राजपूताना राज्यों के साथ ब्रिटिश संधि राजस्थान इतिहास एवं संस्कृति का एक महत्वपूर्ण विषय है, जो यह दर्शाता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने सीधे आक्रमण की बजाय कूटनीति के माध्यम से अपना नियंत्रण स्थापित किया। इन संधियों के पीछे राजपूत राज्यों के बीच आपसी संघर्ष और मराठों के बढ़ते प्रभाव जैसी परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं। ब्रिटिशों ने राजपूत शासकों का विश्वास जीतने के लिए रणनीतिक प्रयास किए और राजस्थान की विभिन्न रियासतों के साथ अलग-अलग संधियाँ कीं। इन समझौतों का दूरगामी प्रभाव पड़ा, जिससे एक ओर ब्रिटिश प्रभुत्व सुनिश्चित हुआ, तो दूसरी ओर रियासतों को सीमित आंतरिक स्वायत्तता प्राप्त हुई।
राजपूताना राज्यों के साथ ब्रिटिश संधि

ब्रिटिश संधियों के लिए जिम्मेदार परिस्थितियाँ
राजस्थान के राजपूत शासकों ने ब्रिटिशों से संधि करने के लिए निम्नलिखित कारणों से इसे आवश्यक समझा:
- मराठों का हस्तक्षेप : मुगलों के कमजोर पड़ने के बाद, मराठों ने राजस्थान में हस्तक्षेप शुरू कर दिया था, जैसे 1794 में जोधपुर के शासक भीमसिंह और उनके सामंत सवाईसिंह के बीच संघर्ष के दौरान सवाईसिंह ने मराठा सरदार लकवा दादा को जोधपुर पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था।
- पिण्डारी आतंक: पिण्डारी नेताओं जैसे अमीरखां ने राजस्थान में आतंक मचाया। उन्होंने महाराणा भीमसिंह को मजबूर किया कि वे अपनी बेटी कृष्णा कुमारी को जहर पिला दें, जिससे शासकों में असुरक्षा का माहौल था।
- रक्षा में असमर्थता: राजस्थान के शासक मराठों और पिण्डारियों से अपनी रक्षा करने में असमर्थ थे। इसी तरह ब्रिटिश भी इन समूहों से अपनी सुरक्षा नहीं कर पा रहे थे। इस स्थिति में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सुरक्षा के लिए राजस्थान के शासकों से संधि की और उनका संरक्षण स्वीकार किया।
- आर्थिक संकट: राजस्थान के शासक इतने निर्धन हो गए थे कि वे अपने सैनिकों को समय पर वेतन नहीं दे पा रहे थे, जिसके कारण विद्रोह हो रहे थे और गाँवों में लूटपाट हो रही थी। इन कठिन परिस्थितियों में शासक सुरक्षा और शांति के लिए ब्रिटिशों के अधीन होने के लिए तैयार हो गए।
अंग्रेज़ी शासन एवं प्रयास
- लॉर्ड वेलेजली (1798-1805): लॉर्ड वेलेजली ने ब्रिटिश हितों को सुरक्षित करने के लिए राजपूत-मराठा संबंधों में रुचि ली। उनका मुख्य उद्देश्य उत्तरी भारत में मराठा शक्ति को कमजोर करना और मराठाओं के खिलाफ राजपूतों के साथ गठबंधन बनाना था। वे इस योजना को सफलतापूर्वक लागू करने में सफल रहे। लेकिन भारत से उनके जाने के बाद, राजपूताना के प्रति ब्रिटिश नीति में बदलाव आ गया।
- लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823): लॉर्ड हेस्टिंग्स ने भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता स्थापित करने का लक्ष्य रखा, जिसके लिए मराठाओं और पिंडारियों का दमन आवश्यक था। उन्होंने राजपूताना की रियासतों को इस मिशन में स्वाभाविक सहयोगी माना। चार्ल्स मेटकॉफ, जो दिल्ली में ब्रिटिश रेजिडेंट थे, को राजस्थान की रियासतों के साथ संधियों के लिए बातचीत करने का कार्य सौंपा गया। अधिकांश राजपूत राज्यों के साथ संधि करने का श्रेय अंग्रेज प्रतिनिधि चार्ल्स मैटकाफ को है, परन्तु डूंगरपुर, बाँसवाड़ा व प्रतापगढ़ के साथ संधियाँ मालवा के तत्कालीन रेजीडेण्ट जॉन मालकम द्वारा दी गई।
राजपुताना रेजीडेंसी – 1818 ई. में राजपुताना पर प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टि से एक राजनीतिक विभाग की स्थापना की गई जिसे राजपुताना रेजीडेंसी नाम दिया गया तथा डेविड ओक्टरलोनी राजास्थान के प्रथम रेजिडेंट ऑफ़ राजपुताना नियुक्त किये गए।
राजस्थान के विभिन्न राज्यों के साथ संधियाँ :
भरतपुर राज्य (29 सितंबर, 1803 और 10 अप्रैल, 1805)
- 1803 की संधि: अंग्रेजों और भरतपुर राज्य के बीच पहली संधि आपसी अविश्वास के कारण असफल रही।
- 1805 की संधि: अंग्रेजों ने दौलतराव सिंधिया को नियंत्रित करने के लिए भरतपुर से संधि करनी चाही, लेकिन भरतपुर ने होल्कर को शरण देकर अंग्रेजों का विरोध किया।
- अंग्रेजों ने भरतपुर पर चार बार आक्रमण किया, जिसमें तीन बार भरतपुर विजयी रहा। अंततः चौथे आक्रमण में हारकर भरतपुर ने 10 अप्रैल, 1805 को संधि की।
अलवर राज्य (14 नवंबर, 1803)
- ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अलवर राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया।
- कम्पनी ने अलवर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया।
- अलवर ने ‘लसवाड़ी के युद्ध’ (1803) में अंग्रेजों का समर्थन किया।
जयपुर राज्य (12 दिसंबर, 1803)
- महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने 12 दिसंबर, 1803 को कम्पनी से संधि की, लेकिन 1805 में अंग्रेजों ने इसे भंग कर दिया।
- 1816 की संधि भी खिराज की भारी मांग के कारण असफल रही।
- अंततः 2 अप्रैल, 1818 को एक नई संधि हुई, जिसने महाराजा जगतसिंह की स्थिति को मजबूत किया और राज्य को मराठों व पिण्डारियों से मुक्ति दिलाई।
जोधपुर राज्य (22 दिसंबर, 1803)
- दिसम्बर 1803 में जोधपुर के भीमसिंह और अंग्रेजों के बीच संधि हुई।
- भीमसिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी मानसिंह ने संधि की शर्तें बदलने की मांग की, जिसे अंग्रेजों ने अस्वीकार कर दिया।
- अंततः मानसिंह ने 1,08,000 रुपये वार्षिक खिराज और 1500 घुड़सवार सैनिकों की सहायता देने की शर्त पर अंग्रेजों से संधि की।
टोंक राज्य स्थापना (17 नवंबर, 1817)
- अमीर खां ने 17 नवंबर, 1817 को अंग्रेजों से संधि कर टोंक का स्वतंत्र शासक बनने और ‘नवाब’ की उपाधि प्राप्त की।
- अमीर खां ने अपनी सेना अंग्रेजों को सौंप दी और लूटपाट बंद कर दी।
- इससे पिण्डारियों की समस्या समाप्त हो गई और राजपूताना में राज्यों की संख्या बढ़कर 18 हो गई
झालावाड़ राज्य स्थापना (1 अप्रैल, 1838)
- कोटा राज्य के अंदर आंतरिक संघर्ष के कारण अंग्रेजों ने कोटा को विभाजित किया।
- 1 अप्रैल, 1838 को 17 परगनों को अलग कर झाला वंश के लिए स्वतंत्र झालावाड़ राज्य की स्थापना की।
- इससे राजपूताना के राज्यों की संख्या बढ़कर 19 हो गई।
1818 ई. की संधियों की सामान्य शर्तें :
- ईस्ट इंडिया कम्पनी और संधिकर्ता राज्य के बीच स्थायी मित्रता बनी रहेगी।
- कम्पनी, संधिकर्ता राज्य को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा देगी और आंतरिक उपद्रवों को दबाने में सहयोग करेगी।
- संधिकर्ता राज्य अंग्रेजी कम्पनी की सर्वोच्चता स्वीकार करेंगे और उनके अधीन सहयोग करेंगे।
- संधिकर्ता राज्य अन्य राज्यों से राजनीतिक संबंध नहीं रखेंगे और न ही युद्ध या संधि करेंगे।
- संधिकर्ता राज्यों के आंतरिक शासन में कम्पनी हस्तक्षेप नहीं करेगी।
- मराठों को खिराज देने वाले राज्य अब कम्पनी को खिराज देंगे, जबकि अन्य राज्यों से खिराज नहीं लिया जाएगा।
संधियों का प्रभाव :
राजपूत शासकों की प्रतिष्ठा पर प्रभाव :
- बाह्य विवादों को सुलझाने के लिए अंग्रेजी कम्पनी की मध्यस्थता अनिवार्य हो गई।
- राजाओं की राजनीतिक स्वतंत्रता समाप्त हो गई और वे ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए।
बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा:
- मराठों और पिण्डारियों के हमलों से राज्यों को राहत मिली।
- हालांकि, यह सुरक्षा ब्रिटिश प्रभुत्व की कीमत पर मिली।
राज्यों की आर्थिक दुर्दशा:
- रेजिडेंट की नियुक्ति से मराठों की लूट तो बंद हो गई, लेकिन अंग्रेजों का आर्थिक शोषण बढ़ गया।
- अंग्रेजों को खिराज चुकाने के लिए राजाओं ने पुराने करों में वृद्धि की और नए कर थोप दिए।
सामन्तों में विद्रोह की भावना:
- राजाओं ने आर्थिक संकट से निपटने के लिए सामन्तों से रेख और छटून्द के नाम पर अधिक धन वसूला।
- इस नीति से सामन्तों में असंतोष बढ़ा, जिसने विद्रोह और खालसा क्षेत्रों में लूटमार को जन्म दिया।
- सामन्तों की शक्ति और प्रभाव में गिरावट आई।
कम्पनी के अधिकारों में वृद्धि:
- देशी राज्यों को केवल दायित्व दिए गए, लेकिन अधिकार छीन लिए गए।
- उत्तराधिकार जैसे मामलों में कम्पनी का हस्तक्षेप बढ़ गया।
नए राज्यों और ठिकानों की स्थापना:
- टोंक और झालावाड़ जैसे नए राज्य स्थापित हुए।
- लावा, कुशलगढ़ और नीमराणा को स्वतंत्र मान्यता दी गई।
शासकों के भोग-विलास में वृद्धि:
- शासक शासन के प्रति उदासीन हो गए और भोग-विलास में लिप्त हो गए।
सामन्तों की पद-मर्यादा पर प्रहार:
- ब्रिटिश नीति के तहत सामन्तों को धीरे-धीरे कमजोर और प्रभावहीन बना दिया गया।
- 1857 के विद्रोह में सामन्तों ने अंग्रेजों के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभाई।
किसानों और जनसाधारण की दुर्दशा:
- राज्यों के खर्च में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।
- किसानों पर अधिक खिराज थोपे गए, नई भूमि बंदोबस्त की गई, जिससे उनकी स्थिति और बदतर हो गई।
इन संधियों के परिणामस्वरूप राजस्थान की रियासतें पूरी तरह से ब्रिटिश अधीन हो गईं। शासकों को केवल आंतरिक मामलों में नाममात्र की स्वतंत्रता दी गई, जबकि बाहरी मामलों और आंतरिक प्रशासन पर भी ब्रिटिश का नियंत्रण हो गया। शासक अपनी स्वतंत्रता और शक्ति खो बैठे और अब वे अपनी प्रजा के बजाय केवल ब्रिटिश के प्रति उत्तरदायी रह गए
ब्रिटिश और राजपूताना राज्यों के बीच संधियाँ / समझौते
क्रमांक | राज्य | संधि की तिथि | शासक |
1 | भरतपुर | 1803, 1805 | रणजीत सिंह |
2 | करौली | 15 नवंबर 1817 | हरवक्षपाल सिंह |
3 | टोंक | 17 नवंबर 1817 | नवाब अमीर खां |
4 | कोटा | 26 दिसंबर 1817 | महाराव उम्मेद सिंह |
5 | जोधपुर | 6 जनवरी 1818 | महाराजा मान सिंह |
6 | उदयपुर | 13 जनवरी 1818 | महाराणा भीम सिंह |
7 | बूंदी | 10 फरवरी 1818 | राव विष्णु सिंह |
8 | बीकानेर | 21 मार्च 1818 | सूरज सिंह |
9 | किशनगढ़ | 7 अप्रैल 1818 | कल्याण सिंह |
10 | जयपुर | 15 अप्रैल 1818 | सवाई जगत सिंह |
11 | जैसलमेर | 2 जनवरी 1819 | महाराव मूलराज |
12 | सिरोही | 11 सितंबर 1823 | महाराव शिव सिंह |