत देने का वादा करना पड़ा, लेकिन वह पैसे का भुगतान नहीं कर पाए और उन्होंने आत्महत्या कर ली। होल्कर ने माधो सिंह को सिंहासन पर बैठाया।

मारवाड़ में मराठा हस्तक्षेप :

  • राम सिंह बनाम विजय सिंह
  • 13 जुलाई 1749 को राम सिंह मारवाड़ के शासक बने, लेकिन उनके चाचा बख्त सिंह ने उनका विरोध किया।
  • बख्त सिंह ने राम सिंह को लुनियावास (27 नवंबर 1750) में हराया और सिंहासन पर कब्जा कर लिया।
  • बख्त सिंह की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र विजय सिंह शासक बने।
  • राम सिंह ने जयपुर के सवाई माधो सिंह के समर्थन से मराठों से सहायता ली।
  • मराठों ने राम सिंह का समर्थन किया और 1753 में विजय सिंह पर हमला किया, लेकिन स्थानीय घृणा के कारण जयप्पा शिंदे की हत्या कर दी गई।
  • मल्हार राव होल्कर के सहयोग से विजय सिंह ने संघर्ष समाप्त किया, और राम सिंह निर्वासित हो गए, उनकी मृत्यु 1772 में हुई।

जाट रियासत में मराठा हस्तक्षेप :

  • जवाहर सिंह बनाम नाहर सिंह
  • माधो सिंह ने जवाहर सिंह का विरोध करने के लिए होल्कर और शिंदे से मदद मांगी।
  • प्रारंभिक असफलताओं के बावजूद, जवाहर सिंह ने विजय सिंह (मारवाड़) के साथ गठबंधन कर मराठा हस्तक्षेप का विरोध किया।

मराठा हस्तक्षेप के परिणाम : 

  • राजनीतिक :
    • राजपूत संप्रभुता का क्षरण : उत्तराधिकार और प्रशासनिक मामलों में बार-बार हस्तक्षेप से राजपूत स्वायत्तता कमजोर हुई।
    • आंतरिक संघर्षों में वृद्धि : मराठों ने अक्सर विरोधी गुटों का समर्थन किया, जिससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी
    • ब्रिटिश समर्थन की ओर झुकाव : मराठा दबाव से निपटने के लिए कई राजपूत शासकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी से संधियाँ कीं।
  • आर्थिक : 
    • अत्यधिक करारोपण : चौथ और सरदेशमुखी जैसे करों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया।
    • लूटपाट और विनाश : बार-बार के आक्रमणों ने ग्रामीण और शहरी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया।
  • सैन्य एवं प्रशासनिक : 
    •  मराठा छावनियों और प्रभाव में वृद्धि : मराठों ने राजपूत राज्यों में अपने सैनिकों और अधिकारियों की नियुक्तियाँ शुरू कर दीं।
    • राजपूत शक्ति का विखंडन : राजस्थान एक विवादित और खंडित राजनीतिक क्षेत्र बन गया, जिससे केंद्रीकृत शक्ति का ह्रास हुआ।
निष्कर्ष : 

मराठों ने शिवाजी के नेतृत्व में प्रमुखता प्राप्त की। उन्होंने मराठों को एक संगठित शक्ति बनाया, जिसने मुगल साम्राज्य को चुनौती दी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों के कमजोर शासकों के दौर ने मराठों के लिए उत्तर की ओर विस्तार का अवसर दिया। पेशवाओं के नेतृत्व में मराठों ने मालवा और गुजरात पर नियंत्रण स्थापित किया। राजस्थान, जो मालवा और गुजरात से सटा हुआ था, ने मराठों को राजपूताना में प्रवेश का आसान मार्ग दिया।

शुरुआत में मराठों ने छिटपुट हमले किए, लेकिन मुगल सत्ता के कमजोर पड़ने पर राजपूत राजाओं ने उत्तराधिकार विवादों में मदद के लिए उन्हें आमंत्रित किया। सबसे पहले बूँदी राज्य ने मराठों की मदद ली, जिसके बाद जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ ने भी उनका सहारा लिया। इसके बदले राजपूत राजाओं ने मराठों को भारी धनराशि देने का वादा किया। जब राजाओं से यह धनराशि नहीं चुकाई जा सकी, तो मराठों को क्षेत्र सौंप दिए गए। इस प्रकार, मराठे राजस्थान में विवाद सुलझाने के लिए आए, लेकिन बाद में वे यहाँ के स्वामी बन गए, जिन्होंने मनमाने तरीके से कर लगाया और भूमि को लूटा। मराठों ने राजस्थान में मुगलों का स्थान तो ले लिया था, परन्तु मुगलों की भाँति वे वहां अपनी साम्राज्यिक प्रतिष्ठा स्थापित करने में असफल ही रहे। राजस्थान को अपने साम्राज्य का एक अंग मान कर वहां की व्यवस्था में सुधार करने के लिए मराठों ने कभी प्रयास नहीं किया; और न यहाँ के शासकों ने मराठों की सार्वभौम सत्ता को स्वीकार कर उन्हें साम्राज्य विस्तार तथा स्थायित्व के लिए सहयोग ही प्रदान किया।

मराठों का राजस्थान में हस्तक्षेप ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय के साथ समाप्त हुआ। राजपूतों को महसूस हुआ कि उनकी समस्याओं का समाधान केवल ब्रिटिश सत्ता से ही हो सकता है। 1803 से 1823 तक, अलवर, करौली, कोटा, जोधपुर, मेवाड़, बूँदी, बीकानेर, किशनगढ़, जयपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, जैसलमेर और सिरोही सहित सभी राजपूत राज्यों ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहायक संधियाँ कीं।

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