राजस्थान के लोक गीत एवं वाद्ययंत्र राजस्थान इतिहास & संस्कृति का अभिन्न अंग है। लोकगीत यहाँ की परंपराओं और भावनाओं को स्वर देते हैं, वहीं सारंगी, कमायचा, ढोलक जैसे वाद्ययंत्र इस लोकसंगीत को और भी जीवंत बनाते हैं।
लोक गीत

लोकगीत मौखिक परंपराओं के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होने वाले संगीत और काव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। ये आम लोगों की भावनाओं, अनुभवों और दैनिक जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर ने इन्हें “संस्कृति की कला” कहा, जो एक सुखद और आनंददायक संदेश की वाहक है, जबकि महात्मा गांधी ने इन्हें “जनता की भाषा और हमारी संस्कृति के संरक्षक” के रूप में वर्णित किया। लोकगीतों को मुख्यत: तीन प्रकारों में बांटा जा सकता है
- जन-साधारण के लोकगीत
- व्यवसायिक जातियों के लोकगीत
- क्षेत्रीय लोकगीत
जन-साधारण के लोकगीत :
यह वे गीत हैं जो सामान्य लोग विभिन्न सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर गाते हैं। इन गीतों को संस्कार, ऋतु, त्यौहार, और लोक देवताओं से संबंधित विषयों पर आधारित किया जाता है।
संस्कार संबंधी गीत :
- जच्चा: शिशु के जन्म पर गाए जाने वाले गीत।
- होलर जाया ने हुई बधाई, थे म्हारा वंश बढ़ायो रे अलबेली जच्चा।
- घूघरी: महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत, विशेष रूप से बच्चों के जन्मोत्सव पर।
- बधावा, बना-बनी, बिंढोला, जला, घोड़ी आदि गीत विवाह और अन्य संस्कारों से संबंधित होते हैं।
- हालरिया जैसलमेर क्षेत्र में बच्चे के जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला लोकगीत।
- कामण वर को जादू टोने से बचाने हेतु गाया जाने वाला गीत।
- सीठणे-ये ‘गाली गीत’ होते हैं, जो विवाह समारोह में समधिनों द्वारा समधी पक्ष को गाए जाते हैं।
- बिंदोला (बंदोला) विवाह पूर्व वर के रिश्तेदारों को आमंत्रित कर, उनके वापस लौटते समय गाया जाता है।
- घोडी वर निकासी के मौके पर घुड़चढ़ी की रस्म के समय घोड़ी गाई जाती है।
- जला-बारात का डेरा देखने के प्रसंग में वधू पक्ष की स्त्रियों द्वारा।
- ओल्यूँ-बेटी की विदाई के अवसर पर गाया जाने वाला लोकगीत है।
- पावणां महिलाओं द्वारा नए दामाद के ससुराल आगमन पर गाया जाने वाला लोकगीत है।
- फलसा-विवाह के अवसर पर अतिथियों के आगमन पर फलसड़ा गीत गाया जाता है।
ऋतु संबंधी गीत :
- पपैयो: वर्षा ऋतु में पपीहा पक्षी के माध्यम से प्रेयसी द्वारा प्रियतम से मिलने का निवेदन।
- पीपली विरह गीत है, जो वर्षा ऋतु में मारवाड़ एवं शेखावाटी क्षेत्र में अधिक लोकप्रिय है।
- मोर : मोर के बोलने का वर्णन।
- कुरंजा : मारवाड़ क्षेत्र में वर्षा ऋतु में नायिका द्वारा कुरंजा पक्षी को संबोधित करते हुए गाया जाता है। “कुरंजा ए म्हारो भंवर मिला दीजो ऐ”
- सावण, चौमासा, पीपली आदि गीतों में ऋतु विशेष के उत्सव और प्रतीक जैसे वर्षा, सावन, और हलचल का वर्णन होता है।
- सुंवटिया मेवाड़ क्षेत्र में वर्षा ऋतु के दौरान भीलनी स्त्री द्वारा गाया जाने वाला विरह गीत, जिसमें वह तोते के माध्यम से अपने पति को संदेश भिजवाती है।
- हींडो/हिंडोल्या श्रावण मास में महिलाएँ झूला झलते हुए गाती हैं।
त्योहार/पर्व संबंधी गीत :
- गणगौर : गणगौर पूजन के अवसर पर गाए जाने वाले गीत। “खेलण दो गणगौर भंवर म्हाने खेलण दो गणगौर, म्हारी सखियाँ जोवे बाट हो भंवर म्हानें खेलण दो गणगौर।”
- घुड़ला, घूमर : होली और तीज पर गाए जाने वाले गीत, “घुड़ला घूमेला जी घूमेला घूड़ला रे बांध्यो सूत”।
- घूमर : घूमर गणगौर व तीज के अवसर पर घूमर गीत व नृत्य राजस्थान की पहचान बन चुका है। इसके बोल हैं- “म्हारी घूमर छे नखराली मा गोरी घूमर रमवा म्है जास्याँ।”
लोक-देवताओं से संबंधित गीत :
- लोक देवताओं में तेजाजी, देवजी, पाबूजी, गोगाजी आदि की वीरता के भजन तथा लोक देवियों में सती माता, शीतला माता, दियाड़ी माता के गीत प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त मीरां, कबीर, दादू, रैदास आदि के पदों का गान भी महत्त्वपूर्ण है।
- तेजागीत – किसानों का प्रसिद्ध गीत है। खेती करते समय तेजाजी की भक्ति में गाते हैं।
- लांगुरिया गीत – करौली की कैला देवी के भक्तों द्वारा गाया जाने वाला प्रमुख भक्ति गीत है। जिसके साथ लांगुरिया नृत्य भी किया जाता है।
- लावणी – देवी-देवताओं की पूजा से संबंधित गीत है। भर्तृहरि की लावणी प्रसिद्ध है। (लावणी श्रृंगारिक गीत भी है)
- रसिया – कृष्ण भक्ति गीत, जो भरतपुर-धौलपुर क्षेत्र में गाया जाता है।
- हरजस – राम कृष्ण की लीलाओं से संबंधित भक्ति गीत, जो मांगलिक अवसरों पर गाए जाते हैं।
विविध लोक गीत :
- इंडोणी : कालबेलिया महिलाओं द्वारा पानी भरने के समय गाए जाने वाले गीत।
- पणिहारी पनघट पर गाया जाने वाला लोकगीत, इसमें पतिव्रत धर्म पर अटल नारी का वर्णन है।
- कांगसियो : गणगौर पर गाया जाने वाला श्रृंगार गीत।
- झोरावा : जैसलमेर क्षेत्र में पति के परदेश जाने पर गाया जाने वाला गीत।
- हिचकी किसी स्वजन की याद आने पर विशेषतः अलवर मेवात क्षेत्र में महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत।
- मूमल-जैसलमेर में गाया जाने वाला श्रृंगारिक गीत है। इसमें लोद्रवा (जैसलमेर) की राजकुमारी मूमल का नख-शिख वर्णन किया गया है।
व्यवसायिक जातियों के लोकगीत :
यह गीत राजस्थान की जनजातियों द्वारा व्यावसायिक तौर पर गाए जाते हैं था इनमें डोली,दाढ़ी, मिरासी, लंगा, माँगनियार, भाट, कालबेलिया इत्यादि शामिल है।
लंगा गायिकी
- क्षेत्र: पश्चिमी राजस्थान (बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर)।
- विशेषताएँ:
- लंगा जाति की विशिष्ट लोकगायन शैली अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक प्रसिद्ध है।
- बाड़मेर का ‘बड़वाणा गाँव’ लंगों का गाँव कहलाता है।
- प्रमुख वाद्य यंत्र: कामायचा और सारंगी।
- प्रसिद्ध गीत: ‘नीबूड़ा’ (लंगाओं की पहचान)।
- प्रसिद्ध कलाकार:
- फूसे खाँ, महरदीन खाँ, अल्लादीन खाँ,
- करीम खाँ लंगा
माँड गायिकी
- उत्पत्ति: जैसलमेर क्षेत्र से।
- प्रचलन क्षेत्र: जैसलमेर, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर व बीकानेर।
- प्रसिद्ध गीत:
- “केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देश” – पर्यटकों को निमंत्रण।
अल्लाह जिलाई बाई (बीकानेर)
- प्रसिद्ध माँड गायिका
- जन्म: 1902
- उपाधि: मरु कोकिला।
- बीकानेर के राजदरबार में गुणीजनखाने के उस्ताद हुसैनबक्श लंगड़े ने उनकी प्रतिभा को निखारा।
- सम्मान:
- 1982: पद्म श्री।
- 1983: बीबीसी लंदन द्वारा कोर्ट सिंगर अवॉर्ड।
- 2003: भारत सरकार द्वारा ₹5 का डाक टिकट जारी।
- अन्य प्रसिद्ध माँड गायिकाएँ:
- गवरी देवी (बीकानेर)
- गवरी बाई (पाली)
- मांगी बाई (उदयपुर)
- बन्नो बेगम (जयपुर)
- जमीला बानो (जोधपुर)
मांगणियार गायिकी
- क्षेत्र: बाड़मेर और जैसलमेर।
- विशेषताएँ:
- प्रमुख वाद्य यंत्र: कामायचा और खड़ताल।
- प्रसिद्ध कलाकार:
- सद्दीक खाँ (खड़ताल का जादूगर)
- साकर खाँ (कामायचा वादक)
- गफूर खाँ, रूकमा देवी, रमजान खाँ, समन्दर खाँ
- सद्दीक ख़ाँ की स्मृति में वर्ष 2002 में जयपुर में “सद्दीक खाँ मांगणियार लोक कला एवं परिषद् (लोकरंग),की स्थापना की गई।
तालबंदी गायिकी
- क्षेत्र: पूर्वी राजस्थान (भरतपुर, अलवर, करौली, सवाई माधोपुर)।
- भाषा: ब्रज भाषा।
- विशेषताएँ:
- शास्त्रीय परंपरा के अनुसार राग-रागनियों में आधारित पदावलियों का सामूहिक गायन।
- गायन से पहले राग की संक्षिप्त अलापचारी।
- प्रमुख वाद्य: सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, तबला, झाँझ, नगाड़ा (बीच-बीच में)।
- प्रमुख तालें: द्विताल, दादर, धमार, एकताल, झपताल
राजस्थान की प्रमुख संगीतजीवी जातियाँ :
संगीतजीवी जाति 145703_7a1949-db> |
विशेषता 145703_70c557-d0> |
लंगा 145703_375a5f-7e> |
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मांगणियार 145703_c72ad4-c3> |
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जोगी 145703_63cab9-ba> |
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भोपा 145703_ce8d25-e8> |
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कालबेलिया 145703_3decb4-b5> |
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दाढ़ी 145703_775075-e1> |
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भाट 145703_0f671c-99> |
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क्षेत्रीय लोकगीत :
यहां गीतों का संबंध मुख्य रूप से विभिन्न क्षेत्रों और जातीय संस्कृतियों से होता है। प्रत्येक क्षेत्र के गीतों में अपनी स्थानीय परंपराओं, वेशभूषा और ऐतिहासिक संदर्भों का योगदान होता है।
मरुप्रदेशीय गीत:
- क्षेत्र: जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर और अन्य मरुस्थलीय क्षेत्र।
- विशेषताएँ:
- ये गीत मधुर होते हैं और ऊँचे स्वरों में और लम्बी धुनों में होते हैं।
- उदाहरण: कुरजाँ, पीपली, रतन राणो, मूमल, घूघरी, केवड़ा।
- संगीतज्ञ जातियाँ : कामड़, भोपे, सरगड़े, मिरासी और अन्य संगीतज्ञ जातियाँ।
पर्वतीय क्षेत्र के गीत:
- क्षेत्र: उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, सिरोही और आबू।
- विशेषताएँ:
- ये गीत प्रारंभिक अवस्था में हैं, इसलिये सरल, संक्षिप्त और कम स्वरों में होते हैं।
- इन गीतों की संरचना प्रायः पुनरावृत्त होती है
- “मादल” की ताल पर नृत्य किया जाता है।
- उदाहरण: पटेल्या, बीछियो, लालर।
- समुदाय: ये गीत भील, मीणा, गरासियाँ जैसी जनजातियों के बीच लोकप्रिय हैं।
मैदानी क्षेत्र के गीत:
- क्षेत्र: जयपुर, कोटा, अलवर, भरतपुर, करौली और धौलपुर।
- विशेषताएँ:
- इन गीतों में भाषा और स्वर-रचना की विविधता होती है।
- इनमें स्वरों का उतार-चढ़ाव अधिक होता है।
- भक्ति और श्रृंगार रस के गीत प्रमुख होते हैं।
- गीतों की विशेषता: यह गीत सामूहिक रूप से गाए जाते हैं और इनमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है, जिसमें वियोग श्रृंगार का अधिक वर्णन किया जाता है।
लोक वाद्ययंत्र
राजस्थान के लोक वाद्ययंत्र विभिन्न उपलब्ध स्थानीय सामग्रियों से कुशलता से बनाए जाते हैं, जो उन्हें विशिष्ट ध्वनि प्रदान करते हैं। इन वाद्ययंत्रों में ताल वाद्य और तार वाद्य दोनों का उपयोग लोक संगीत में किया जाता है। सूखी लौकी के खोल, बांस की नलियां, और पकी हुई मिट्टी के बर्तन आदि इन वाद्ययंत्रों के निर्माण में प्रयुक्त होते हैं। लोक वाद्ययंत्र मुख्य रूप से निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किए जाते हैं:
- तत् वाद्य (String Instruments)
- सारंगी, रावणहट्टा, कमायचा, एकतारा, रावज, रबाब, जंतर, भपंग, गुजरी
- सुषिर वाद्य (Wind Instruments)
- पुंगी, सतारा, अलगोजा, मुरला, नाद, शहनाई
- घन वाद्य (Autophonic Instruments)
- घंटी, घुंघरू, मंजीरा, खड़ताल, झालर
- अवनद्ध वाद्य (Percussion Instruments)
- ढोल, चंग, मोरचंग, नगाड़ा
तत् वाद्ययंत्र String Music Instruments
इस श्रेणी में वे वाद्ययंत्र आते हैं, जिनमें ध्वनि एक तार या रज्जु के कंपन से उत्पन्न होती है। कंपन तार को खींचने, झनझनाने या धनुष के द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। तार की लंबाई और इसकी कसावट ध्वनि की पिच और अवधि निर्धारित करती है।
सारंगी

- राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध तार वाद्य।
- इसकी सीधी गज पर घोड़े की पूँछ के बाल लगाए जाते हैं।
- यह सागवान, कैर और रोहिडा लकड़ी से बना होता है और इसके निचले हिस्से को बकरी की खाल से ढका जाता है।
- इसमें कुल 27 तार होते हैं।
- उपयोग: जैसलमेर और बाड़मेर के लंगा तथा मारवाड़ के जोगी।
जंतर

- जंतर वीणा के समान दिखता है और इसमें दो तुंबे होते हैं।
- इसका दांड़ बांस का बना होता है, जिसमें 5-6 तार होते हैं।
- उपयोग: बगड़ावत कथा सुनाने वाले गुर्जर भोपे।
- गुर्जर भोपों द्वारा इस वाद्ययंत्र के साथ देवनारायण जी की फड़ के सामने खड़े होकर भजन व गीत गाए जाते हैं।
रावणहत्था

- नारियल के खोल से बना यह वाद्य बांस के शरीर से जुड़ा होता है।
- इसमें दो मुख्य तार (घोड़े के बाल से बने) और कई सहायक तार होते हैं।
- इसका धनुष घुंघरुओं से सुसज्जित होता है।
- उपयोग: पाबूजी की फड़ सुनाने में।
कमायचा

- मंगणियारों का प्रमुख वाद्य।
- इसमें 3 मुख्य और 9 सहायक तार होते हैं।
- इसका मुख्य भाग अखरोट की लकड़ी का बना होता है।
- इसके तुंबे को बकरी की खाल से मढ़ा जाता है।
- धनुष लंबा होता है और घोड़े की पूंछ के बालों से बना होता है।
- इसका उपयोग मुख्य रूप से जैसलमेर और बाड़मेर के मंगणियार समुदाय द्वारा किया जाता है।
इकतारा

- एक तार वाला वाद्य, जिसे नाथ, कलबेलिया और संत बजाते हैं।
- इसका शरीर बांस और लौकी के मिश्रण से बना होता है।
- विशेष संस्करण: डूंगरपुर और बांसवाड़ा के गलालेग जोगियों का दो तुंबों वाला “केंदरु”।
रावज
- यह वाद्य सारंगी के समान होता है।
- इसे नाखूनों से बजाया जाता है और इसमें 12 तार होते हैं।
- उपयोग: मेवाड़ के राव और भाट।
भपंग

- इसे “बोलने वाला ड्रम” भी कहा जाता है।
- यह एक तार वाला वाद्य है।
- उपयोग: अलवर क्षेत्र के जोगी।
सुषिर वाद्ययंत्र Wind Music Instruments
इन वाद्ययंत्रों में हवा फूंककर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। वाद्य यंत्र में अंगुलियों को खोलने और बंद करने के लिए उंगलियों का उपयोग करके धुन बजाई जाती है। इन वाद्य यंत्रों में सबसे सरल बांसुरी है। आम तौर पर बांसुरी बांस या लकड़ी से बनाई जाती है और भारतीय संगीतकार इन सामग्रियों की ध्वनि और संगीत विशेषताओं के कारण इन्हें पसंद करते हैं।
अलगोजा

- ये दो बांस की बांसुरियां होती हैं जिनको एकसाथ बजाया जाता है।
- एक सुर “सा” और दूसरी दूसरा सुर निकालती है।
- रामनाथ चौधरी अपनी नाक से अलगोज़ा बजाने के लिए प्रसिद्ध हैं।
- उपयोग: भील और कलबेलिया।
पुंगी

- यह लौकी या तुंबी से बनी होती है।
- उपयोग: सांप पकड़ने वाले (कलबेलिया & जोगी)।
मोरचंग

- इसे “ज्यू हार्प” भी कहा जाता है।
- यह लोहे से बना होता है।
- इसे होंठों के बीच रखकर बजाया जाता है।
सतारा

- यह बांसुरी, अलगोजा और शहनाई का संयुक्त रूप है।
- इसमें दो लंबी नलियां होती हैं।
शहनाई
- यह लकड़ी से बनी होती है और इसके सिरे पर धातु की घंटी होती है।
- इसमें आमतौर पर छह से नौ छेद होते हैं।
- उपयोग: शुभ अवसर।
घन वाद्ययंत्र – Autophonic Music Instruments
घन वाद्य वे होते हैं जिनमें ध्वनि धातु या लकड़ी के टकराने से उत्पन्न होती है।
मंजीरा

- पीतल और कांसे के गोलाकार कप।
- अर्धगोलाकार धातु के कपों का आकार एक दूसरे से टकराकर बनता है। इनके अलग-अलग प्रकार होते हैं जैसे झनित और ताल।
- उपयोग: तेरहताली नृत्य।
खड़ताल

- लकड़ी और धातु के मिश्रण से बना।
- इसे दोनों हाथों से बजाया जाता है।
झालर

- धातु की एकल प्लेट।
- इसे विभिन्न प्रकार से बजाकर अलग-अलग सुर निकाले जाते हैं।
- इसका उपयोग अक्सर मंदिर में आरती गाते समय किया जाता है
घुंघरू
- धातु की छोटी घंटियां।
- इन्हें नृत्य में उपयोग किया जाता है।
अवनद्ध वाद्ययंत्र – Percussion Music Instruments
इन वाद्ययंत्रों में जानवर की खाल पर प्रहार कर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
नगाड़ा
- इसे सुरनाई और नफीरी के साथ बजाया जाता है।
- प्राचीनकाल में समारोहों में उपयोग।
मटका
- मिट्टी के बड़े बर्तन।
- उपयोग: पाबूजी की कथा में।
मादल

- यह प्राचीन वाद्य मृदंग के समान होता है।
- इसका उपयोग: भील, गारसिया समुदाय द्वारा गवरी नृत्य और गवरी नाटक।Parvati.
ताशा

- यह तांबे का पतला और चपटा वाद्य होता है।
- इसे बांस की छड़ियों से बजाया जाता है।
- यह “तड़बड़ – तड़बड़” ध्वनि उत्पन्न करता है।
FAQ (Previous year questions)
यह एक तत् वाद्य यंत्र है
नारियल के खोल से बना यह वाद्य बांस के शरीर से जुड़ा होता है।
इसमें दो मुख्य तार (घोड़े के बाल से बने) और कई सहायक तार होते हैं।
इसका धनुष घुंघरुओं से सुसज्जित होता है।
उपयोग: पाबूजी की फड़ सुनाने में।
राजस्थान के लोक गीत एवं वाद्ययंत्र / राजस्थान के लोक गीत एवं वाद्ययंत्र / राजस्थान के लोक गीत एवं वाद्ययंत्र/ राजस्थान के लोक गीत एवं वाद्ययंत्र