विश्व युद्धों का प्रभाव विश्व इतिहास में अत्यंत गहरा और व्यापक रहा है। इन युद्धों ने राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज की संरचना को बदलकर विश्व व्यवस्था पर स्थायी असर डाला।
विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
| वर्ष | प्रश्न | अंक | 
| 2023 | दो विश्व युद्धों के कारण राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में यूरोपीय स्त्रियों की भागीदारी किस प्रकार से बढ़ी ? | 5M | 
| 2021 | द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत में ‘देशी’ उद्योगों के विकास की विवेचना करें। | 10M | 
| 2018 | अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव का विवेचन कीजिए। | 10M | 
| 2013 | वर्साय की सन्धि द्वितीय विश्व युद्ध के लिये उत्तरदायी थी। टिप्पणी कीजिए । | 5M | 
प्रथम विश्व युद्घ
दुनिया का पहला वैश्विक संघर्ष 1914 से 1918 के बीच लड़ा गया, जिसमें धुरी राष्ट्र (केंद्रीय शक्तियाँ –जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, और ओटोमन साम्राज्य ) और मित्र राष्ट्र (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, इटली, और जापान) शामिल थे।
कारण
- उग्र राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद की होड़: जर्मनी → कैजर विल्हेम-II की वेल्टपोलिटिक (Weltpolitik) का उद्देश्य नौसेना का विस्तार, नए उपनिवेशों का अधिग्रहण और वैश्विक राजनीति में हस्तक्षेप करना था।
- जर्मनी और इंग्लैंड के बीच साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा: जर्मनी और ब्रिटेन के बीच शक्ति संघर्ष बढ़ रहा था। जर्मनी ने कोयला और लोहे के उत्पादन में ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया और उसकी नौसेना को चुनौती देना शुरू कर दिया । कील नहर और बर्लिन से बगदाद तक की रेलवे परियोजना ने ब्रिटेन की चिंताएं और बढ़ा दीं, क्योंकि उसे अब अपने पूर्वी उपनिवेशों पर नियंत्रण खोने का डर था।
- फ्रांस और जर्मनी शत्रुता: 1871 के युद्ध (सेडान की लड़ाई) में हारने के बाद फ्रांस, जर्मनी से बदला लेना चाहता था ।
- कूटनीतिक सन्धियाँ और गुटों का गठन: 
- बिस्मार्क ने यूरोपीय राजनीति में गुप्त संधियों की शुरुआत की।
- 1882 में जर्मनी, इटली और ऑस्ट्रिया-हंगरी ने “त्रिगुट संधि” (Triple Alliance) की स्थापना की ।
- 1907 में फ्रांस, ब्रिटेन और रूस ने “ट्रिपल ऐतांत” (Triple Entente) का गठन किया, जिससे जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी को चारों तरफ से घेर लिया गया।
- 1914 तक, यूरोप दो प्रमुख गुटों में विभाजित हो चुका था: एंटेंट शक्तियां और एलायंस शक्तियां।
 
- सर्व-स्लाव आंदोलन और बाल्कन संकट:
- ओटोमन साम्राज्य के कमजोर होने से बाल्कन क्षेत्र में स्वतंत्र राज्यो का उदय हुआ, जो सर्व-स्लाववाद (Pan-Slavism) से प्रेरित थे।
- रूस ने स्लाव आंदोलनों का समर्थन किया ताकि वह क्षेत्र में प्रभाव बढ़ा सके।
- 1908 में ऑस्ट्रिया-हंगरी ने बोस्निया को कब्जे में लिया, जिससे सर्बिया और रूस नाराज हो गए।
- रूस को ऑस्ट्रिया-हंगरी की बाल्कन में बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर संदेह होने लगा।
 
- औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा: जर्मनी और इटली को लगने लगा कि वे ब्रिटेन और फ्रांस की तुलना में उपनिवेशों के मामले में पीछे हैं। इससे उपनिवेशों के लिए दौड़ तेज हो गई और वैश्विक तनाव और बढ़ गया।
- समाचार पत्रों की भूमिका : अखबारों ने घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करके कट्टर राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
- अंतर्राष्ट्रीय अराजकता : रूस-जापानी युद्ध (1904-1905) और बाल्कन युद्ध जैसी घटनाओं ने अंतरराष्ट्रीय माहौल को और अधिक अस्थिर बना दिया।
तात्कालिक कारण:
- जून 1914 में, ऑस्ट्रियाई आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या साराजेवो (बोस्निया की राजधानी) में स्लाव राष्ट्रवादी गुट ब्लैक हैंड के सदस्यों द्वारा कर दी गई थी।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी ने इस हत्या को सर्बिया में अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का अवसर माना । उन्हें इसमें जर्मनी का समर्थन भी प्राप्त हुआ।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया को एक अल्टीमेटम दिया, जिसे सर्बिया ने काफ़ी हद तक मान लिया, सिवाय इसके कि ऑस्ट्रियाई अधिकारियों को सर्बिया के भीतर जांच करने की अनुमति दी जाये, क्योंकि यह उसकी संप्रभुता का उल्लंघन था।
- अल्टीमेटम की एक महीने की समय सीमा पूरी होने के बाद, ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया पर युद्ध की घोषणा कर दी।
विश्व युद्ध में बदलने के कारण:
- संधियों का जाल (Web of Alliances): जटिल गठबंधनों की प्रणाली ने कई राष्ट्रों को संघर्ष में खींच लिया।

- ग़लत अनुमानों की त्रासदी (Tragedy of Miscalculations): जर्मनी ने यह विश्वास किया कि:
- फ्रांस युद्ध लड़ेगा।
- ब्रिटेन तटस्थ रहेगा, जैसा कि उसने बाल्कन युद्धों में किया था।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी का समर्थन करने से रूस तटस्थ रहेगा।
- “शलिफेन योजना” (Schlieffen Plan) के तहत फ्रांस को जल्दी से हराया जा सकेगा।
 
- कई देशों में यह सांस्कृतिक विश्वास था कि युद्ध अच्छा और गौरवशाली होता है।
- युद्ध के दौरान: जर्मनी ने अटलांटिक में अनियंत्रित पनडुब्बी युद्ध शुरू कर दिया जिसमें कई नागरिक जहाजों पर भी हमले किए गए । इसने संयुक्त राज्य अमेरिका को 1917 में युद्ध में प्रवेश करने पर मजबूर कर दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के प्रभाव
वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
साम्राज्यों का विघटन:
- ऑस्ट्रिया–हंगरी साम्राज्य → ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लाविया में विभाजित हुआ।
- ओटोमन साम्राज्य → तुर्की का गठन हुआ, और मध्य पूर्व के क्षेत्र (जैसे इराक और सीरिया) ब्रिटिश और फ्रांसीसी नियंत्रण में आए।
- रूसी साम्राज्य → बोल्शेविक क्रांति के बाद इसका पतन हुआ, परिणामस्वरूप 1922 में सोवियत संघ का गठन हुआ।
निरंकुश राजतंत्रों का अंत:
ऑस्ट्रिया, जर्मनी, तुर्की (ओटोमन साम्राज्य), रूस (रोमानोव वंश) → इन सभी देशों में राजतंत्र का अंत हुआ।
- जर्मनी → काइज़र विल्हेम द्वितीय के पदत्याग के बाद जर्मनी एक गणराज्य बन गया।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी → दो अलग-अलग गणराज्यों में विभाजित हुआ।
- तुर्की → मुस्तफ़ा कमाल पाशा के नेतृत्व में 1923 में एक गणराज्य बना।
- रूस → ज़ार निकोलस द्वितीय की हत्या के बाद लेनिन के तहत एक समाजवादी सरकार की स्थापना हुई।
नए देशों का गठन (जातीय आधार पर):
- वुडरो विल्सन के 14 बिंदुओं के आधार पर स्व-शासन और लोकतंत्र को प्रोत्साहित किया गया।
- पोलैंड, फिनलैंड, लिथुआनिया, लातविया और चेकोस्लोवाकिया का गठन हुआ।
नई विचारधाराओं का उदय:
- समाजवाद → 1917 में बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में प्रभावशाली → बाद में चीन (माओत्से तुंग के तहत) और क्यूबा (फिदेल कास्त्रो के तहत) जैसे देशों में प्रभाव
- फासीवाद → इटली में मुसोलिनी के तहत 1922 में उभरा, जिससे कट्टर राष्ट्रवाद, तानाशाही और सैन्यवाद को बढ़ावा दिया।
- नाज़ीवाद → जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में 1930 के दशक में उभरा, जिसे वर्साय की संधि द्वारा और ज़ोर मिला।
- सैन्यवाद → जापान ने सैन्य शक्ति का विस्तार किया और मांचूरिया सहित एशिया में कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।
संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के प्रभाव में वृद्धि:
- संयुक्त राज्य अमेरिका → लिबर्टी लोन प्रोग्राम के तहत मित्र राष्ट्रों को $10 बिलियन से अधिक ऋण दिया, जिससे वह सबसे बड़ा ऋणदाता बन गया।
- राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की पेरिस शांति सम्मेलन में भूमिका और लीग ऑफ नेशंस की स्थापना में उनके योगदान से अमेरिका का वैश्विक मामलों में प्रभाव बढ़ा।
 
- जापान → एक सैन्य शक्ति के रूप में उभरा, और एशिया में जर्मन क्षेत्रों (शानडोंग) पर नियंत्रण प्राप्त किया।
राष्ट्र संघ (League of Nations):
- विश्व शांति बनाए रखने और भविष्य के युद्धों को रोकने के लिए राष्ट्र संघ का गठन किया गया।
- श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का गठन किया गया।
पेरिस शांति सम्मेलन और संधियाँ:
- वर्साय की संधि (1919) जर्मनी के साथ → इसे फ्रांस को अल्सेस-लोरेन जैसे क्षेत्रों को खोना पड़ा, राइनलैंड को सैन्य मुक्त करना पड़ा, और भारी क्षतिपूर्ति (लगभग $31.5 बिलियन) का भुगतान करना पड़ा। युद्ध अपराध धारा (अनुच्छेद 231) ने जर्मनी को युद्ध का जिम्मेदार ठहराया।
- सेब्रे की संधि → ओटोमन साम्राज्य का विघटन हुआ, जिससे आधुनिक तुर्की का गठन हुआ और कुछ क्षेत्रों का नियंत्रण ग्रीस और फ्रांस को दिया गया।
- ट्रियानों की संधि हंगरी के साथ → हंगरी ने अपना एक बड़ा हिस्सा पड़ोसी देशों, जैसे रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लाविया को खो दिया।
शस्त्रीकरण की होड़:
- वर्साय संधि का उद्देश्य जर्मनी को शक्तिहीन करना था, लेकिन इसके विपरीत शस्त्रीकरण की भावना बढ़ी।
- आधुनिक हथियारों के निर्माण ने द्वितीय विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।
सामाजिक प्रभाव
- जान माल की हानि:
- लगभग 80 लाख लोगों की मृत्यु और 2.1 करोड़ घायल हुए, जिससे “खोई हुई पीढ़ी” (Lost Generation) का उदय हुआ।
- सैनिकों को शेल शॉक (जो अब पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर या PTSD कहा जाता है) का सामना करना पड़ा।
 
- विस्थापन और प्रवासन:
- कई जातीय अल्पसंख्यकों, जैसे अर्मेनियाई, यूनानी और कुर्दों को नई सीमाओं और राजनीतिक अस्थिरताओं के कारण विस्थापित होना पड़ा।
- आर्मेनियाई नरसंहार (1915-1917) युद्ध के दौरान एक विशेष रूप से दुखद घटना थी, जिसमें ओटोमन सरकार द्वारा लगभग 15 लाख आर्मेनियाई मारे गए।
 
- महिलाओं के लिए बदलाव:
- महिलाओं ने युद्ध के दौरान पुरुषों द्वारा छोड़ी गई नौकरियों को संभाला, जिससे उन्हें अधिक अधिकार मिले। (जैसे मतदान का अधिकार – ब्रिटेन में 1918 और जर्मनी में 1919)
 
- यूरोपीय नस्लीय वर्चस्व का अंत:
- अफ्रीका, भारत, और जापान के सैनिकों ने युद्ध में भाग लिया, जिससे यह साबित हुआ कि गैर-यूरोपीय लोग भी बहादुर हो सकते हैं, और नस्लीय श्रेष्ठता के सिद्धांतों पर सवाल उठने लगे।
- इससे भविष्य में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों की नींव पड़ी।
 
- यूरोपीय सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह:
- युद्ध के विनाश के बाद लोगों ने यूरोप की सांस्कृतिक श्रेष्ठता पर संदेह करना शुरू कर दिया।
- ऑस्वाल्ड स्पेंगलर की पुस्तक द डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट जैसी किताबों में यूरोप के भविष्य को लेकर चिंताएं जताई गईं।
 
- नास्तिकता और मोहभंग का उदय:
- युद्ध की भयावहता के कारण कई लोगों ने धर्म से विश्वास खो दिया, जिससे नास्तिकता और अस्तित्ववाद का उदय हुआ।
 
- युद्ध अपराध और नैतिकता में गिरावट:
- रासायनिक हथियारों (जैसे मस्टर्ड गैस) के उपयोग ने दुनिया को झकझोर दिया, जिससे युद्ध आचरण के नए नियम बनाए गए।
- युद्ध के बाद की समाज में सामाजिक मान्यताओं में बदलाव आया और अनैतिकता में वृद्धि देखी गई।
 
आर्थिक प्रभाव
- वैश्विक आर्थिक संकट:
- युद्ध की कुल लागत $400 बिलियन आंकी गई थी। यूरोपीय बुनियादी ढांचे और उद्योगों के विनाश के कारण लंबी आर्थिक मंदी उत्पन्न हुई।
 
- युद्धकालीन अर्थव्यवस्था:
- युद्ध के दौरान स्टील, लोहे, और हथियारों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिससे अन्य उद्योगों में गिरावट आई।
- बाद के वर्षों में बड़ी बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनियों का उदय हुआ।
 
- व्यापार में बाधा:
- यूरोप का अपने उपनिवेशों के साथ व्यापार बाधित हो गया, जिससे वह अमेरिका और जापान से आयात पर निर्भर हो गया।
- कई देशों, विशेषकर जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने आत्मनिर्भरता की नीति अपनाई और अपने संघर्षरत उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिया।
- लेसे-फेयर अर्थशास्त्र का उदय: युद्ध के बाद अर्थव्यवस्थाओं को पुनः पटरी पर लाने के लिए मुक्त-बाजार नीतियों की वकालत की जाने लगी।
 
- ऋण संकट:
- जर्मनी जैसे देश ऋण के साथ संघर्ष कर रहे थे और अधिक मुद्रा छापने लगे, जिससे हाइपरइंफ्लेशन हुआ (जर्मनी में 1923 तक, मार्क लगभग बेकार हो गया)।
- इसके परिणामस्वरूप, अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए डावेस योजना बनाई गई।
 
- संयुक्त राज्य अमेरिका एक ऋणदाता के रूप में:
- अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा ऋणदाता बन गया और उसने वैश्विक आर्थिक शक्ति में अपना वर्चस्व स्थापित किया।
 
- उपनिवेशों के लिए स्वर्ण युग:
- भारत जैसे उपनिवेशों में नए उद्योग (जैसे कपड़ा, लोहा) विकसित हुए, जिससे आर्थिक स्वतंत्रता की नींव रखी गई।
 
- समाजवादी तत्वों का उदय:
- समाजवादी विचारों के प्रसार और श्रमिकों पर युद्ध के विनाशकारी प्रभाव के कारण 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना हुई।
 
वर्साय की संधि (1919)
वर्साय की संधि (1919), पेरिस शांति सम्मेलन का परिणाम थी। इसे अक्सर द्वितीय विश्व युद्ध के बीज बोने के रूप में देखा जाता है क्योंकि इसमें जर्मनी के लिए कठोर शर्तें और गंभीर परिणाम थे।
- युद्ध अपराध धारा: इस धारा के तहत जर्मनी को युद्ध के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया गया। इससे जर्मन जनता में अन्याय की भावना पैदा हुई।
- हर्जाना (Reparations): जर्मनी को लगभग $33 बिलियन (आज के $400 बिलियन से अधिक) का भुगतान करने के लिए बाध्य किया गया, जिसने उसकी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया और हाइपरइंफ्लेशन जैसे कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं।
- सैन्य प्रतिबंध: संधि के तहत जर्मन सेना को 100,000 सैनिकों तक सीमित कर दिया गया और टैंक, भारी तोपखाने, और हवाई जहाज रखने पर रोक लगाई गई। इसके अलावा, अनिवार्य सैन्य सेवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया और राइनलैंड को विसैन्यीकृत (demilitarized) किया गया।
- क्षेत्रीय हानि: जर्मनी ने यूरोप में अपने 1/8 क्षेत्रों और 7 मिलियन लोगों के साथ-साथ अपने सभी उपनिवेशों को खो दिया।
- अलसास-लोरेन (Alsace-Lorraine) फ्रांस को, श्लेसविग (Schleswig) डेनमार्क को, डैंज़िग बंदरगाह (Danzig Port) स्वतंत्र शहर बना, और सार क्षेत्र (SAAR) 15 वर्षों के लिए राष्ट्र संघ (LoN) के अधीन आ गया।
 
- आर्थिक प्रभाव: जर्मनी ने 15% भूमि, 12% पशुधन, 10% मिल और कारखानों को खो दिया। उसके मालवाहक जहाजों की टन भार क्षमता 57 मिलियन से घटकर 5 मिलियन हो गई।
- संसाधनों की हानि:
- दो-तिहाई कोयले के क्षेत्र,
- दो-तिहाई लौह अयस्क,
- 70% जिंक,
- आधे से अधिक सीसे के भंडार
- और उपनिवेशों की हानि के कारण रबर और तेल की कमी।
 
- कट्टरपंथ का उदय (Rise of Extremism): आर्थिक और सामाजिक अव्यवस्था ने एडॉल्फ हिटलर और नाजी पार्टी के उदय का मार्ग प्रशस्त किया, जिन्होंने संधि को रद्द करने और जर्मनी की प्रतिष्ठा को बहाल करने का वादा किया।
अन्य कारण:
- राष्ट्र संघ (League of Nations): राष्ट्र संघ प्रमुख शक्तियों (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका) की अनुपस्थिति से कमजोर था और संधि के उल्लंघनों को प्रभावी ढंग से लागू करने में विफल रहा।
- तुष्टीकरण नीति (Appeasement): संधि के कठोर प्रावधानों और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न अपराध बोध ने ब्रिटेन और फ्रांस को तुष्टीकरण (appeasement) की नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिससे हिटलर के विस्तार को अनियंत्रित रूप से बढ़ने दिया गया।
इन सभी प्रावधानों ने बदले की भावना को जन्म दिया और जब अवसर आया, तो जर्मनी ने मित्र देशों से बदला लेने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध हुआ।
भारत और प्रथम विश्व युद्ध
भारत का ब्रिटेन के लिए महत्व:
- भारत ब्रिटेन के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण उपनिवेशों में से एक था।
- यह ब्रिटेन की समृद्धि और औद्योगिक साम्राज्य का आधार था।
युद्ध में भारत की भूमिका:
- युद्ध की शुरुआत (1914):
- हालांकि भारतीय सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन ब्रिटेन ने शुरुआत से ही भारत को युद्ध में शामिल कर लिया।
- यह युद्ध मुख्य रूप से ब्रिटिश हितों के लिए लड़ा जा रहा था।
 
- लिबरल कांग्रेस नेताओं का दृष्टिकोण:
- ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भारतीयों से कहा कि यह युद्ध दुनिया भर में लोकतंत्र की रक्षा के लिए है।
- कांग्रेस पार्टी के उदारवादी नेताओं (जैसे गोखले) का मानना था कि यदि वे ब्रिटेन की मदद करेंगे, तो युद्ध के बाद भारत में लोकतांत्रिक सुधार होंगे। इसलिए कांग्रेस ने ब्रिटेन का समर्थन करने का निर्णय लिया।
 
- महात्मा गांधी का समर्थन:
- महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे।
- गांधी ने युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया क्योंकि उन्हें लगता था कि वे अच्छे सिद्धांतों के लिए लड़ रहे थे।
 उन्होंने भारतीयों को ब्रिटेन को पुरुष, धन और संसाधनों के साथ मदद करने के लिए प्रेरित किया।
 
- तिलक और क्रांतिकारियों का विरोध:
- लोकमान्य तिलक और अन्य क्रांतिकारी युद्ध से हैरान थे।
 उनका मानना था कि ब्रिटेन के लिए कोई भी संकट भारत की स्वतंत्रता के लिए एक अवसर हो सकता है।
- उन्होंने सहयोग करने से इनकार कर दिया । उनका मानना था कि युद्ध के बाद भी ब्रिटेन अपनी कठोर नीतियों को जारी रखेगा।
 
- लोकमान्य तिलक और अन्य क्रांतिकारी युद्ध से हैरान थे।
- युद्ध में भारत का योगदान: कुछ विरोध के बावजूद, भारतीयों ने ब्रिटेन को व्यापक समर्थन दिया:
- कई मोर्चों पर लड़ने के लिए सैनिकों की भर्ती की गई।
- भारत ने हथियार, गोला-बारूद, और कच्चे माल जैसे गेहूं, चावल, चाय, कपास, जूट, रबर, कोयला, लोहा, और इस्पात की आपूर्ति की।
- देशी राज्यों ने भी सैन्य और वित्तीय सहायता भेजी।
- युद्ध कोष में 10 करोड़ पाउंड का योगदान किया गया, और भारतीय सेना पर हर साल 30 करोड़ पाउंड खर्च किए गए।
 
युद्ध का भारत पर प्रभाव:
- ब्रिटिश वादे: ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों से युद्ध के बाद उन्हें पुरस्कृत करने का वादा किया। लेकिन इसके विपरीत, भारतीयों को अकाल, महामारियों, आर्थिक शोषण और दमनकारी कानूनों का सामना करना पड़ा।
- रॉलेट एक्ट (1919): रॉलेट एक्ट ने ब्रिटिशों को बिना मुकदमे के किसी को भी जेल में डालने की अनुमति दी। यह युद्ध के बाद राजनीतिक अधिकारों की उम्मीद करने वाले भारतीयों के लिए एक बड़ा आघात था। भारतीयों ने इसे ‘काला कानून’ कहा।
- जलियांवाला बाग नरसंहार: रॉलेट एक्ट के खिलाफ विरोध के चलते 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ, जिसमें ब्रिटिश सैनिकों ने सैकड़ों शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को मार डाला। इस घटना ने गांधीजी की ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी को गहराई से आहत किया।
- भारत सरकार अधिनियम (1919): ब्रिटिशों ने भारत सरकार अधिनियम (1919) पारित किया, लेकिन यह भारतीयों को आत्म-शासन देने में विफल रहा।
 इससे भारतीय नेताओं को निराशा हुई और स्वतंत्रता संग्राम को और बल मिला।
खिलाफत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता:
- सेब्रे की संधि: युद्ध के बाद की सेब्रे की संधि ने ओटोमन साम्राज्य का विभाजन किया और खलीफा को हटा दिया।
 इससे भारतीय मुसलमान नाराज हो गए । इसके परिणामस्वरूप खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य खलीफा की पुनर्स्थापना करना था।
- गांधीजी की भूमिका: महात्मा गांधी ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए इसे एक अवसर के रूप में देखा।
- कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन के साथ हाथ मिलाया और इसे ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन से जोड़ा।
 
- तत्काल लाभ: कुछ मुसलमान कांग्रेस में शामिल होने लगे, लेकिन यह एकता ज्यादा समय तक नहीं टिकी। क्योंकि खिलाफत आंदोलन मुख्य रूप से खलीफा के प्रति धार्मिक निष्ठा से प्रेरित था, न कि राष्ट्रीय हितों से।
- आलोचना: न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला ने बाद में राष्ट्रीय आंदोलन को खिलाफत आंदोलन के साथ जोड़ने की आलोचना की, और कहा कि इससे मुसलमानों में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला।
निष्कर्ष:
- धोखा और दमन: युद्ध के दौरान भारतीयों के बलिदानों के बावजूद, ब्रिटेन ने धोखा और दमन का सहारा लिया।
- हालांकि, युद्ध के अनुभव और निराशाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन को और मजबूत किया, जिससे भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और तीव्र हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध
- प्रथम विश्व युद्ध (1918) के अंत के बाद वर्साय की संधि ने जर्मनी को अपमानित किया । इसके मात्र 20 वर्षों बाद, 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ।
- द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) एक वैश्विक संघर्ष था, जिसे धुरी शक्तियाँ (जर्मनी, इटली, और जापान) और मित्र शक्तियाँ (ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, और फ्रांस) के बीच लड़ा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण
कठोर वर्साय की संधि (Harsh Treaty of Versailles):
- प्रथम विश्व युद्ध हारने के बाद जर्मनी को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया।
- जर्मनी ने यूरोप में अपने 1/8 हिस्से का क्षेत्र और 7 मिलियन लोग खो दिए।
- 15% भूमि, 10% कारखाने, और 2/3 कोयला और लोहा भी खो दिए।
- जर्मनी को भारी हर्जाना देना पड़ा, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई।
- जर्मनी की सेना को 100,000 सैनिकों तक सीमित कर दिया गया और उसकी नौसेना छीन ली गई।
 
- इस संधि ने जर्मनी को अपमानित किया, जिससे बदले की भावना उत्पन्न हुई।
तानाशाहों का उदय (Rise of Dictatorships):
- जर्मनी: हिटलर ने वर्साय की संधि के प्रति लोगों के गुस्से का फायदा उठाकर सत्ता हासिल की। उसने आक्रामक विदेश नीति अपनाई और जर्मनी को फिर से हथियारबंद किया।
- इटली: मुसोलिनी ने भी सत्ता में आकर तानाशाही स्थापित की।
- जापान: जापान ने सैन्यवादी और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण अपनाया।
- इन तानाशाही सरकारों ने रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी (Rome-Berlin-Tokyo Axis) नामक गठबंधन बनाया।
राष्ट्र संघ की कमजोरी (Weakness of the League of Nations):
- राष्ट्र संघ शांति बनाए रखने के लिए बनाया गया था, लेकिन यह जर्मनी और इटली जैसी बड़ी शक्तियों की आक्रामक गतिविधियों को रोकने में विफल रहा।
- छोटे देशों ने राष्ट्र संघ से विश्वास खो दिया और सैन्य गठबंधन बनाने लगे।
- दो सशस्त्र समूहों में विभाजन से तनाव और बढ़ा गया।
साम्राज्यवाद (Imperialism):
- जापान: एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। उसने 1931 में मांचूरिया पर आक्रमण किया और बाद में चीन पर हमला किया।
- जर्मनी: हिटलर ने खोए हुए उपनिवेशों को पुनः प्राप्त करने और ब्रिटेन तथा फ्रांस की तरह शक्तिशाली बनने के लिए और अधिक उपनिवेशों पर कब्जा करने की कोशिश की।
- इटली: मुसोलिनी ने एक महान इतालवी साम्राज्य बनाने की योजना बनाई थी।
निरस्त्रीकरण की विफलता (Failure of Disarmament):
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद देशों ने अपने हथियार घटाने पर सहमति जताई। लेकिन ये नियम केवल पराजित देशों जैसे जर्मनी पर लागू किए गये, विजेता देशों पर नहीं।
- 1935 में हिटलर ने खुलेआम जर्मनी के फिर से हथियारबंद होने की घोषणा की। इससे यूरोप में भय फैल गया और फ्रांस और रूस ने भी अपने हथियार बढ़ाने शुरू कर दिए।
उग्र राष्ट्रवाद (Extremist Nationalism):
- आर्थिक प्रतिस्पर्धा और 1929 की महामंदी ने राष्ट्रवाद को और बढ़ावा दिया। राष्ट्रों ने यह मानना शुरू किया कि उनकी संस्कृति, भाषा, और जाति सबसे श्रेष्ठ है।
- हिटलर ने दावा किया कि जर्मन लोग एक श्रेष्ठ आर्य जाति हैं और उन्हें दूसरों पर शासन करने का अधिकार है।
- इस अतिवादी राष्ट्रवाद ने दुनिया को युद्ध की ओर धकेल दिया।
तुष्टीकरण नीति (Policy of Appeasement):
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को शांत करने के लिए तुष्टीकरण की नीति अपनाई।
- बिना किसी ठोस विरोध के, ब्रिटेन ने हिटलर को ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा करने दिया। इससे हिटलर को और आक्रामक बनने का आत्मविश्वास मिला।
- ब्रिटेन और फ्रांस ने सोचा कि इससे एक और युद्ध टल जाएगा, लेकिन इस नीति ने स्थिति और बिगाड़ दी।
अल्पसंख्यकों की नाराज़गी (Discontent of Minorities):
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद बनी नयी सीमाओं ने कई जातीय अल्पसंख्यकों को विदेशी देशों में छोड़ दिया।
- हिटलर ने जर्मनों के साथ दुर्व्यवहार का बहाना करते हुए ऑस्ट्रिया और सुडेटेनलैंड (चेकोस्लोवाकिया) पर आक्रमण किया।
- बाद में उसने इसी बहाने पोलैंड पर भी आक्रमण किया।
अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट (1929) (International Economic Crisis):
- महामंदी (Great Depression) ने सभी देशों को प्रभावित किया, जिससे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फेल गई ।
- जर्मनी में 7 मिलियन लोग बेरोजगार हो गए, जिससे नाजीवाद को बल मिला । जापान ने इस संकट का फायदा उठाकर मांचूरिया (1931) पर आक्रमण किया।
- इटली ने अपने आर्थिक संकट से ध्यान हटाने के लिए अबीसीनिया (1935) पर आक्रमण कर दिया ।
दो धड़ों में विभाजन (Split into Two Blocs):
- दुनिया दो शत्रुतापूर्ण सैन्य धड़ों में बंट गई:
 रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी (Germany, Italy, Japan)
 मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत रूस, अमेरिका)।
- जब हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण किया, तो ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैंड का समर्थन किया । इससे युद्ध की शुरुआत हुई।
तत्काल कारण (Immediate Cause):
- दुनिया बारूद के रंगमंच जैसी स्थिति में थी। और हिटलर का पोलैंड पर आक्रमण (1 सितंबर 1939) इस पर विस्फोट का कारण बना।
- ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर को रुकने की चेतावनी दी लेकिन उसने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।
- 3 सितंबर,1939 को ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी पर युद्ध की घोषणा की, जिससे द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया।
द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव
सामाजिक प्रभाव
मानवता पर प्रभाव:
- युद्ध के कारण 70-85 मिलियन लोगों की मौत हुई, जो उस समय विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 3% थी।
- होलोकॉस्ट और जनसंहार: नाजी जर्मनी द्वारा लगभग 60 लाख यहूदियों का व्यवस्थित नरसंहार किया गया।
- जनसांख्यिकीय बदलाव: युद्ध के चलते जनसंख्या संरचना में व्यापक बदलाव हुए, महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर शोषण हुआ, और युद्ध के दौरान कई देशों में बच्चों का जन्म हुआ जिन्हें “युद्ध शिशु” (वॉर चिल्ड्रन) कहा गया।
परमाणु युग की शुरुआत:
- 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर बमबारी (75,000 तत्काल मृत्यु, 140,000 कुल मृत्यु)।
- 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर बमबारी (40,000 तत्काल मृत्यु, 80,000 कुल मृत्यु)।
- परमाणु युग की शुरुआत ने विनाश की नई आशंका को जन्म दिया, जिससे शीत युद्ध के दौरान हथियारों की दौड़ शुरू हो गई।
विस्थापन और शरणार्थी संकट:
- लगभग 60 मिलियन लोग युद्ध से विस्थापित हुए, जिनमें 12 मिलियन जर्मन पूर्वी यूरोप से निष्कासित किए गए।
- 1948 में इज़राइल के निर्माण ने यहूदी और फिलिस्तीनी समुदायों में बड़े पैमाने पर विस्थापन और संघर्ष को जन्म दिया।
महिलाओं की भूमिका में बदलाव:
- युद्ध के दौरान महिलाओं ने कारखानों और अन्य महत्वपूर्ण कार्यस्थलों पर काम किया, जिससे उनके अधिकारों में वृद्धि हुई। (जैसे फ्रांस में 1944 में महिलाओं को मतदान का अधिकार)
- नारीवादी आंदोलनों की नींव रखी गई, जो 1960 के दशक में प्रभावशाली साबित हुईं।
राजनीतिक प्रभाव
विश्व का दो विचारधाराओं में विभाजन:
- विश्व दो विचारधारात्मक गुटों में विभाजित हो गया:
- साम्यवाद (सोवियत संघ के नेतृत्व में) → उत्पादन के सरकारी नियंत्रण और वर्गहीन समाज की वकालत।
- लोकतंत्र और पूंजीवाद (अमेरिका के नेतृत्व में) → स्वतंत्र बाजार, निजी स्वामित्व और व्यक्तिगत अधिकारों का समर्थन।
 
शीत युद्ध की शुरुआत:
- अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वैचारिक संघर्ष ने शीत युद्ध को जन्म दिया। दोनों महाशक्तियों ने हथियारों की दौड़, छद्म युद्ध, और वैश्विक प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा की । हालांकि उन्होंने सीधा सैन्य संघर्ष नहीं किया।
पूर्वी यूरोप में तानाशाही:
- सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशों जैसे पोलैंड, हंगरी, और पूर्वी जर्मनी में साम्यवादी शासन स्थापित किया।
- वहीं, पश्चिमी यूरोप ने लोकतंत्र और पूंजीवाद को अपनाया।
जर्मनी का विभाजन:
- जर्मनी को दो भागों में विभाजित कर दिया गया:
- पश्चिमी जर्मनी (पूंजीवादी, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका के नियंत्रण में)।
- पूर्वी जर्मनी (साम्यवादी सोवियत संघ के नियंत्रण में)।
 
- बर्लिन को भी एक दीवार द्वारा विभाजित किया गया, जो 1990 तक बनी रही ।
यूरोपीय श्रेष्ठता का अंत:
- युद्ध के बाद ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली की आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई, जिससे वैश्विक नेतृत्व अमेरिका और सोवियत संघ के हाथों में चला गया ।
एशिया और अफ्रीका का जागरण:
- युद्ध के बाद उपनिवेशवाद के खिलाफ उठे राष्ट्रवादी आंदोलनों के चलते एशिया और अफ्रीका के कई देशों को स्वतंत्रता मिली:
- भारत (1947), बर्मा (1948), श्रीलंका (1948) जैसे देश ब्रिटिश उपनिवेश से आज़ाद हुए।
- अफ्रीका में 1960 तक 30 से अधिक देश स्वतंत्र हो गए।
 
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM):
- भारत के नेहरू जैसे नेताओं के नेतृत्व में नए स्वतंत्र देशों ने शीत युद्ध में तटस्थ रहने का फैसला किया।
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उद्देश्य विकास को बढ़ावा देना और औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष करना था।
राष्ट्रवाद की भावना का क्षय:
- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास ने नस्ल, संस्कृति और भाषा के आधार पर विभाजन को कम किया।
- समान विचारधाराओं वाले देशों में वैश्विक एकता और सहयोग की भावना उत्पन्न होने लगी।
संयुक्त राष्ट्र का गठन:
- 1945 में संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ (शुरुआत में 51 सदस्य, अब 193)। यह अंतरराष्ट्रीय संघर्ष समाधान और सहयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- उद्देश्य: वैश्विक शांति, मानवाधिकारों का संरक्षण, और विकास।
- यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ जैसी संस्थाओं का निर्माण किया।
नूरेमबर्ग ट्रायल और युद्ध अपराध:
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किए गए अत्याचारों के लिए प्रमुख नेताओं और युद्ध अपराधियों पर न्यूरम्बर्ग ट्रायल में मुकदमा चलाया गया।
आर्थिक प्रभाव
युद्ध के बाद की आर्थिक तबाही:
- युद्ध ने ब्रिटेन और फ्रांस की आर्थिक शक्ति को कमजोर कर दिया, जबकि जर्मनी को गंभीर पुनर्निर्माण का सामना करना पड़ा।
अमेरिका का आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय:
- अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक आर्थिक नेता के रूप में उभरा।
- 1944 के ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक की स्थापना हुई, और अमेरिकी डॉलर को वैश्विक मुद्रा का दर्जा मिला।
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्थाओं का अंत:
- युद्ध के बाद यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियाँ (ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैंड) कमजोर हो गईं, जिससे उनके उपनिवेशों में स्वतंत्रता आंदोलनों का उदय हुआ।
- नव स्वतंत्र देशों को उपनिवेशवादी शोषण के बाद आर्थिक विकास की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
पुनर्निर्माण और आर्थिक विकास:
- मार्शल प्लान (1948) ने पश्चिमी यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए $12 बिलियन की सहायता प्रदान की (आज के समय में लगभग $130 बिलियन), जिससे साम्यवाद को रोकने में भी मदद मिली ।
- जापान ने भी अमेरिका की मदद से तेजी से पुनर्निर्माण किया और 1960 तक एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बन गया।
गुटनिरपेक्षता और आर्थिक विकास:
- नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने अमेरिका और सोवियत संघ दोनों से आर्थिक सहायता प्राप्त करने की कोशिश की (उदाहरण: भारत ने औद्योगिकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया)।
- इन देशों ने शीत युद्ध में शामिल हुए बिना अपने विकास को प्राथमिकता दी।

